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गणितीय जगत में बहुप्रसिद्ध शब्द पाई (pi) का प्रयोग तीनों प्रकार की गणित अर्थात अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित में किया जाता है। ग्रीक अक्षर में लिखे जाने वाले इस शब्द का सांख्यिकी मान एक वृत (Circle, सर्किल) के व्यास (Diameter) और परिधि (Perimeter, Circumference) के अनुपात के बराबर होता है। दशमलव (3.1415926...) रूप में ना समाप्त होने वाली और ना दोहराई जाने वाली, यह एक अपरिमेय संख्या है, जिसे आसानी के लिए 22/7 के रूप में भी जाना जाता है हैं। चलिए जानें पश्चिमी जगत और भारत में इसके इतिहास के विषय में:
लगभग 4000 वर्ष पूर्व मिस्र की सभ्यता के दौरान यह अस्तित्व में था। मिस्त्र के पिरामीडों का अनुपात ज्ञात करने पर पता चला कि उन्हें पाई (22/7) का अनुमान था। पाई की गणना का सर्वप्रथम उल्लेख यूनानी गणितज्ञ आर्किमिडीस (287-212 ई.पू.) द्वारा 250 ई.पू. के करीब किया गया। इन्होंने एक वृत्त के अंदर और बाहर षट्भुज (Hexagon, 6 किनारों वाला बहुभुज या पौलीगौन) बनाकर, पाई के ऊपरी और निचले छोर की गणना की तथा अपने परिक्षण को आगे बढ़ाते हुए 96-भुजाओं वाले बहुभुज के माध्यम से, उन्होंने अंततः सिद्ध किया कि 223/71 < π < 22/7 (अर्थात 3.1408 < π < 3.1429) होता है, जो पाई के मान के लगभग होता था।
480 ईस्वी में पाई का मान ज्ञात करने के लिए चीन के गणितज्ञ ज़ू चोंगज़ी द्वारा गणितज्ञ लिऊ हुई के सिद्धांत को 12,288 किनारे के बहुभुज पर लागू किया गया, जिनका दशमलव मान 3.141592920 था।
भारत में भी पाई का इतिहास रूचिकर रहा है, चलिए जानें भारत में इसकी खोज के बारे में:
प्राचीन भारत के इतिहास में पाई की गणना के कई उदाहरण मिलते हैं। माना जाता है कि, पाई के मानों का उल्लेख ऋग्वेद के लिखे जाने के समय से होता आ रहा है, हालांकि प्राचीन भारतीय इसे पाई के नाम से नहीं जानते थे। लगभग 600 ई.पूर्व के शुल्बसूत्र (संस्कृत ग्रंथ जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है।) और वेदांग में भी पाई के मानों का ज़िक्र मिलता है। सबसे प्राचीन बौधायन शुल्बसूत्र बताता है कि एक गड्ढे की परिधि इसके व्यास का 3 गुना होती है। इसके पश्चात कई शुल्ब्सूत्रों में पाई को 18 * (3 – 2 √2) = 3.088 लिखा गया है। महाभारत (भीष्मपर्व, XII: 44) सहित कई पुराणों और ग्रंथों में पाई का अनुमानित मान 3 बताया गया है, उस समय किसी को ये ज्ञात न था कि, इसे पाई के नाम से जाना जाएगा इसलिये पाई नाम का उल्लेख नही हैं। परंतु यह तो तय है कि इसका उपयोग 6 ई.पूर्व से होता आ रहा है।
बाद में आर्यभट्ट (476 ईस्वी) के साथ, भारत में गणित का एक नया युग सामने आया। आर्यभट्ट ने अनुमान लगाया कि:
आर्यभट्ट के श्लोक में पाई का मान दिया गया-
अर्थ:
100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62,000 जोड़ें। इस नियम से 20,000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात निम्न होता है:
अतः भारत में भी इसका अस्तित्व अत्यंत प्राचीन है। जिसका विवरण ऊपर दिया गया है।
इस प्रयोग के माध्यम से पाई का मान निकालें:
एक कंपास का उपयोग करके एक वृत्त बनाएं तथा धागे के एक दुकड़े को उसके घेरे पर रख दें। अब धागे को सीधा करें, यह वृत्त की परिधि कहलाएगी। अब सर्कल के व्यास को इसी धागे के माध्यम से मापें। यदि आप वृत्त की परिधि को व्यास से विभाजित करते हैं, तो आपको लगभग 3.14 प्राप्त होगा अर्थात, यह पाई (π) के बराबर होगा।
संदर्भ:
1.https://www.scientificamerican.com/article/what-is-pi-and-how-did-it-originate/
2.https://souravroy.com/2011/01/07/pi-in-indian-mathematics/
3.https://en.wikipedia.org/wiki/Pi
4.https://www.quora.com/Who-discovered-the-number-pi