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मेरठवासियों, क्या आपको याद हैं वो दिन जब गाँव के मेले में या किसी स्कूल के कार्यक्रम में रंग-बिरंगी कठपुतलियाँ अपनी डोरियों पर झूमती थीं? कभी राजा बनकर न्याय करतीं, तो कभी किसी किसान या जोकर की आवाज़ बनकर समाज की सच्चाई बयां करतीं। बच्चे तालियाँ बजाते थे, बड़े मुस्कुराते थे - लेकिन इन पलों में सिर्फ़ हँसी नहीं, एक गहरी सीख भी छिपी होती थी। यही तो थी हमारी कठपुतली कला - मनोरंजन और जीवन-दर्शन का अद्भुत संगम। मेरठ जैसे सांस्कृतिक शहर में, जहाँ लोकनाट्य, कवि सम्मेलनों और नाट्य मंचों की परंपरा आज भी जीवित है, कठपुतली कला भी कभी लोक जीवन का अहम हिस्सा रही है। यह केवल नाचती या बोलती हुई गुड़िया नहीं थी - बल्कि हमारी संस्कृति, इतिहास और समाज की आवाज़ थी, जो बिना उपदेश दिए लोगों के दिलों तक पहुँचती थी। एक समय था जब मेरठ के आसपास के गाँवों में यह कला लोक शिक्षा और जागरूकता का माध्यम बनकर उभरती थी - बच्चों को नैतिकता, बड़ों को एकता और समाज को परिवर्तन का संदेश देती हुई। आज जब मोबाइल की स्क्रीन ने हमारे मनोरंजन की दुनिया को सीमित कर दिया है, तब लगता है जैसे वो डोरियाँ जो कभी कहानियों को जीवंत बनाती थीं, धीरे-धीरे ढीली पड़ रही हैं। पर क्या यह कला सचमुच गायब हो रही है - या बस हमारी नज़रों से ओझल हो गई है? इसी सवाल के साथ आइए, इस लेख में हम खोज करते हैं कठपुतली कला के उस समृद्ध इतिहास की जो सदियों से भारत की आत्मा का हिस्सा रही है। जानेंगे इसके उद्भव और धार्मिक महत्व के बारे में, लोक रंगमंच और शिक्षा में इसकी भूमिका को समझेंगे, भारत की विभिन्न क्षेत्रीय कठपुतली शैलियों का परिचय पाएँगे, इंडोनेशिया की वेयांग (Wayang) कुलित से इसके वैश्विक संबंध को देखेंगे, कारीगरों की पारंपरिक तकनीकों को जानेंगे, और अंत में इस कला के पुनर्जागरण की ज़रूरत पर विचार करेंगे।

भारतीय परंपरा में कठपुतली कला का उद्भव और ऐतिहासिक महत्व
कठपुतली भारत की सबसे पुरानी नाट्य कलाओं में से एक है। माना जाता है कि यह कला 500 ईसा पूर्व से भी पहले अस्तित्व में थी। ‘सिलप्पदिकारम’ जैसी प्राचीन तमिल कृति में कठपुतली के उल्लेख मिलते हैं, और ‘नाट्यशास्त्र’ के ‘सूत्रधार’ शब्द से भी इसके गहरे दार्शनिक अर्थ जुड़ते हैं। प्राचीन भारत में कठपुतली केवल मनोरंजन नहीं थी, बल्कि एक प्रतीकात्मक शिक्षा प्रणाली थी - जहाँ कलाकार ईश्वर की भूमिका निभाते थे, और कठपुतलियाँ मनुष्य के जीवन की प्रतीक बनती थीं। भारतीय दार्शनिकों ने इसे ब्रह्मांडीय नियंत्रण का रूपक माना, जैसे ईश्वर सूत्रधार है और हम उसकी डोरियों से संचालित पात्र हैं। इस प्रकार, कठपुतली कला न केवल लोकसंस्कृति की उपज है, बल्कि दार्शनिक गहराई से भरा एक आध्यात्मिक प्रदर्शन भी है।
लोक रंगमंच और शिक्षा में कठपुतली की भूमिका
भारतीय समाज में कठपुतली सदियों से जनसंचार और लोकशिक्षा का सशक्त माध्यम रही है। पुराने समय में समाचार, नैतिक कहानियाँ और धार्मिक संदेश कठपुतली नाटकों के माध्यम से गाँव-गाँव पहुँचाए जाते थे। समय के साथ, यह कला सामाजिक जागरूकता अभियानों का हिस्सा बनी - चाहे वह पर्यावरण संरक्षण का सन्देश हो या स्वच्छता अभियान। कई शिक्षण संस्थान अब विकलांग बच्चों के मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास के लिए कठपुतली को एक चिकित्सीय माध्यम के रूप में अपनाते हैं। शब्द, संगीत, रंग और गति के मिश्रण से यह कला बच्चों में आत्मविश्वास और रचनात्मकता को विकसित करती है। मेरठ जैसे सांस्कृतिक नगरों में लोक कलाकारों द्वारा आज भी इसका उपयोग जागरूकता फैलाने के लिए किया जाता है - जिससे यह कला आधुनिक समय में भी प्रासंगिक बनी हुई है।

भारत की विविध क्षेत्रीय कठपुतली परंपराएँ और उनकी विशेषताएँ
भारत के हर कोने की कठपुतली की अपनी एक पहचान है। राजस्थान की "कठपुतली" अपनी चमकीली पोशाक और लोकगीतों के लिए प्रसिद्ध है, वहीं ओडिशा की "कुंडहेई" हल्की लकड़ी से बनी लचीली डोरियों से नियंत्रित होती है। कर्नाटक की "गोम्बेयट्टा" और तमिलनाडु की "बोम्मालट्टम" अपनी यक्षगान और नाट्य परंपरा से प्रेरित हैं - जिनमें डोरियों और छड़ों दोनों का उपयोग किया जाता है। पूर्वी भारत में "पुतुल नाच" (पश्चिम बंगाल) और "यमपुरी" (बिहार) छड़ आधारित कठपुतलियों के रूप में जानी जाती हैं। वहीं उत्तर प्रदेश की दस्ताना कठपुतलियाँ हाथ से संचालित होती हैं और सामाजिक विषयों पर केंद्रित रहती हैं। यह विविधता भारत की सांस्कृतिक गहराई और रचनात्मक अभिव्यक्ति का परिचायक है - जहाँ हर क्षेत्र अपनी पहचान को डोरियों में पिरोता है।
इंडोनेशिया की वेयांग कुलित: भारतीय छाया कठपुतली की वैश्विक समानता
भारतीय छाया कठपुतली परंपरा की गूंज इंडोनेशिया तक पहुँची है। वहाँ की प्रसिद्ध "वेयांग कुलित" कला यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर घोषित की गई है। यह कला जावा और बाली द्वीपों में सदियों से जीवित है, जहाँ बकरी या भैंस की खाल से बनी कठपुतलियाँ पर्दे के पीछे दीपक की रोशनी से छाया बनाकर कथा कहती हैं। इसकी कहानियाँ भी रामायण और महाभारत से प्रेरित हैं - जो भारत और इंडोनेशिया के सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाती हैं। "वेयांग" शब्द का अर्थ ही ‘छाया’ है, जो भारतीय परंपरा की आत्मा को जीवित रखता है। इन कठपुतलियों को बनाने की प्रक्रिया अत्यंत सूक्ष्म होती है - महीनों तक खाल को परिष्कृत कर, रंगों और सोने की पत्तियों से सजाया जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कला ने न केवल अपनी भूमि पर, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया में भी सांस्कृतिक पुल का निर्माण किया।

कठपुतली निर्माण की पारंपरिक तकनीकें और कारीगरों की कला
कठपुतली निर्माण स्वयं में एक जटिल और रचनात्मक कला है। राजस्थान, कर्नाटक और ओडिशा के कारीगर लकड़ी, भैंस की खाल और कपड़े का उपयोग करते हैं। रंगाई के लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है, और कई बार इन्हें सोने या कांस्य पत्तियों से सजाया जाता है। कठपुतलियों की गतिशीलता उनके जोड़ और डोरियों पर निर्भर करती है - जिन्हें महीनों की मेहनत से सटीकता के साथ तैयार किया जाता है। कुछ स्थानों पर इन डोरियों को "आत्मा की डोर" कहा जाता है, जो जीवन और कला के बीच के संबंध का प्रतीक है। इस कला में हर कठपुतली एक कहानी कहती है, और हर कारीगर अपनी रचना में अपना जीवन समर्पित करता है।

आधुनिक युग में कठपुतली कला का संरक्षण और पुनर्जागरण की आवश्यकता
डिजिटल युग में कठपुतली कला के सामने अस्तित्व का संकट है। टेलीविज़न, सोशल मीडिया (Social Media) और एनीमेशन (Animation) के युग में लोककला धीरे-धीरे हाशिये पर जा रही है। लेकिन जौनपुर जैसे सांस्कृतिक नगरों में कई विद्यालय और संगठन इस परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए पहल कर रहे हैं। कठपुतली कार्यशालाएँ, विद्यालयों में शैक्षिक नाटक, और लोक कलाकारों के सम्मान समारोह इस दिशा में सकारात्मक कदम हैं। हमें समझना होगा कि कठपुतली केवल एक नाटक नहीं, बल्कि हमारी लोक आत्मा की अभिव्यक्ति है। यदि इसे नई पीढ़ी से जोड़ा जाए, तो यह कला फिर से मंच पर लौट सकती है - और शायद पहले से अधिक जीवंत रूप में।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/mvs2awya
https://tinyurl.com/dwp94a58
https://tinyurl.com/47vvd5kh
https://tinyurl.com/yn73njke
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