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मेरठवासियों, आपने अपने आस-पास गिलोय, अश्वगंधा और तुलसी जैसे अनेक आयुर्वेदिक औषधियों के बारे में सुना होगा, जिनका उपयोग सदियों से घरेलू उपचारों और पारंपरिक चिकित्सा में होता आ रहा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि उत्तर भारत की ऊँचाई वाले हिमालयी क्षेत्रों में एक और ऐसा दुर्लभ वृक्ष उगता है, जो आधुनिक चिकित्सा में कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज में चमत्कारी भूमिका निभा रहा है? इस जीवनरक्षक वृक्ष का नाम है हिमालयन यू (Himalayan Yew) - एक शंकुधारी सदाबहार पौधा, जिससे तैयार की जाने वाली दवा पैक्लिटैक्सेल (Paclitaxel), स्तन, डिम्बग्रंथि और फेफड़ों के कैंसर के इलाज में उपयोग की जाती है। परंतु विडंबना यह है कि जो पौधा लाखों ज़िंदगियों की उम्मीद बन चुका है, वह आज खुद अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। इसकी छाल और पत्तियों से दवाएं निकालने के लालच में इसकी बेतहाशा कटाई हो रही है। परिणामस्वरूप, आईयूसीएन (IUCN) ने इसे "लुप्तप्राय प्रजाति" के रूप में सूचीबद्ध किया है। यह स्थिति केवल वैज्ञानिकों या पर्यावरणविदों की चिंता नहीं होनी चाहिए - बल्कि हम जैसे आम नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम इसकी महत्ता को समझें और इसके संरक्षण के लिए एकजुट हों। मेरठ जैसे शहरों में, जहाँ औषधीय पौधों और जैव विविधता को लेकर जागरूकता तेज़ी से बढ़ रही है, वहां से एक नई चेतना की शुरुआत हो सकती है।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले हम जानेंगे कि यह पौधा क्या है और पारंपरिक चिकित्सा में इसका क्या महत्व रहा है। फिर, हम भारत में इसके वितरण और आवास का भौगोलिक विवरण समझेंगे। इसके बाद इसके शारीरिक रूप और पेड़ की विशेषताओं की जानकारी प्राप्त करेंगे। इसके बाद हम चर्चा करेंगे कि आखिर यह पौधा खतरे में क्यों है - और इसके पीछे कौन-कौन सी औषधीय मांग जिम्मेदार है। अंत में, हम समझेंगे कि इसे बचाने के लिए कौन से वैज्ञानिक व स्थानीय प्रयास जरूरी हैं।
हिमालयन यू क्या है? इसका वैज्ञानिक परिचय और पारंपरिक उपयोग
हिमालयन यू, जिसे वैज्ञानिक समुदाय में टैक्सस वॉलिचियाना (Taxus wallichiana) के नाम से जाना जाता है, एक दुर्लभ और औषधीय दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण शंकुधारी वृक्ष है। यह मुख्य रूप से हिमालय की ठंडी और ऊँचाई वाली पहाड़ियों में पाया जाता है। यह वृक्ष सदाबहार होता है और आमतौर पर इसकी ऊँचाई 10 मीटर तक पहुंच सकती है। पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में हिमालयन यू का उपयोग सैंकड़ों वर्षों से हो रहा है, विशेषकर तिब्बती, यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा में इसके अर्क को उपयोग में लाया जाता रहा है। इसकी छाल और पत्तियों से निकाला जाने वाला यौगिक पैक्लिटैक्सेल अत्यंत मूल्यवान है, जो स्तन, डिम्बग्रंथि और फेफड़े के कैंसर के उपचार में प्रभावी रूप से उपयोग किया जाता है। यह दवा विशेष रूप से कीमोथेरेपी (chemotherapy) में काम आती है और इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा आवश्यक दवाओं की सूची में भी शामिल किया गया है। यह सब हिमालयन यू को मात्र एक औषधीय पौधा नहीं, बल्कि जीवनदायिनी वृक्ष बना देता है। दुर्भाग्यवश, इसके अत्यधिक दोहन और संरक्षण की अनदेखी के कारण यह पेड़ अब स्वयं संकट में है।
भारत में हिमालयन यू का वितरण और प्राकृतिक आवास
भारत में हिमालयन यू का वितरण मुख्यतः हिमालय के पश्चिमी और पूर्वी भागों में होता है। यह वृक्ष समुद्र तल से 900 मीटर से 3,700 मीटर की ऊंचाई तक के पर्वतीय क्षेत्रों में विकसित होता है। इसकी प्राकृतिक उपस्थिति जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में विशेष रूप से देखी जाती है। यह वृक्ष आमतौर पर नम, छायादार और ढलान वाले इलाकों में उगता है, जहां मिट्टी की नमी और जलवायु इसकी वृद्धि के अनुकूल होती है। यह पर्णपाती, सदाबहार और मिश्रित वनों में भी उगने में सक्षम है, जिससे इसकी पारिस्थितिकी अत्यंत विविधतापूर्ण बनती है। हालांकि, इसी पारिस्थितिक विविधता की वजह से यह जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप जैसे कारकों के प्रति बहुत संवेदनशील भी हो जाता है। इसके निवास स्थानों में बेतरतीब निर्माण, जंगलों की कटाई और अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण यह वृक्ष अपने मूल स्थानों से लुप्त होता जा रहा है। इसकी प्राकृतिक विविधता को संरक्षित करना, हमारी पारिस्थितिकी की स्थिरता के लिए आवश्यक है।

हिमालयन यू के पेड़ की संरचना और विशेष शारीरिक लक्षण
हिमालयन यू का पेड़ आकार में मध्यम होता है लेकिन इसकी बनावट में असाधारण विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इसके अंकुर पहले गहरे हरे रंग के होते हैं, जो कुछ वर्षों में धीरे-धीरे भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। इसकी पत्तियाँ पतली, चपटी और सुई जैसी होती हैं, जिनकी लंबाई लगभग 1.5 से 2.7 सेमी होती है और ये दो क्षैतिज पंक्तियों में दिखाई देती हैं। ये पत्तियाँ तनों पर सर्पिल रूप में लगती हैं लेकिन उनके आधार की झुकाव की वजह से दो पंक्तियों जैसी प्रतीत होती हैं। यह पौधा एकलिंगी होता है - यानी नर और मादा फूल अलग-अलग वृक्षों पर उगते हैं। इसके बीज शंकु अत्यधिक रूपांतरित होते हैं जो छोटे लाल अरील (बेरी जैसे फल) में बदल जाते हैं। इन अरीलों (Aryl) के भीतर लगभग 7 मिमी लंबा गहरे भूरे रंग का बीज पाया जाता है। नर शंकु आमतौर पर गोल होते हैं और वसंत ऋतु के प्रारंभ में दिखाई देते हैं। इस वृक्ष की संपूर्ण रचना उसे पर्यावरण के लिए विशेष बनाती है, लेकिन इसकी पुनरुत्पादन प्रक्रिया धीमी होने के कारण इसकी संख्या तेजी से नहीं बढ़ पाती - जो संरक्षण के प्रयासों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
हिमालयन यू संकट में क्यों है? टैक्सोल दवा और अत्यधिक दोहन
हिमालयन यू के संकट में होने का सबसे बड़ा कारण है - टैक्सोल (Taxol) या पैक्लिटैक्सेल नामक औषधीय यौगिक की अत्यधिक मांग। यह यौगिक 1971 में इस वृक्ष की छाल से प्राप्त किया गया था, और 1993 में इसे औषधीय उपयोग की मंजूरी मिलते ही इसकी मांग में भारी वृद्धि हुई। चूंकि टैक्सोल की प्राप्ति केवल पौधे की छाल और पत्तियों से होती है, इसलिए पेड़ को काटना पड़ता है, जिससे इसकी पुनः वृद्धि रुक जाती है। अधिकांशतः इसकी कटाई में यह नहीं देखा जाता कि वृक्ष नर है या मादा, जिससे प्रजनन की प्रक्रिया बाधित होती है और नई पौध तैयार नहीं हो पाती। अनुमान है कि कई क्षेत्रों में इसकी आबादी में 70-90% तक की गिरावट आ चुकी है। फार्मास्यूटिकल (Pharmaceutical) कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर इसका व्यावसायिक शोषण और इसके बदले में उचित पुनर्वनीकरण की प्रक्रिया का अभाव, इस संकट को और गंभीर बना रहा है। आईयूसीएन (International Union for Conservation of Nature) ने इसे "लुप्तप्राय" (Endangered) प्रजाति घोषित किया है, जो इस बात का संकेत है कि यदि शीघ्र कदम न उठाए गए तो यह जीवनदायी वृक्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए सिर्फ किताबों में ही रह जाएगा।

हिमालयन यू का संरक्षण: समाधान, शोध और सामुदायिक भागीदारी
हिमालयन यू के संरक्षण के लिए बहुस्तरीय रणनीतियाँ अपनाना अनिवार्य है। सबसे पहले इसकी वर्तमान जनसंख्या का वैज्ञानिक सर्वेक्षण और निगरानी अत्यंत आवश्यक है, जिससे इसके निवास स्थानों में हो रहे बदलावों पर समय रहते कार्रवाई की जा सके। इसके लिए इन-सीटू (In-situ) और एक्स-सीटू (Ex-situ) दोनों प्रकार की रणनीतियाँ अपनानी होंगी। इन-सीटू संरक्षण के अंतर्गत पौधों को उनके प्राकृतिक आवास में संरक्षित किया जाता है, जबकि एक्स-सीटू में बीजों और कटिंग से प्रयोगशालाओं में नई पौध तैयार की जाती है। इसकी छाल और पत्तियों के उपयोग हेतु पर्यावरण-सुरक्षित तकनीकों का विकास भी ज़रूरी है ताकि बिना पेड़ को नुकसान पहुँचाए औषधीय यौगिक प्राप्त किए जा सकें। साथ ही, स्थानीय समुदायों की भागीदारी को सुनिश्चित करना भी उतना ही आवश्यक है, क्योंकि उनके सहयोग के बिना कोई भी संरक्षण योजना स्थायी नहीं बन सकती। स्कूलों, कॉलेजों और पंचायत स्तर पर जागरूकता अभियान चलाकर इस वृक्ष के महत्व को जन-जन तक पहुँचाया जा सकता है। यदि यह प्रयास समन्वित रूप से किए जाएँ तो हिमालयन यू को न केवल बचाया जा सकता है, बल्कि इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जीवनदायी उपहार के रूप में भी सुरक्षित किया जा सकता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/y7m35uvb