क्या खराब वायु गुणवत्ता हमारे शरीर के माइक्रोबायोटा को धीरे-धीरे प्रभावित कर रही है?

बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ, क्रोमिस्टा और शैवाल
29-12-2025 09:28 AM
क्या खराब वायु गुणवत्ता हमारे शरीर के माइक्रोबायोटा को धीरे-धीरे प्रभावित कर रही है?

रामपुरवासियों आज हम एक ऐसे विषय पर बात करने जा रहे हैं जो शायद रोज़मर्रा की बातचीत में कम सुनाई देता है, लेकिन हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है - मानव माइक्रोबायोटा (Microbiota) और वायु प्रदूषण के बीच का संबंध। माइक्रोबायोटा हमारे शरीर में रहने वाले ना दिखने वाले लाखों-करोड़ों सूक्ष्मजीवों का संसार है, और वायु प्रदूषण का इस संसार पर क्या असर पड़ता है, यह समझना आज के समय में आवश्यक हो गया है।
आज हम विस्तार से समझेंगे कि मानव माइक्रोबायोटा क्या होता है और ये हमारे शरीर के लिए क्यों ज़रूरी है। फिर, हम जानेंगे कि वायु प्रदूषण किस तरह माइक्रोबायोटा के संतुलन को बिगाड़कर डिस्बायोसिस पैदा करता है। इसके बाद, हम वायु प्रदूषण से जुड़े संक्रमण और स्वास्थ्य जोखिमों की चर्चा करेंगे। साथ ही, हम यह भी समझेंगे कि प्रदूषण का प्रभाव आंत माइक्रोबायोम पर कैसा पड़ता है और इससे पाचन तंत्र कैसे प्रभावित होता है। आगे चलकर, हम शहरी और ग्रामीण वातावरण में सूजन आंत्र बीमारियों के अंतर, पीएम2.5-पीएम10 (PM2.5-PM10) के खतरों और अंत में वायु प्रदूषण के कैंसर से संबंध को भी जानेंगे।

मानव माइक्रोबायोटा: संरचना, कार्य और स्वास्थ्य में भूमिका
मानव माइक्रोबायोटा उन अरबों सूक्ष्मजीवों का विशाल और अत्यंत जटिल पारिस्थितिक समुदाय है, जो हमारे शरीर की त्वचा, आंत, श्वसन तंत्र, जननांग, मुखगुहा और रक्त-संरचना तक फैला हुआ होता है। इसमें केवल बैक्टीरिया ही नहीं, बल्कि वायरस, आर्किया, फंगस (fungus), प्रोटिस्ट (Protist), बैक्टीरियोफेज (bacteriophage) और सूक्ष्म यूकेरियोटिक (Eukaryotic) जीव भी शामिल होते हैं। जन्म के क्षण से ही माइक्रोबायोटा का निर्माण शुरू हो जाता है, और शोध बताते हैं कि गर्भस्थ शिशु भी कुछ माइक्रोबियल (Microbial) अंशों के संपर्क में हो सकता है। समय के साथ यह माइक्रोबायोटा हमारे पर्यावरण, खान-पान, आनुवांशिकता और जीवन-शैली के आधार पर विकसित होता रहता है। यह समुदाय केवल पाचन में मदद नहीं करता, बल्कि शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रशिक्षित करता, हानिकारक रोगाणुओं से रक्षा करता, विटामिन के (K) और विटामिन बी (B) जैसे आवश्यक पोषक तत्व बनाता और मानसिक स्वास्थ्य, हार्मोनल संतुलन तथा मेटाबॉलिज़्म (Metabolism) पर गहरा प्रभाव डालता है। एक संतुलित माइक्रोबायोटा शरीर को बीमारियों से लड़ने की शक्ति देता है, जबकि असंतुलन कई गंभीर रोगों की शुरुआत कर सकता है।

वायु प्रदूषण और माइक्रोबायोटा: डिस्बायोसिस का विज्ञान
वायु प्रदूषण माइक्रोबायोटा के संतुलन (होमियोस्टेसिस - Homeostasis) को बिगाड़ने वाला एक गंभीर पर्यावरणीय कारक है। हवा में उपस्थित रसायन, ओज़ोन (O₃), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO), सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂), सिगरेट का धुआँ, औद्योगिक गैसें और सबसे महत्वपूर्ण - पीएम2.5–पीएम10 - माइक्रोबियल समुदाय की संरचना और विविधता में तेज़ बदलाव ला सकते हैं। वैज्ञानिक शोधों में पाया गया है कि मात्र कुछ घंटों का प्रदूषण-संपर्क भी आंत, फेफड़ों और त्वचा के माइक्रोबायोटा में तुरंत परिवर्तन कर सकता है। इस असंतुलन को डिस्बायोसिस (Dysbiosis) कहा जाता है, जिसके प्रभाव गंभीर हो सकते हैं। डिस्बायोसिस से शरीर में सूजन का स्तर बढ़ता है, रोग-प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है, और कई अंगों की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है। इसके चलते श्वसन रोग, एलर्जी, त्वचा समस्याएँ, मेटाबोलिक विकार, मानसिक तनाव और यहाँ तक कि ऑटोइम्यून बीमारियों (Autoimmune diseases) का जोखिम भी बढ़ जाता है। प्रदूषण केवल बाहरी वातावरण को नहीं, बल्कि शरीर के अंदर बसे सूक्ष्म जगत को भी हानि पहुँचाता है।

वायु प्रदूषण से जुड़े संक्रमण और प्रमुख स्वास्थ्य जोखिम
वायु प्रदूषण का शरीर पर सबसे तेज़ और खतरनाक प्रभाव प्रतिरक्षा प्रणाली पर पड़ता है। प्रदूषक कण, विशेषकर पीएम2.5, फेफड़ों की गहराई तक पहुँचकर वहाँ सूजन पैदा करते हैं और फेफड़ों की कोशिकाओं को कमजोर कर देते हैं। इसी कारण तपेदिक (TB), मेनिनजाइटिस (Meningitis), निमोनिया और कोविड-19 (COVID-19) जैसे संक्रमणों का जोखिम प्रदूषित वातावरण में रहने वाले लोगों में कई गुना बढ़ जाता है। प्रदूषण में पाए जाने वाले भारी धातु-जैसे लेड (Lead), आर्सेनिक (Arsenic), मैंगनीज़ (Manganese) और कैडमियम (Cadmium) - रक्तप्रवाह में पहुँचकर प्रतिरक्षा-कोशिकाओं पर सीधा प्रभाव डालते हैं और उनके कार्य को धीमा करते हैं। इससे ऑक्सीडेटिव (Oxidative) तनाव बढ़ता है, कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त होती हैं, डीएनए (DNA) में सूक्ष्म परिवर्तन (mutation) होते हैं और शरीर बाहरी रोगाणुओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है। गर्भवती महिलाओं में प्रदूषण समय से पहले डिलीवरी, भ्रूण के विकास में कमी और नवजातों की प्रतिरक्षा शक्ति में कमी का कारण बन सकता है। बुजुर्ग और बच्चों पर इसका प्रभाव दोगुना घातक होता है।

आंत माइक्रोबायोम और वायु प्रदूषण: पाचन तंत्र पर असर
हाल के शोध यह साबित करते हैं कि वायु प्रदूषण का प्रभाव केवल फेफड़ों पर ही नहीं, बल्कि आंत के माइक्रोबायोम पर भी गहराई से पड़ता है। जब प्रदूषक कण शरीर में प्रवेश करते हैं, तो वे आंत की म्यूकोसल लाइनिंग (Mucosal lining) को प्रभावित करते हैं, जिससे लीकी गट जैसी स्थितियाँ पैदा हो सकती हैं, जहाँ आंत की दीवार कमजोर होकर विषाक्त कणों को खून में जाने देती है। इससे गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल संक्रमण (Gastrointestinal infections), पेट में छाले, उल्टी, दस्त और पेट दर्द जैसी समस्याएँ बढ़ जाती हैं। वायु प्रदूषण से सूजन आंत्र रोग (IBD), जैसे - क्रोहन रोग (Crohn's disease) और अल्सरेटिव कोलाइटिस (Ulcerative colitis) - का जोखिम भी अत्यधिक बढ़ जाता है। डिस्बायोसिस मानसिक स्वास्थ्य, मूड स्विंग (mood swing), अवसाद, ऊर्जा स्तर, नींद की गुणवत्ता और हार्मोनल चक्र को भी प्रभावित कर सकता है, क्योंकि आंत को "सेकंड ब्रेन" (second brain) कहा जाता है। यह संबंध गट-ब्रेन एक्सिस (gut-brain axis) के माध्यम से संचालित होता है।

शहरी बनाम ग्रामीण वातावरण: सूजन आंत्र रोगों में अंतर
वैश्विक अध्ययनों से पता चलता है कि विकसित देशों - जैसे अमेरिका, कनाडा, फ्रांस और यूके - में सूजन आंत्र रोग तेजी से बढ़ रहा है, जिसका मुख्य कारण वहाँ का औद्योगिक प्रदूषण और आधुनिक जीवनशैली है। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में ताज़ी हवा, अधिक प्राकृतिक माइक्रोबियल संपर्क और कम प्रदूषण होने से माइक्रोबायोटा अधिक संतुलित पाया जाता है। एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे क्षेत्रों में अब सूजन आंत्र रोग के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि तेजी से हो रहे शहरीकरण और प्रदूषण के बढ़ते स्तर ने लोगों की आंत माइक्रोबायोटा में असंतुलन पैदा किया है। भारत में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बैंगलोर जैसे शहरों में सूजन आंत्र रोग की दर लगातार बढ़ रही है, जबकि छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या अभी भी कम है - लेकिन बढ़ती प्रदूषण दर के चलते जोखिम बढ़ रहा है।

पर्टिकुलेट मैटर (PM2.5 और PM10): संरचना, खतरे और स्वास्थ्य प्रभाव
पीएम2.5-पीएम10 हवा में तैरने वाले बेहद सूक्ष्म और खतरनाक कण होते हैं। पीएम10 की तुलना में बड़े कण होते हैं, जो नाक और गले तक पहुँचकर एलर्जी, खाँसी, गले में खराश और सांस लेने में कठिनाई पैदा करते हैं। जबकि पीएम2.5 इतने छोटे होते हैं कि वे सीधे फेफड़ों की गहराई तक पहुँचकर रक्तप्रवाह में घुल जाते हैं। डब्ल्यूएचओ (WHO) ने पीएम2.5 और पीएम10 को प्रमुख स्वास्थ्य-विनाशक प्रदूषक घोषित किया है, क्योंकि यह अस्थमा, सीओपीडी (COPD), हृदय रोग, फेफड़ों की सूजन, उच्च रक्तचाप, स्ट्रोक (Stroke) और मस्तिष्क संबंधी बीमारियों का कारण बन सकते हैं। बच्चों, गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों, डायबिटीज़ और कमजोर प्रतिरक्षा वाले व्यक्तियों के लिए ये सूक्ष्म कण अत्यंत खतरनाक होते हैं। लंबे समय तक इनका संपर्क जीवन-काल को कम कर सकता है।

वायु प्रदूषण और कैंसर: अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी का वर्गीकरण
आईएआरसी (IARC - International Agency for Research on Cancer) ने वायु प्रदूषण को ग्रुप 1 कार्सिनोजेन (Group 1 Carcinogen) घोषित किया है, जिसका मतलब है कि यह कैंसर का सिद्ध कारण है - जैसे तंबाकू, एस्बेस्टस (Asbestos) और यूरेनियम (Uranium)। वैज्ञानिक प्रमाण बताते हैं कि प्रदूषण में मौजूद पीएम2.5, बेंज़ीन (Benzene), फॉर्मल्डिहाइड (Formaldehyde) और पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (PAH) फेफड़ों के कैंसर का जोखिम बहुत बढ़ा देते हैं। 2021 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व की लगभग 99% आबादी ऐसी हवा में साँस ले रही थी जिसमें डब्ल्यूएचओ के मानकों से अधिक प्रदूषण था। इससे न केवल फेफड़ों बल्कि मूत्राशय के कैंसर, डीएनए क्षति, म्यूटेशन (mutation) और कोशिकीय अनियमितताओं का खतरा भी बढ़ रहा है। यह एक गंभीर वैश्विक स्वास्थ्य संकट बन चुका है, जिसके प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सकते हैं।

संदर्भ-
https://tinyurl.com/3sav4fux 
https://tinyurl.com/3f57zv28 
https://tinyurl.com/bdh7kr4d 
https://tinyurl.com/4yb7jsyu 
https://shorturl.at/nXs9Y

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