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मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि हर वर्ष कार्तिक अमावस्या की रात जब हमारे घर दीपों और रंगोली से जगमगा उठते हैं, तो सिर्फ रोशनी नहीं बल्कि एक प्राचीन और गहन परंपरा भी हमारे जीवन में प्रवेश करती है? यही रात होती है जब माँ लक्ष्मी, धन, वैभव और समृद्धि की देवी, अपने भक्तों के घरों में आशीर्वाद देने के लिए आती हैं। मेरठ की गलियों, मोहल्लों और बाजारों में दीपों की कतारें और पंडालों में भव्य मूर्तियाँ इस विश्वास और श्रद्धा का जीवंत प्रमाण हैं। इस दिन केवल धन और ऐश्वर्य की कामना नहीं की जाती, बल्कि घर और जीवन में संतुलन, अनुशासन, स्वच्छता और भक्ति भाव स्थापित करने का संदेश भी छिपा होता है। शहर के प्रत्येक वर्ग - चाहे वह व्यापारी हो, छात्र हो या घर-घर के लोग - अपनी-अपनी रीति और परंपरा के अनुसार देवी लक्ष्मी का स्वागत करते हैं। यह अवसर केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाजिक और सांस्कृतिक मेल-जोल का भी प्रतीक बन जाता है, जो मेरठवासियों को एक साझा अनुभव और सामूहिक श्रद्धा के सूत्र में बांधता है।
आज हम समझेंगे कि लक्ष्मी पूजा का धार्मिक महत्व और इसके पीछे की मान्यताएँ क्या हैं और इसे क्यों मनाया जाता है। इसके बाद, हम देखेंगे कि भारत में लक्ष्मी पूजा की क्षेत्रीय विविधताएँ और परंपराएँ कैसे अलग-अलग प्रांतों में रची-बसी हैं। इसके साथ ही हम जानेंगे कि देवी लक्ष्मी की मूर्ति, मुद्रा और प्रतीकों का गहरा अर्थ क्या है और प्रत्येक प्रतीक हमारे जीवन के लक्ष्यों को कैसे दर्शाता है। अंत में, हम चर्चा करेंगे कि पूजा की विधि, अनुष्ठान और समाजिक भागीदारी कैसे इस पर्व को सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक उत्सव भी बनाती है।
लक्ष्मी पूजा का धार्मिक महत्व और पर्व के पीछे की मान्यताएँ
हिंदू धर्म में देवी लक्ष्मी को धन, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्रतीक माना जाता है। लक्ष्मी पूजा का धार्मिक महत्व केवल आर्थिक उन्नति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के चार पहलुओं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - के संतुलन का संदेश भी देती है। कार्तिक अमावस्या, यानी दीपावली की रात, जब अंधकार के बीच प्रकाश का उत्सव मनाया जाता है, यह दिन इस प्रतीक का प्रतिनिधित्व करता है कि अज्ञान और कठिनाई के समय भी मानव जीवन में उजाला और सफलता संभव है। पुरानी मान्यताओं के अनुसार देवी लक्ष्मी अपने भक्तों के घर तभी आती हैं जब घर स्वच्छ, सुव्यवस्थित और श्रद्धापूर्ण हो। इस दिन घर की सफाई, दीयों की रोशनी, फूलों और मिठाइयों का इंतजाम करना सिर्फ अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन में अनुशासन, संयम और सकारात्मक ऊर्जा को आमंत्रित करने का तरीका भी है। इसलिए लक्ष्मी पूजा न केवल धार्मिक कृत्य है, बल्कि यह मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अनुशासन की शिक्षा देती है।
भारत में लक्ष्मी पूजा की क्षेत्रीय विविधताएँ और परंपराएँ
भारत जैसे विशाल और सांस्कृतिक रूप से विविध देश में लक्ष्मी पूजा की परंपराएँ भी क्षेत्र विशेष के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होती हैं। उत्तर भारत में यह दीपावली का मुख्य पर्व है, जिसमें घर-घर दीयों की कतारें, रंगोली और भव्य पूजा की जाती है। वहीं पूर्वी भारत - पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम और त्रिपुरा में इसे शरद पूर्णिमा पर मनाया जाता है और इसे “कोजागरी लक्ष्मी पूजा” कहा जाता है। कोजागरी का अर्थ है - “कौन जाग रहा है?” - और मान्यता है कि जो जागकर भक्ति करता है, वही देवी लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त करता है। इस अवसर पर रातभर जागरण, भजन, कथा और दीपोत्सव आयोजित किया जाता है। दक्षिण भारत में यह पूजा नववर्ष की शुरुआत में भी मनाई जाती है, जहाँ इसे आर्थिक और पारिवारिक सफलता का शुभारंभ माना जाता है। इन विभिन्न परंपराओं से यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्मी पूजा केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि संस्कृति, रीति-रिवाज और सामाजिक जीवन का अंग बन चुकी है।
देवी लक्ष्मी की मूर्ति, मुद्रा और प्रतीकों का गहरा अर्थ
देवी लक्ष्मी की प्रतिमा केवल सुंदरता और ऐश्वर्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि गहन दर्शन और प्रतीकवाद समेटे हुए है। उनकी चार भुजाएँ हमारे जीवन के चार आदर्श लक्ष्यों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - का संकेत देती हैं। देवी लक्ष्मी अक्सर कमल के फूल पर बैठी या खड़ी दिखाई जाती हैं। कमल जो गंदे पानी में भी निर्मल रहता है, वह पवित्रता, आत्म-साक्षात्कार और संघर्ष के बीच भी शुद्धता बनाए रखने का प्रतीक है। उनके साथ दिखाई देने वाले हाथी, वर्षा और समृद्धि के प्रतीक हैं, जबकि उल्लू जो आमतौर पर अंधकार और अशुभ माना जाता है, यहाँ ज्ञान की खोज और अज्ञान पर विजय का प्रतीक है। लाल और स्वर्ण रंग के वस्त्र ऐश्वर्य और सौभाग्य को दर्शाते हैं, और हाथ में पकड़ा कमल जीवन में सत्कार्य और शुद्ध कर्म का संदेश देता है। इस प्रकार उनकी छवि जीवन में धन और आध्यात्मिक समृद्धि दोनों का संतुलन सिखाती है।
पूजा की विधि, अनुष्ठान और सामाजिक भागीदारी
लक्ष्मी पूजा केवल व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं, बल्कि सामूहिक अनुभव और सामाजिक मेल-जोल का उत्सव भी है। घरों की सफाई, रंगोली बनाना, दीप जलाना, मिठाइयाँ बनाना, भजन-कीर्तन और कथा पाठ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि सामाजिक एकता, सहयोग और सांस्कृतिक जागरूकता का संदेश देते हैं। कुछ समुदायों - विशेषकर बंगाली समुदाय - में स्थानीय बंगाली क्लब (club) या सांस्कृतिक संस्थाओं में हर साल भव्य मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं, पाठ और आरती होती है और भोग के साथ सामूहिक पूजा की जाती है। यह परम्परा सभी वर्गों और उम्र के लोगों को एक सूत्र में बाँधती है और सामूहिक भक्ति व खुशी का अनुभव कराती है।
'श्री' शब्द का सांस्कृतिक प्रभाव और समाज में इसकी प्रतिष्ठा
‘श्री’ शब्द देवी लक्ष्मी का प्रतीक है और भारतीय समाज में सम्मान, समृद्धि और शुभकामना का संकेत देता है। धार्मिक ग्रंथ, सरकारी दस्तावेज, विवाह पत्र और शुभ अवसरों के संदेश बिना ‘श्री’ के आरंभ नहीं होते। इसी शब्द से ‘श्रीमान’ और ‘श्रीमती’ जैसे संबोधन जन्मे, जो व्यक्तिगत और सामाजिक सम्मान के प्रतीक बन गए। ‘ओम्’ जहाँ अध्यात्म और आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं ‘श्री’ भौतिक समृद्धि, सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक सुख-संपत्ति का संकेत देता है। यह हमें याद दिलाता है कि लक्ष्मी की उपासना केवल मंदिर या पूजा स्थलों तक सीमित नहीं, बल्कि हमारे शब्द, व्यवहार और सामाजिक परंपराओं में भी विद्यमान है।
बौद्ध और जैन परंपराओं में लक्ष्मी देवी की उपस्थिति
देवी लक्ष्मी केवल हिंदू धर्म में ही नहीं, बल्किबौद्ध और जैन परंपराओं में भी श्रद्धेय हैं। बौद्ध जातकों में देवी लक्ष्मी को दुर्भाग्य दूर करने वाली और सफलता देने वाली देवी माना गया है। जैन मंदिरों में भी लक्ष्मी के प्रतीक - धन, अन्न और जल - सुरक्षित रखने और समृद्धि प्रदान करने का संदेश देते हैं। लक्ष्मी से जुड़े प्रतीक जैसे रत्नों का ढेर, शंख, घोड़ा, गाय, हाथी और कल्पवृक्ष विभिन्न संस्कृतियों में समान रूप से पूजनीय हैं। यह दर्शाता है कि देवी लक्ष्मी धर्म और संस्कृति की सीमाओं से ऊपर उठकर भारतीय समाज में सांस्कृतिक एकता और समरसता की प्रतीक बन गई हैं।
श्रीसूक्त और वैदिक साहित्य में लक्ष्मी की प्राचीन उपस्थिति
देवी लक्ष्मी की उपासना आधुनिक नहीं, बल्कि वैदिक युग से चली आ रही है, जब ऋग्वेद में रचित ‘श्रीसूक्त’ उनके गुणों, आह्वान और आशीर्वाद का विस्तृत वर्णन करता है। यह ग्रंथ ईसा पूर्व 1000-500 के बीच लिखा गया माना जाता है। विद्वानों के अनुसार, प्रारंभ में ‘श्री’ और ‘लक्ष्मी’ शब्द किसी शुभ शक्ति या संपत्ति को दर्शाते थे, जो बाद में देवी लक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। यह विकास भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी को सबसे पुरातन, गूढ़ और सार्वभौमिक देवी के रूप में स्थापित करता है। वैदिक ग्रंथों से लेकर आधुनिक पूजा तक, लक्ष्मी देवी का यह प्राचीन स्वरूप आज भी हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में जीवित है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2s3f555u