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जब भी स्वामी विवेकानंद का जिक्र आता है, तब उनके उस भाषण की चर्चा अवश्य होती है, जो उन्होंने 1893 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन के दौरान दिया था। यह भाषण अब तक के सबसे महान भाषणों में से एक है, जिसमें स्वामी विवेकानंद ने उत्तरी अमेरिका में हिंदू धर्म का परिचय दिया।अपने भाषण की शुरूआत करते हुए वे कहते हैं कि – “अमेरिका के बहनो और भाइयों, आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं”।
धर्म की उचित परिभाषा को समझाते हुए वे कहते हैं कि –“मैं यह नहीं चाहता हूं कि ईसाई, हिंदू बन जाएं या हिंदू या बौद्ध ईसाई बन जाएं। जब बीज को भूमि में डाला जाता है, तो उसके चारों ओर मौजूद मिट्टी, हवा और पानी उसके पोषण और वृद्धि में योगदान देते हैं। ऐसा नहीं होता कि मिट्टी में बोया बीज धरती या वायु या जल बन जाए। यह एक पौधा बनता है और अपने विकास के नियम के अनुसार विकसित होता है तथा हवा, मिट्टी और पानी को आत्मसात करता है। धर्म के मामले में भी ऐसा ही है। एक ईसाई व्यक्ति को हिंदू या बौद्ध नहीं बनना है, न ही एक हिंदू या बौद्ध व्यक्ति को ईसाई बनना है। लेकिन प्रत्येक को अपनी वैयक्तिकता को बनाए रखते हुए एक-दूसरे की भावना को आत्मसात करना होगा और विकास के अपने नियम के अनुसार बढ़ना होगा”।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/ytrrnh53
https://tinyurl.com/bdhr9hkv
https://tinyurl.com/ydtwzhjp
https://tinyurl.com/2w4mhbtp