मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












हिंदी का सफर: मध्यकाल से डिजिटल युग तक का विकास और वैश्विक पहचान
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
13-09-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ!
मेरठवासियों, हमारा शहर न सिर्फ़ अपनी वीरगाथाओं, खेल प्रतिभाओं और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है, बल्कि यहाँ की भाषा और साहित्यिक परंपराएँ भी उतनी ही गौरवशाली हैं। हिंदी, जो हमारे दैनिक जीवन की धड़कन है, मेरठ की गलियों, चौपालों और शैक्षणिक संस्थानों में सदियों से अपनी मिठास और सहजता बिखेर रही है। आज यह भाषा केवल हमारे शहर या देश की सीमा तक सीमित नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अपनी गूंज दर्ज करा रही है। बदलते समय में सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया (media) और विश्व बाज़ार ने हिंदी को नई दिशा और पहचान दी है, जिससे यह डिजिटल मंचों (digital platform) पर, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर और वैश्विक व्यापार की दुनिया में अपनी मज़बूत मौजूदगी दर्ज कर रही है। हर साल 14 सितंबर को जब हम हिंदी दिवस मनाते हैं, तो यह केवल एक भाषा का उत्सव नहीं होता, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत, पहचान और एकता का प्रतीक भी होता है। मेरठ जैसे शहर के लिए यह गर्व की बात है कि यहाँ की ज़मीनी बोली और साहित्यिक रचनाएँ हिंदी की समृद्ध धारा में अपना योगदान देती रही हैं और आगे भी देती रहेंगी।
आज हम देखेंगे कि सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया और वैश्विक बाज़ार में हिंदी की भूमिका किस तरह बढ़ रही है और यह भाषा डिजिटल युग में नए अवसर पा रही है। इसके बाद, हम प्रवासी हिंदी साहित्य की चर्चा करेंगे, जो भारतीय सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखते हुए वैश्विक मंच पर हिंदी को नई पहचान दिलाता है। फिर हम जानेंगे कि भारत और विदेशों में हिंदी शिक्षण के सामने कौन-कौन सी चुनौतियाँ आती हैं और उनके संभावित समाधान क्या हो सकते हैं। इसके बाद, हम मध्यकाल यानी 10वीं से 18वीं सदी में हिंदी के विकास की झलक देखेंगे और समझेंगे कि उस समय इस भाषा ने किन रूपों में प्रगति की। अंत में, हम आधुनिक काल में हिंदी के मानकीकरण, देवनागरी लिपि सुधार और स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय बोलियों के समावेश की कहानी को जानेंगे, जिससे यह भाषा और भी समृद्ध और व्यापक बनी।

सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया और विश्व बाज़ार में हिंदी की भूमिका
पिछले दो दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी, इंटरनेट (internet) और डिजिटल मीडिया ने हिंदी के विकास की दिशा ही बदल दी है। जहाँ पहले हिंदी का उपयोग मुख्यतः साहित्य, शिक्षा या घरेलू बातचीत तक सीमित था, वहीं अब यह वैश्विक डिजिटल मंचों पर एक सशक्त और प्रभावी भाषा के रूप में उभर रही है। फेसबुक (Facebook), इंस्टाग्राम (Instagram), ट्विटर (Twitter) (अब X - एक्स) जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म (Social Media Platform) पर हिंदी में पोस्ट (post) और वीडियो लाखों लोगों तक पहुँचते हैं, जिससे भाषा का प्रभाव बढ़ता है। ब्लॉगिंग (blogging), ऑनलाइन पत्रकारिता (online journalism), पॉडकास्ट (podcast) और यूट्यूब (YouTube) पर हिंदी कंटेंट (content) की बाढ़ ने न केवल इसकी लोकप्रियता में वृद्धि की है, बल्कि यह व्यावसायिक दृष्टि से भी एक लाभदायक विकल्प बन गई है।
ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म (OTT Platform) जैसे नेटफ्लिक्स (Netflix), अमेज़न प्राइम (Amazon Prime) और डिज़्नी+ हॉटस्टार (Disney+ Hotstar) ने हिंदी वेब सीरीज़ (Web Series) और फ़िल्मों को अंतरराष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचाया है। विश्व बाज़ार में कंपनियाँ अब उत्पाद और सेवाओं के विज्ञापन हिंदी में तैयार कर रही हैं, जिससे ग्राहकों के साथ एक भावनात्मक जुड़ाव स्थापित हो पाता है। यह जुड़ाव केवल व्यापार तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान और पहचान को भी मज़बूत करता है। इस तरह, हिंदी अब केवल सांस्कृतिक भाषा नहीं रही, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाली आर्थिक शक्ति भी बन चुकी है।
प्रवासी हिंदी साहित्य और वैश्विक संदर्भ में इसका महत्व
हिंदी का प्रवासियों के जीवन में स्थान केवल एक भाषा का नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने के भावनात्मक माध्यम का है। 19वीं और 20वीं सदी में गिरमिटिया मजदूर जब फ़िजी (Fiji), मॉरीशस (Mauritius), सूरीनाम (Suriname), त्रिनिदाद (Trinidad) और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में गए, तो वे अपने साथ अपनी संस्कृति, गीत, कहानियाँ और भाषा भी ले गए। वहीं जाकर उन्होंने हिंदी में कविताएँ, नाटक और कहानियाँ लिखीं, जो उनके संघर्ष, घर की याद और नए देश के अनुभवों को व्यक्त करती थीं।
आधुनिक प्रवासी समुदाय, जो आज अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन (Britain), ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई हिस्सों में रहता है, ने भी हिंदी साहित्य को अपनी पहचान का आधार बनाया है। उनके साहित्य में “नॉस्टैल्जिया” (nostalgia) यानी बचपन और मातृभूमि की यादें, त्यौहारों की छवियाँ और भाषाई गर्व स्पष्ट दिखता है। प्रवासी हिंदी साहित्य अंतरराष्ट्रीय मंच पर न केवल भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि यह यह भी दर्शाता है कि भाषा कैसे समय और दूरी की सीमाओं को पार कर सकती है।

भारत और विदेशों में हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ और समाधान
भारत में हिंदी शिक्षण के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसकी विविधता और प्रतिस्पर्धी भाषाई वातावरण है। देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ बोली जाती हैं, जिससे मानक हिंदी को स्थापित करना एक सतत प्रक्रिया बनी रहती है। इसके अलावा, अंग्रेज़ी के वर्चस्व और रोजगार के अवसरों में इसके महत्व के कारण युवा पीढ़ी में हिंदी का उपयोग कई बार सीमित हो जाता है। विदेशों में स्थिति कुछ अलग है, वहाँ हिंदी सीखने वालों के पास संसाधनों और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी होती है। कई बार पाठ्यपुस्तकें स्थानीय संदर्भ से मेल नहीं खातीं, जिससे सीखने वालों की रुचि कम हो जाती है। इन चुनौतियों का समाधान तकनीकी माध्यमों में छिपा है, ऑनलाइन कोर्स (online course), मोबाइल ऐप (mobile app), वर्चुअल क्लास (virtual class) और डिजिटल शिक्षण सामग्री छात्रों को कहीं से भी सीखने का अवसर देती है। साथ ही, हिंदी शिक्षण में सांस्कृतिक गतिविधियों, जैसे त्यौहार मनाना, हिंदी दिवस, कविता प्रतियोगिता और नाट्य मंचन शामिल करना सीखने वालों के भावनात्मक जुड़ाव को गहरा करता है।

हिंदी का मध्यकालीन विकास (10वीं–18वीं सदी)
10वीं से 18वीं सदी के बीच हिंदी का स्वरूप और भी समृद्ध हुआ। इस काल में हिंदी का प्रयोग मुख्यतः अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, भोजपुरी और राजस्थानी जैसी क्षेत्रीय बोलियों में होता था। यह समय भक्ति आंदोलन का भी था, जिसने हिंदी को जन-जन तक पहुँचाया। कबीर की साखियाँ, सूरदास के पद, तुलसीदास की रामचरितमानस और मीराबाई के भजन ने भाषा को धार्मिक, दार्शनिक और भावनात्मक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया। यह दौर केवल साहित्यिक उपलब्धियों का ही नहीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता का भी था। धार्मिक कट्टरता और सामाजिक विभाजन के समय, संत कवियों ने हिंदी के माध्यम से एक समान संदेश दिया - मानवता, प्रेम और भक्ति का। इस युग ने साबित किया कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा भी बन सकती है।
आधुनिक काल में हिंदी का मानकीकरण और देवनागरी लिपि सुधार
19वीं सदी में हिंदी के विकास ने एक नया मोड़ लिया। खड़ी बोली को हिंदी का मानक रूप माना गया और देवनागरी लिपि को पढ़ने-लिखने में आसान बनाने के लिए कई सुधार किए गए। इस समय हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत भी हुई, जिसने जनचेतना फैलाने और राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने में बड़ी भूमिका निभाई। शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी को प्रमुखता दी गई, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इसे पढ़ाया जाने लगा, और सरकारी कार्यों में इसके प्रयोग को बढ़ावा मिला। इस दौर में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद जैसे लेखकों ने साहित्य के माध्यम से भाषा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उनका योगदान न केवल साहित्यिक था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी का विकास और क्षेत्रीय बोलियों का समावेश
1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला। यह निर्णय केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी ऐतिहासिक था। हिंदी को अपनाते समय सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया कि क्षेत्रीय बोलियों, जैसे भोजपुरी, मगही, हरियाणवी, बुंदेली, आदि को भी भाषा की मुख्यधारा में शामिल किया जाए। स्वतंत्रता के बाद के दशकों में साहित्य, सिनेमा, रंगमंच और शिक्षा के माध्यम से हिंदी का प्रसार और भी तेज़ हुआ। फ़िल्मों और टीवी धारावाहिकों ने हिंदी को जनजीवन में गहराई से स्थापित किया। साथ ही, नई शब्दावली और तकनीकी शब्दों के समावेश ने इसे विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आधुनिक संवाद के लिए उपयुक्त बना दिया। आज हिंदी न केवल भारत की पहचान है, बल्कि विश्वभर में फैले करोड़ों लोगों की साझा सांस्कृतिक धरोहर है।
संदर्भ-
मेरठ की रसोई का स्वाद: काली उड़द दाल की परंपरा और महक
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
12-09-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, हमारे रसोईघरों की पहचान सिर्फ मसालों की खुशबू या चूल्हे पर चढ़े पकवानों से नहीं होती, बल्कि उन पारंपरिक स्वादों से होती है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे घरों में जीवित हैं। इन्हीं में से एक है काली उड़द दाल, जिसे दालों का “राजा” कहा जाता है। इसका गाढ़ा स्वाद, मखमली बनावट और गहरा रंग न केवल आँखों को भाता है, बल्कि हर कौर में एक अपनापन भी घोल देता है। मेरठ की पारंपरिक रसोई में इसका इस्तेमाल सिर्फ रोज़मर्रा के खाने तक सीमित नहीं, बल्कि त्यौहार, शादी-ब्याह और खास मौकों पर बनने वाले व्यंजनों में भी खास जगह रखता है। चाहे बात हो धीमी आँच पर पकाई गई दाल मखनी की, भरपूर मसालों वाली उरद की कचौरी की, या फिर सर्दियों में गाढ़े तड़के के साथ परोसी जाने वाली दाल की, काली उड़द हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। स्वाद के साथ-साथ यह प्रोटीन (protein), फाइबर (fiber) और खनिजों से भरपूर होती है, जो सेहत के लिए भी वरदान है। शायद यही वजह है कि मेरठ में यह दाल सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि हमारी पाक-परंपरा और पारिवारिक यादों का एक अहम हिस्सा है।
इस लेख में हम काली उड़द दाल के पाँच मुख्य पहलुओं पर चर्चा करेंगे, सबसे पहले इसके परिचय और भारतीय रसोई में इसके महत्व को समझेंगे, फिर इसके वैज्ञानिक परिचय और खेती के क्षेत्रों के बारे में जानेंगे। इसके बाद हम इसकी पोषण संरचना पर नजर डालेंगे, फिर इसके स्वास्थ्य लाभों को विस्तार से समझेंगे, और अंत में अधिक सेवन से जुड़ी सावधानियों और संभावित दुष्प्रभावों पर चर्चा करेंगे।
काली उड़द दाल का परिचय और भारतीय रसोई में महत्व
काली उड़द दाल का नाम सुनते ही भारतीय रसोई के कई प्रिय व्यंजन मन में उभर आते हैं। इसे "दालों का राजा" कहा जाता है, और यह उपाधि इसे यूं ही नहीं मिली, स्वाद, बनावट और पोषण तीनों ही मामलों में यह अद्वितीय है। उत्तर भारत में यह दाल मखनी, तड़के वाली उड़द और पूरी-कचौरी के लिए मशहूर है, जबकि दक्षिण भारत में इडली, डोसा और वड़ा जैसे लोकप्रिय व्यंजनों के बैटर में इसका प्रमुख स्थान है। इसकी मलाईदार और गाढ़ी बनावट किसी भी पकवान में गहराई और स्वाद भर देती है। यही कारण है कि भारतीय भोजन संस्कृति में यह दाल न सिर्फ रोज़मर्रा के खाने का हिस्सा है, बल्कि त्योहारों, पारिवारिक आयोजनों और विशेष अवसरों का भी अहम अंग है। स्वाद के साथ-साथ यह भोजन को संतुलित और पोषण से भरपूर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
काली उड़द का वैज्ञानिक परिचय और खेती के क्षेत्र
वैज्ञानिक भाषा में काली उड़द को विग्ना मुंगो (Vigna mungo) कहा जाता है, और यह लेग्यूम (Legume) परिवार की एक महत्वपूर्ण दलहन फसल है। इसकी खासियत यह है कि यह अलग-अलग जलवायु परिस्थितियों में आसानी से पनप जाती है, जिससे यह देशभर के किसानों के लिए भरोसेमंद फसल बन जाती है। भारत में इसकी प्रमुख खेती खरीफ सीजन (season) में होती है, जब मानसून की नमी मिट्टी को उपजाऊ बनाती है और बीजों के अंकुरण को तेज़ करती है। यह दाल भारत के अलावा पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और कई अन्य उष्णकटिबंधीय देशों में भी बड़े पैमाने पर उगाई जाती है। इसकी खेती में ज्यादा समय नहीं लगता, जिससे किसान जल्दी फसल काटकर अगली बुआई कर सकते हैं। मिट्टी में नाइट्रोजन (nitrogen) की मात्रा बढ़ाने की क्षमता के कारण यह पर्यावरण और भूमि की सेहत दोनों के लिए फायदेमंद मानी जाती है।

काली उड़द की पोषण संरचना
काली उड़द पोषण का सच्चा खजाना है। इसमें उच्च मात्रा में प्रोटीन होता है, जो मांसपेशियों की वृद्धि और शरीर के ऊतकों की मरम्मत के लिए जरूरी है। इसमें मौजूद कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) लंबे समय तक ऊर्जा बनाए रखते हैं, जबकि फाइबर पाचन तंत्र को स्वस्थ रखता है। इसमें वसा की मात्रा बेहद कम होती है, जिससे यह हृदय के लिए सुरक्षित और लाभकारी बनती है। इसके अलावा, इसमें कैलोरी का संतुलन ऐसा है कि यह ऊर्जा और स्वास्थ्य दोनों के लिए उपयुक्त है। काली उड़द में आयरन (iron), कैल्शियम (calcium), मैग्नीशियम (magnesium), पोटैशियम (potassium) और फॉस्फोरस (phosphorus) जैसे आवश्यक खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स (Vitamin B-Complex) और फोलिक एसिड (folic acid) इसमें मौजूद होते हैं, जो तंत्रिका तंत्र के स्वास्थ्य और रक्त निर्माण के लिए जरूरी हैं। इसमें मौजूद अमीनो एसिड शाकाहारियों के लिए इसे प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत बनाते हैं।
काली उड़द के प्रमुख स्वास्थ्य लाभ
काली उड़द दाल का नियमित और संतुलित सेवन कई तरह से स्वास्थ्य को लाभ पहुंचा सकता है। इसमें मौजूद फाइबर पाचन तंत्र को दुरुस्त रखता है और कब्ज जैसी समस्याओं से बचाता है। यह कोलेस्ट्रॉल (cholestrol) को नियंत्रित करने और हृदय को स्वस्थ रखने में मदद करती है। रक्त शर्करा को संतुलित रखने में भी यह कारगर है, जिससे मधुमेह रोगियों के लिए यह लाभकारी साबित हो सकती है। आयुर्वेद के अनुसार, काली उड़द का उपयोग सूजन और जोड़ों के दर्द को कम करने में किया जाता है। इसमें मौजूद आयरन और फोलिक एसिड गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी हैं, क्योंकि ये भ्रूण के विकास और एनीमिया से बचाव में मदद करते हैं। इसके अलावा, यह हड्डियों को मजबूत करने, त्वचा को स्वस्थ और चमकदार बनाए रखने तथा तंत्रिका तंत्र के कार्य में सुधार करने में भी सहायक है।

संभावित सावधानियाँ और अधिक सेवन के दुष्प्रभाव
हालांकि काली उड़द स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, लेकिन इसका अधिक सेवन कुछ समस्याएं उत्पन्न कर सकता है। इसमें मौजूद प्यूरिन (Purine) तत्व शरीर में यूरिक एसिड (uric acid) का स्तर बढ़ा सकते हैं, जिससे गाउट (gout) या जोड़ों के दर्द की संभावना बढ़ जाती है। गुर्दे की पथरी से पीड़ित लोगों को इसका सेवन सावधानीपूर्वक और सीमित मात्रा में करना चाहिए। पाचन तंत्र संवेदनशील होने पर यह गैस या अपच की समस्या भी पैदा कर सकती है। इसलिए इसे हमेशा अच्छी तरह पकाकर और संतुलित मात्रा में ही खाना चाहिए, ताकि इसके फायदे लंबे समय तक मिलते रहें और किसी भी तरह के दुष्प्रभाव से बचा जा सके।
संदर्भ-
वैज्ञानिक वर्गीकरण: कार्ल लिनियस से डीएनए युग तक जीव-जगत की अद्भुत यात्रा
कोशिका के आधार पर
By Cell Type
11-09-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, वैज्ञानिक वर्गीकरण (scientific classification) वह आधार है, जिस पर पूरी जैव-विज्ञान (biology) की इमारत खड़ी है। यह केवल जीवों को पहचानने का तरीका नहीं, बल्कि उनकी पारस्परिक संबंधों और विकास की कहानी समझने की कुंजी है। 18वीं शताब्दी में जब कार्ल लिनियस (Carl Linnaeus) ने अपने नामकरण और वर्गीकरण प्रणाली को प्रस्तुत किया, तब से लेकर आज तक इसमें कई बदलाव हुए, लेकिन इसका महत्व लगातार बढ़ता गया। मेरठ, जो अपनी शैक्षिक और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है, के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए यह विषय न केवल अकादमिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि वैश्विक वैज्ञानिक वार्तालाप में भी इसका विशेष योगदान है।
इस लेख में हम वैज्ञानिक वर्गीकरण की दुनिया के छह अहम पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि 18वीं शताब्दी में कार्ल लिनियस ने कैसे वैज्ञानिक नामकरण प्रणाली में क्रांति लाई। इसके बाद, हम समझेंगे कि वर्गीकरण की मूल संरचना क्या है और कैसे साम्राज्य (kingdom) से लेकर प्रजाति (species) तक जीवों को व्यवस्थित किया जाता है। फिर, हम पढ़ेंगे प्रमुख साम्राज्य और संघों की विशेषताओं के बारे में, जिसमें पौधे, जानवर और कॉर्डेटा (Chordata) तथा आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) जैसे महत्वपूर्ण संघों के उदाहरण शामिल हैं। आगे, हम जानेंगे कि जीनस (genus) और प्रजाति की पहचान प्रणाली कैसे काम करती है, और होमो सेपियंस (Homo sapiens) जैसे उदाहरण क्यों महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, हम आधुनिक बदलावों, जैसे डीएनए विश्लेषण और नई खोजों, का अध्ययन करेंगे, और अंत में, हम देखेंगे कि वैज्ञानिक वर्गीकरण का आज के दौर में वैश्विक महत्व क्यों है।

कार्ल लिनियस और वैज्ञानिक वर्गीकरण की शुरुआत
18वीं शताब्दी में स्वीडन (Sweden) के महान वनस्पतिशास्त्री कार्ल लिनियस ने जीव-जगत के अध्ययन में एक ऐसी क्रांति ला दी, जिसने विज्ञान के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। उस समय अलग-अलग देशों में एक ही जीव के लिए अलग-अलग नाम प्रचलित थे, जिससे वैज्ञानिक संवाद में भ्रम पैदा होता था। लिनियस ने इस समस्या का समाधान अपनी द्विपद नामकरण प्रणाली (binomial nomenclature) से किया, जिसमें हर जीव को दो निश्चित लैटिन नाम दिए जाते - पहला वंश (genus) और दूसरा प्रजाति (species)। उदाहरण के लिए, मनुष्य का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियंस है, जहाँ होमो वंश का नाम है और सेपियंस प्रजाति का। इस प्रणाली ने न केवल नामकरण में एकरूपता लाई, बल्कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों को एक ही भाषा में संवाद करने का साधन दिया।
वर्गीकरण की मूल संरचना: साम्राज्य से प्रजाति तक
वैज्ञानिक वर्गीकरण को समझने के लिए आप इसे एक पिरामिड (Pyramid) की तरह सोच सकते हैं, जिसके शीर्ष पर साम्राज्य (Kingdom) और सबसे निचले स्तर पर प्रजाति (Species) होती है। इनके बीच क्रमशः संघ (Phylum), वर्ग (Class), गण (Order), कुल (Family) और वंश (Genus) आते हैं। यह संरचना जीवों को उनकी समानताओं और भिन्नताओं के आधार पर व्यवस्थित करने का तरीका है। उदाहरण के लिए, शेर और बाघ अलग-अलग प्रजाति के हैं, लेकिन उनका वंश एक ही है, इसलिए उनमें कई समानताएँ पाई जाती हैं। इस तरह का वर्गीकरण वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद करता है कि जीव-जगत में कौन-सा जीव किससे कितना संबंधित है।

प्रमुख साम्राज्य और संघों की विशेषताएं
जीव-जगत को मुख्य रूप से पाँच बड़े साम्राज्यों में बाँटा गया है - प्लांटी (Plantae), ऐनिमेलिया (Animalia), फंजाई (Fungi), प्रोटिस्टा (Protista) और मोनेरा (Monera)। प्रत्येक साम्राज्य के भीतर भी जीवों को अलग-अलग संघों (Phyla) में विभाजित किया जाता है। उदाहरण के लिए, संघ कॉर्डेटा (Chordata) में वे सभी जीव आते हैं जिनके पास रीढ़ की हड्डी होती है, जैसे मनुष्य, मछलियाँ और पक्षी। वहीं, आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) में कीट, मकड़ियाँ और झींगे जैसे जीव शामिल हैं, जिनके पास बाहरी कंकाल (exoskeleton) और जोड़ों वाले पैर होते हैं। इस तरह के विभाजन से हम न केवल जीवों की संरचना और कार्यप्रणाली समझ पाते हैं, बल्कि उनके विकासक्रम और पर्यावरणीय भूमिका का भी अध्ययन कर सकते हैं।
जीनस और प्रजाति की पहचान प्रणाली
किसी भी जीव की पहचान में जीनस (Genus) और प्रजाति (Species) का संयोजन उसकी वैज्ञानिक "पहचान पत्र" की तरह होता है। उदाहरण के लिए, होमो सेपियंस में होमो वंश का नाम है, जबकि सेपियंस प्रजाति का। यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि चाहे कोई वैज्ञानिक अमेरिका में हो, जापान में हो या भारत में, वह एक ही नाम से उसी जीव को पहचानेगा। इसके बिना वैज्ञानिक अनुसंधान में भारी भ्रम पैदा हो सकता था। साथ ही, यह प्रणाली हमें यह भी बताती है कि कौन-सा जीव किस वंश से संबंधित है और अन्य जीवों से उसका कितना नज़दीकी रिश्ता है।

आधुनिक बदलाव: डीएनए विश्लेषण और नई खोजें
वर्गीकरण के पुराने तरीके मुख्य रूप से जीवों की भौतिक विशेषताओं (morphology) पर आधारित थे, जैसे आकार, संरचना, रंग या अंगों का प्रकार। लेकिन 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में डीएनए विश्लेषण (DNA analysis) और आणविक जीवविज्ञान (molecular biology) के आगमन ने इस प्रक्रिया को पूरी तरह बदल दिया। अब वैज्ञानिक जीवों के जीन (genes) का अध्ययन करके उनके विकासक्रम (evolutionary history) को और सटीकता से समझ सकते हैं। इसने कई पुराने वर्गीकरणों को संशोधित किया और कई नई प्रजातियों की खोज भी आसान बनाई। उदाहरण के लिए, कुछ जीव जिन्हें पहले एक ही प्रजाति माना जाता था, डीएनए परीक्षण के बाद अलग-अलग प्रजातियों में विभाजित किए गए।
वैज्ञानिक वर्गीकरण का महत्व
वैज्ञानिक वर्गीकरण केवल एक किताब में लिखी सूचनाओं का संग्रह नहीं है, यह जैव विविधता (biodiversity) को समझने, संरक्षित करने और उपयोग में लाने का एक शक्तिशाली उपकरण है। कृषि में यह हमें बेहतर फसल किस्में विकसित करने में मदद करता है, चिकित्सा में यह नई दवाओं की खोज को आसान बनाता है, और पर्यावरण संरक्षण में यह खतरे में पड़ी प्रजातियों की पहचान और सुरक्षा में अहम भूमिका निभाता है। सबसे बड़ी बात, यह प्रणाली एक वैश्विक वैज्ञानिक भाषा की तरह काम करती है, जो दुनिया भर के शोधकर्ताओं को आपस में जोड़ती है।
संदर्भ-
ईरान और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म: उदय, संरक्षण और पतन की कहानी
धर्म का उदयः 600 ईसापूर्व से 300 ईस्वी तक
Age of Religion: 600 BCE to 300 CE
10-09-2025 09:28 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, भले ही हमारा शहर बौद्ध धर्म के प्रत्यक्ष केंद्रों में न रहा हो, लेकिन यह जानना रोचक है कि कभी ईरान की धरती पर भी यह धर्म अपनी गहरी सांस्कृतिक जड़ें जमा चुका था। कल्पना कीजिए, हज़ारों साल पहले, रेशम मार्ग पर चलने वाले व्यापारी, दूर-दराज़ से आने वाले भारतीय भिक्षु और ईरानी राजकुमार, सब एक ही सांस्कृतिक मिलन-बिंदु पर इकट्ठा होते थे। यहाँ केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान नहीं होता था, बल्कि विचारों, विश्वासों और आध्यात्मिक परंपराओं का भी प्रवाह चलता था। इसी प्रवाह ने ईरान में बौद्ध धर्म के बीज बोए, जो एकेमेनिड काल (Achaemenid Period) से अंकुरित होकर कई शताब्दियों तक फला-फूला। फिर इस्लाम के आगमन के साथ यह धारा धीरे-धीरे विलुप्त हो गई, लेकिन इसकी छाप इतिहास, कला और स्थापत्य में अमिट रूप से दर्ज हो गई। आज जब हम उस दौर को देखते हैं, तो यह केवल धर्म की कहानी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संवाद और मानवीय जुड़ाव का अद्भुत उदाहरण है।
इस लेख में हम छह अहम पहलुओं पर रोशनी डालेंगे। सबसे पहले, एकेमेनिड राजवंश के दौर से बौद्ध धर्म की शुरुआत और उसके प्रसार की कहानी समझेंगे। इसके बाद, फारसी साम्राज्य और मध्य एशिया में इसके विस्तार की यात्रा पर नजर डालेंगे। तीसरे पहलू में, ईरान और पार्थिया के विद्वानों व राजकुमारों के अनोखे योगदान को जानेंगे। चौथे हिस्से में, मंगोल शासकों द्वारा दिए गए संरक्षण पर चर्चा होगी। पाँचवां पहलू इस्लाम के आगमन के बाद बौद्ध धर्म के धीरे-धीरे हुए पतन से जुड़ा होगा। अंत में, हम उन बचे हुए बौद्ध स्थलों के आज के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व पर विचार करेंगे।

ईरान में बौद्ध धर्म का प्रारंभ और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ईरान में बौद्ध धर्म का आरंभ एकेमेनिड राजवंश (550–330 ई.पू.) के समय से माना जाता है। यह वह दौर था जब भारत और फारस के बीच न केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध भी फल-फूल रहे थे। एकेमेनिड साम्राज्य का विस्तार भारतीय उपमहाद्वीप की सीमाओं तक पहुँचता था, जिससे दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापार मार्ग, विशेषकर रेशम मार्ग, सक्रिय रूप से उपयोग में आने लगे। मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल (3री सदी ई.पू.) में इन संपर्कों को एक नया आयाम मिला। अशोक ने अपने धर्म-दूतों को पश्चिमी क्षेत्रों तक भेजा, जिनका उद्देश्य बौद्ध शिक्षाओं का प्रचार और नैतिक मूल्यों का प्रसार था। अशोक के शिलालेखों में पार्थिया, खुरासान और बल्ख जैसे स्थानों का उल्लेख मिलता है, जो यह दर्शाता है कि उस समय बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत से बहुत दूर तक फैल चुका था। शुरुआती दौर में यह प्रभाव मुख्य रूप से व्यापारिक नगरों और कारवां मार्गों के पास बसने वाले समुदायों में देखा गया, जहाँ व्यापारी, भिक्षु और स्थानीय लोग एक-दूसरे से धार्मिक और सांस्कृतिक विचार साझा करते थे। इस प्रकार, ईरान बौद्ध और फारसी सभ्यताओं के बीच एक जीवंत सांस्कृतिक पुल बन गया।

फारसी साम्राज्य और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का विकास
जैसे-जैसे समय बीतता गया, बौद्ध धर्म मध्य एशिया के प्रमुख शहरी केंद्रों में गहराई से स्थापित होता चला गया। बल्ख, खुरासान, बुखारा और समरकंद जैसे शहर बौद्ध शिक्षा, शास्त्र अध्ययन और कलात्मक नवाचार के महत्वपूर्ण केंद्र बने। यहाँ भव्य विहारों, विशाल स्तूपों और शिल्पकला से सुसज्जित मठों का निर्माण हुआ, जिनमें दूर-दूर से भिक्षु अध्ययन और साधना के लिए आते थे। गंधार शैली की बौद्ध मूर्तियों में फारसी स्थापत्य और ग्रीको-बैक्ट्रियन (Greco-Bactrian) कलात्मक प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, जिससे एक अनूठा सांस्कृतिक मिश्रण पैदा हुआ। बौद्ध धर्म का यह स्वरूप स्थानीय समाज में इस तरह से रच-बस गया कि यह केवल धार्मिक परंपरा न रहकर, कला, साहित्य और शिक्षा का भी प्रमुख अंग बन गया। यहाँ तक कि 19वीं सदी में भी कुछ स्थानों पर बौद्ध प्रतीक और स्थापत्य अवशेष पाए जाते थे, जो इसकी दीर्घकालिक उपस्थिति का प्रमाण देते हैं।

ईरानी और पार्थियन विद्वानों व राजकुमारों की भूमिका
पार्थियन शासनकाल में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में ईरानी विद्वानों और राजकुमारों की भूमिका बेहद अहम रही। सबसे प्रमुख नाम अन शिगाओ (An Shigao) का है, जो एक पार्थियन राजकुमार और बौद्ध भिक्षु थे। उन्होंने 2री सदी ईस्वी में चीन की यात्रा की और वहाँ बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करना शुरू किया। उनके अनुवाद कार्य ने महायान और हीनयान दोनों परंपराओं के ग्रंथों को चीन में लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान दिया। इसी तरह अन हुवन (An Xuan) और अन्य पार्थियन मिशनरियों (Missionaries) ने भी चीन और मध्य एशिया में बौद्ध विचारधारा को फैलाने का कार्य किया। इन विद्वानों की खासियत यह थी कि उन्होंने केवल शाब्दिक अनुवाद ही नहीं किया, बल्कि बौद्ध दर्शन को स्थानीय सांस्कृतिक संदर्भों के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया, जिससे यह आम जनता के लिए अधिक सुलभ हो सका। उनके प्रयासों ने ईरान को बौद्ध धर्म के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क (network) में एक महत्वपूर्ण बौद्धिक केंद्र के रूप में स्थापित किया।
मंगोल शासकों का योगदान
13वीं और 14वीं सदी में, जब मंगोल साम्राज्य ने ईरान और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित किया, बौद्ध धर्म को एक बार फिर संरक्षण मिला। अबाका खान और अर्गन खान जैसे शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में सक्रिय योगदान दिया। उन्होंने न केवल बौद्ध भिक्षुओं को आर्थिक सहायता प्रदान की, बल्कि मंदिरों, मठों और शिक्षण केंद्रों के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया। इस अवधि में कला और साहित्य का पुनर्जागरण हुआ, बौद्ध चित्रकला, हस्तलिखित ग्रंथ और मूर्तिकला में नये प्रयोग हुए। मंगोल शासकों ने चीन, मंगोलिया और भारत के बौद्ध क्षेत्रों के साथ कूटनीतिक और सांस्कृतिक संबंध मजबूत किए, जिससे विचारों और कला का आदान-प्रदान तेज़ हुआ। हालांकि, यह पुनर्जागरण लंबे समय तक नहीं टिक सका, क्योंकि मंगोल साम्राज्य के विघटन और राजनीतिक अस्थिरता ने बौद्ध संस्थानों को कमजोर कर दिया।
इस्लाम के आगमन के बाद बौद्ध धर्म का प्रभाव और पतन
7वीं सदी में इस्लाम के आगमन ने ईरान के धार्मिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया। इस समय तक सासानिद साम्राज्य में पारसी धर्म (ज़ोरोएस्ट्रियनिज़्म - Zoroastrianism) राजकीय धर्म था, लेकिन इस्लामी शासन स्थापित होने के बाद बौद्ध धर्म और अन्य प्राचीन परंपराओं के लिए जगह और भी सीमित हो गई। कुछ हद तक बौद्ध विचारधारा का प्रभाव मैनिकिइज्म (Manicheism) और अन्य स्थानीय पंथों पर देखा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक संरक्षण खत्म होने और सैन्य दबाव बढ़ने के कारण बौद्ध संस्थान धीरे-धीरे समाप्त होने लगे। श्वेत हूणों और बाद के आक्रमणों ने कई प्रमुख विहारों, स्तूपों और कलाकृतियों को नष्ट कर दिया। बचे हुए भिक्षु या तो पलायन कर भारत, तिब्बत या चीन चले गए, या फिर स्थानीय समाज में घुल-मिल गए। धीरे-धीरे ईरान की मिट्टी से बौद्ध धर्म लगभग पूरी तरह विलुप्त हो गया, और यह केवल ऐतिहासिक स्मृतियों और पुरातात्विक अवशेषों में ही रह गया।
बौद्ध स्थलों के अवशेष और वर्तमान महत्व
आज भी अफगानिस्तान के बामियान, हड्डा और मध्य एशिया के कई हिस्सों में बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण अवशेष मौजूद हैं, जो उस सुनहरे युग की गवाही देते हैं। बामियान की विशाल बुद्ध प्रतिमाएँ, जो 2001 में तालिबान द्वारा नष्ट की गईं, कभी इस पूरे क्षेत्र में बौद्ध धर्म की शक्ति और वैभव का प्रतीक थीं। हड्डा के विहारों में मिली मूर्तियाँ और गुफा चित्रकला आज भी बौद्ध कला की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। मध्य एशिया में पाए जाने वाले कई स्तूप और विहार अवशेष इस बात का प्रमाण हैं कि बौद्ध धर्म ने यहाँ की सांस्कृतिक धारा को गहराई से प्रभावित किया था। आज इन स्थलों का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पर्यटन के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्व है। इनसे न केवल पुरातत्वविदों को बौद्ध इतिहास की कड़ियाँ जोड़ने में मदद मिलती है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों को भी यह याद दिलाते हैं कि ईरान और उसके पड़ोसी क्षेत्र एशियाई बौद्ध धरोहर के अभिन्न अंग रहे हैं।
संदर्भ-
झींगा मछली पालन: वैश्विक मांग, आर्थिक महत्व और सतत विकास की राह
समुद्री संसाधन
Marine Resources
09-09-2025 09:13 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, भले ही हमारा शहर समुद्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर है, लेकिन झींगा (Prawn/Shrimp) मछली पालन अब केवल तटीय इलाकों तक सीमित नहीं रहा। वैश्विक बाज़ार में इसकी भारी मांग और उच्च मूल्य ने हमारे यहाँ के युवाओं और उद्यमियों के लिए भी नई राहें खोल दी हैं। आधुनिक मत्स्य पालन तकनीक, उन्नत कोल्ड-चेन लॉजिस्टिक्स (Cold-chain logistics) और ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म (e-commerce platform) की तेज़ी से बढ़ती पहुँच ने यह साबित कर दिया है कि समुद्री उत्पादों की सफलता भूगोल की सीमाओं से परे है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘लक्ज़री सीफ़ूड’ (luxury seafood) मानी जाने वाली झींगा मछली न केवल विदेशी मुद्रा अर्जन का साधन बन सकती है, बल्कि मेरठ में आर्थिक प्रगति, ग्रामीण विकास और हज़ारों नए रोज़गार अवसरों का भी आधार तैयार कर सकती है।
इस लेख में हम झींगा मछली पालन की पूरी प्रक्रिया और इसके आर्थिक महत्व को छह प्रमुख पहलुओं के माध्यम से समझेंगे। इसमें सबसे पहले झींगा मछलियों की वैश्विक मांग और उनके निर्यात के प्रमुख रूपों की चर्चा होगी। इसके बाद भारत में झींगा मछली पालन का आर्थिक महत्व और यहां पाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों पर नजर डालेंगे। तीसरे भाग में झींगा पालन के लिए आवश्यक वातावरण और तालाब प्रबंधन की तकनीकों को समझेंगे। चौथे हिस्से में अंतरराष्ट्रीय उत्पादन आंकड़ों और मूल्य रुझानों पर बात करेंगे। इसके बाद हम देखेंगे कि प्रौद्योगिकी और हैचरी (hatchery) विकास इस क्षेत्र में कैसे अहम भूमिका निभाते हैं। अंत में सतत और लाभदायक झींगा मछली पालन के लिए अपनाई जाने वाली रणनीतियों पर विस्तार से चर्चा होगी।
झींगा मछलियों की वैश्विक मांग और निर्यात के प्रमुख रूप
अंतरराष्ट्रीय बाजार में झींगा मछली की मांग लगातार बढ़ती जा रही है, विशेष रूप से अमेरिका, जापान, चीन और यूरोप जैसे विकसित देशों में। यह मछली अपने स्वाद, पोषण और विशेष व्यंजनों में उपयोग के कारण “लक्ज़री समुद्री भोजन” के रूप में जानी जाती है। निर्यात के लिए झींगा मछली कई रूपों में तैयार की जाती है, जैसे सजीव, जमी हुई पूंछ, पूरी ठंडी मछली, पकी हुई झींगा और झींगा मांस। इन विभिन्न रूपों की अपनी अलग मूल्य सीमा होती है, जिनमें पकी हुई और जमी हुई पूंछ वाली श्रेणी अधिक मूल्य पर बिकती है। लक्ज़री रेस्तरां (luxury restaurant), बड़े होटल और सुपरमार्केट (supermarket) में इसकी मांग पूरे वर्ष बनी रहती है। आज शीत-गृह और आपूर्ति श्रृंखला (Supply Chain) तकनीकों के कारण, मेरठ जैसे गैर-तटीय शहरों से भी झींगा मछली का निर्यात संभव हो गया है, जिससे स्थानीय निवेशकों के लिए यह एक आकर्षक और लाभकारी व्यवसाय बन रहा है।

भारत में झींगा मछली पालन का आर्थिक महत्व और प्रमुख प्रजातियां
भारत में झींगा मछली पालन लंबे समय से तटीय राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा और गुजरात में किया जाता रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में इसकी आर्थिक संभावनाएं देश के अन्य हिस्सों में भी फैल रही हैं। झींगा मछली का योगदान मत्स्य पालन (Fisheries) क्षेत्र में अरबों रुपये का राजस्व देता है और यह देश के समुद्री निर्यात में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्रमुख प्रजातियों में ब्लैक टाइगर (Black tiger), व्हाइट लेग (White Leg) और बैम्बू श्रिम्प (Bamboo Shrimp) शामिल हैं। ब्लैक टाइगर का आकार बड़ा, रंग गहरा और स्वाद विशिष्ट होता है, जबकि व्हाइट लेग अपनी तेज़ वृद्धि, रोग-प्रतिरोधक क्षमता और कम समय में बाज़ार योग्य आकार में पहुंचने के लिए प्रसिद्ध है। इन प्रजातियों की अंतरराष्ट्रीय मांग लगातार ऊंची रहती है, जिससे यह पालन किसानों और उद्यमियों के लिए अत्यंत लाभकारी व्यवसाय बनता है।
झींगा पालन के लिए आवश्यक वातावरण और तालाब प्रबंधन
सफल झींगा पालन के लिए सही पर्यावरणीय स्थितियां और कुशल तालाब प्रबंधन आवश्यक हैं। तालाब तैयार करने की प्रक्रिया में सबसे पहले उसका पूरी तरह सुखाना, पुराना पानी निकालना, कीचड़ और कचरा साफ करना, फिर चूना डालकर पानी की अम्लता (pH) को संतुलित करना शामिल है। इसके बाद प्राकृतिक खाद जैसे गोबर खाद, मूंगफली की खली आदि डालकर सूक्ष्म जीवों की वृद्धि की जाती है, जिससे पानी जैविक रूप से झींगा पालन के अनुकूल बनता है। आदर्श स्थिति में पानी का pH 7.5 से 8.5 के बीच, लवणता (Salinity) 10–25 पीपीटी (Parts Per Thousand) और घुलित ऑक्सीजन (oxygen) 4–6 मिलीग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए नियमित परीक्षण, हवा पहुंचाने वाले यंत्र (Aerators) और जल-संचलन प्रणाली का प्रयोग आवश्यक है।
अंतरराष्ट्रीय उत्पादन आंकड़े और मूल्य रुझान
2012 से 2016 के बीच वैश्विक झींगा उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जिसमें व्हाइट लेग प्रजाति का योगदान सबसे अधिक रहा। चीन, थाईलैंड (Thailand), वियतनाम (Vietnam) और भारत विश्व के शीर्ष उत्पादक देशों में गिने जाते हैं। मूल्य रुझानों की बात करें तो 2013 में झींगा रोग (Shrimp Disease) फैलने के कारण उत्पादन में कमी आई और अंतरराष्ट्रीय कीमतें रिकॉर्ड (record) स्तर तक बढ़ गईं। वहीं 2015–2016 में उत्पादन में सुधार के साथ कीमतों में गिरावट आई, हालांकि यूरोप और अमेरिका जैसे बाजारों में प्रीमियम गुणवत्ता (Premium Quality) वाली झींगा मछली की कीमत हमेशा सामान्य से 10–15% अधिक रहती है। इस तरह, वैश्विक मूल्य में उतार-चढ़ाव उत्पादन, मांग और रोगों की घटनाओं पर सीधे निर्भर करता है।

प्रौद्योगिकी और हैचरी विकास की भूमिका
आधुनिक प्रौद्योगिकी और हैचरी विकास झींगा मछली पालन को उच्च स्तर पर ले जाने की कुंजी है। हैचरी में अंडों से लार्वा (larvae) तैयार कर उन्हें नियंत्रित परिस्थितियों में पाला जाता है, जिससे रोग-प्रतिरोधी और तेज़ी से बढ़ने वाले झींगा प्राप्त होते हैं। अल्पकालिक मेद तकनीक (Short-term Fattening Techniques) और मूल्य संवर्धन जैसे “पकाने के लिए तैयार झींगा” उत्पाद किसानों को अधिक लाभ दिला सकते हैं। इसके अलावा जैव-फ्लॉक तकनीक (Bio-Floc Technology), कृत्रिम ऊष्मायन यंत्र और रोग नियंत्रण उपकरण, उत्पादकता बढ़ाने और लागत घटाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
सतत और लाभदायक झींगा मछली पालन के लिए रणनीतियां
झींगा पालन को लंबे समय तक लाभकारी बनाए रखने के लिए पर्यावरण-अनुकूल (Eco-friendly) तरीकों का उपयोग करना अनिवार्य है। प्रजाति चयन, रोग-प्रतिरोधी बीज का उपयोग, जल की गुणवत्ता पर सतत निगरानी और प्राकृतिक भोजन के स्रोत अपनाना उत्पादन में वृद्धि करता है। बाजार की मांग का गहन अध्ययन कर उत्पादन चक्र तय करना, और समय पर शीत-श्रृंखला के माध्यम से उत्पाद को बाजार तक पहुंचाना, लाभप्रदता की कुंजी है। इसके साथ ही सरकारी योजनाओं, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सहकारी समितियों का सहयोग लेकर छोटे और मध्यम किसान भी इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
संदर्भ-
मेरठ में रंगीन कूड़ेदान: स्वच्छता और पर्यावरण बचाव की अहम पहल
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
08-09-2025 09:07 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी गौर किया है कि हमारे शहर के पार्क, बाजार, स्कूल या सरकारी दफ्तरों में रखे गए रंग-बिरंगे कूड़ेदान सिर्फ दिखावे के लिए नहीं होते? इनका असली उद्देश्य हमारे घरों और सार्वजनिक स्थानों से निकलने वाले कचरे को सही तरीके से अलग करना और उसे पुनर्चक्रण (recycling) के लिए तैयार करना है। आज जब मेरठ तेजी से बढ़ती आबादी और शहरीकरण का सामना कर रहा है, तो कचरे की मात्रा भी पहले से कई गुना बढ़ गई है। ऐसे में रंगीन कूड़ेदान व्यवस्था न केवल हमारे शहर की सफाई बनाए रखने में मदद करती है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण और संसाधनों के दोबारा इस्तेमाल की दिशा में भी एक बड़ा कदम है। इस तरह की प्रणाली से न केवल हमारे आस-पास की गंदगी कम होती है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्वच्छ और स्वस्थ मेरठ बनाने की नींव भी रखी जाती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि शहरों में बढ़ते कचरे से निपटने के लिए रंगीन कूड़ेदान क्यों और कैसे बनाए गए हैं। इसमें हम भारत में कचरे की स्थिति और उसके प्रकार, रंगीन कूड़ेदान के सही इस्तेमाल, आम गलतियों और जागरूकता की कमी, दुनिया भर में अपनाई गई रंगीन कूड़ेदान प्रणाली, अपशिष्ट प्रबंधन में 4R (4 आर) सिद्धांत की अहमियत, और सही निस्तारण से स्वच्छ शहर के लक्ष्य तक पहुँचने की बात करेंगे।

भारत में शहरी कचरे की स्थिति और प्रकार
भारत में शहरीकरण की रफ़्तार पिछले कुछ दशकों में इतनी तेज़ हुई है कि इसके साथ जुड़ी कचरे की समस्या भी दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है। आज हमारे शहर प्रतिदिन करीब 1.5 लाख टन ठोस कचरा पैदा करते हैं, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा 40–50% जैविक कचरे का होता है, जैसे सब्जियों के छिलके, बचे हुए खाने के टुकड़े, बगीचे की पत्तियाँ वगैरह। इसके अलावा 8–12% प्लास्टिक (plastic) कचरा है, जो सबसे कठिन चुनौती है क्योंकि यह न तो जल्दी नष्ट होता है और न ही मिट्टी में घुलता है। करीब 1% जैव-चिकित्सीय कचरा (दवाइयों के अवशेष, अस्पतालों का कचरा, प्रयोगशालाओं का कचरा) सीधे तौर पर स्वास्थ्य के लिए खतरा है। बाकी हिस्से में धातु, कांच, कपड़े, ई-कचरा (पुराना मोबाइल (mobile), लैपटॉप (laptop), बैटरी आदि) और अन्य ठोस अवशेष आते हैं। ई-कचरे में मौजूद सीसा (Lead), पारा (Mercury), कैडमियम (Cadmium) जैसे रसायन नदियों और भूजल को प्रदूषित कर देते हैं, जिससे गंभीर बीमारियाँ फैल सकती हैं।

भारत में रंगीन कूड़ेदान प्रणाली और उनका उपयोग
भारत में चार मुख्य रंग के कूड़ेदान अपनाए गए हैं, और इनका सही उपयोग कचरा प्रबंधन की रीढ़ की हड्डी जैसा है।
- हरा: इसमें गीला कचरा डाला जाता है, जैसे खाने का बचा हिस्सा, सब्ज़ी-फल के छिलके, फूल, पत्तियां, चाय की पत्तियां आदि। यह कचरा खाद (कम्पोस्ट - compost) बनाने में काम आता है।
- नीला: इसमें सूखा कचरा आता है, जैसे प्लास्टिक की बोतलें, पैकेजिंग मटीरियल (packaging material), कागज़, गत्ता, धातु के डिब्बे आदि। यह पुनर्चक्रण में उपयोगी होता है।
- काला: इसमें गैर-पुनर्चक्रण योग्य कचरा डाला जाता है, जैसे राख, धूल, टूटी हुई सिरेमिक टाइल्स (ceramic tiles), कांच के टुकड़े, निर्माण मलबा।
- लाल: इसमें खतरनाक और जैव-चिकित्सीय कचरा आता है, जैसे इस्तेमाल की हुई सिरिंज (syringe), ब्लेड (blade), दवाइयों के पैकेट, केमिकल्स (chemicals), सर्जिकल दस्ताने (surgical gloves) आदि।
सामान्य गलतियां और जागरूकता की कमी
कई बार देखा जाता है कि लोग नियम जानते हुए भी उनका पालन नहीं करते। हरे कूड़ेदान में प्लास्टिक की बोतल डालना या नीले कूड़ेदान में बचा हुआ खाना डालना, ये छोटी-सी लगने वाली गलतियाँ पूरी व्यवस्था बिगाड़ देती हैं। जब गीला और सूखा कचरा मिल जाता है, तो पुनर्चक्रण करना मुश्किल हो जाता है और अंत में वह सब लैंडफिल (landfill) में चला जाता है। समस्या का एक बड़ा कारण जागरूकता की कमी है। कुछ लोग मानते हैं कि "कचरा तो बाद में सब मिला दिया जाता है, तो अलग करने का क्या फ़ायदा?" जबकि सच यह है कि सही तरह से अलग किया गया कचरा रीसायक्लिंग यूनिट (recycling unit) में सीधा इस्तेमाल हो सकता है। आलस्य और आदत में बदलाव की अनिच्छा भी एक वजह है।

अंतर्राष्ट्रीय रंगीन कूड़ेदान प्रणाली
दुनिया के कई विकसित देशों में कचरे को और अधिक बारीकी से अलग करने के लिए पाँच रंगों वाली प्रणाली अपनाई जाती है:
- भूरा: खाद योग्य जैविक कचरा (खाना, बागीचे का कचरा)
- पीला: प्लास्टिक और धातु
- नारंगी: खतरनाक/रासायनिक कचरा (केमिकल, बैटरी, पेंट)
- नीला: कागज और कार्डबोर्ड (cardboard)
- हरा: सामान्य मिश्रित कचरा
इस तरह की विस्तृत प्रणाली से न केवल पुनर्चक्रण की गुणवत्ता बढ़ती है, बल्कि खतरनाक कचरे को समय पर और सुरक्षित तरीके से निपटाया जा सकता है। भारत में भी भविष्य में इस मॉडल (model) को अपनाने की संभावनाएं हैं, लेकिन इसके लिए जनता में उच्च स्तर की जागरूकता और सरकारी बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी।
अपशिष्ट प्रबंधन में पृथक्करण और 4R सिद्धांत
कचरे के सही प्रबंधन का पहला कदम गीले और सूखे कचरे का अलगाव है। लेकिन इससे भी आगे बढ़कर 4R सिद्धांत को अपनाना चाहिए:
- Reuse (दोबारा उपयोग): पुराने कंटेनर, बोतलें, कपड़े, थैले आदि को दोबारा इस्तेमाल करना।
- Recycle (पुनर्चक्रण): इस्तेमाल हो चुके कागज, प्लास्टिक, धातु को नई वस्तुओं में बदलना।
- Reduce (कमी करना): डिस्पोजेबल वस्तुओं (Disposable items) के उपयोग को कम करना, जरूरत से ज्यादा पैकेजिंग न लेना।
- Refuse (मना करना): सिंगल-यूज़ प्लास्टिक (Single-use plastic) या हानिकारक चीजें खरीदने से इंकार करना।
अगर स्कूल, दफ्तर, और आवासीय सोसायटी (Residential Society) इस सिद्धांत पर काम करें, तो कचरे की मात्रा में 30–40% तक कमी आ सकती है।
सही कचरा निस्तारण और स्वच्छ शहर का लक्ष्य
कचरे का सही निस्तारण सिर्फ सरकारी जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक का कर्तव्य है। अगर हर व्यक्ति यह आदत डाल ले कि सही कचरा सही कूड़ेदान में ही डाले, तो न केवल हमारा शहर साफ़ रहेगा, बल्कि पर्यावरण पर दबाव भी कम होगा। सरकार और नगर निगम को चाहिए कि अधिक रंगीन कूड़ेदान लगाएं, समय-समय पर जागरूकता अभियान चलाएं और कचरे को पुनर्चक्रण इकाइयों तक सही तरीके से पहुंचाएं। यह छोटा-सा बदलाव “स्वच्छ भारत मिशन” और “स्मार्ट सिटी” (Smart City) दोनों के सपनों को साकार कर सकता है।
संदर्भ-
गणेश विसर्जन से दुर्गा विसर्जन तक, हर विसर्जन क्यों है भक्ति और पूर्णता का प्रतीक
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-09-2025 09:00 AM
Meerut-Hindi

दुर्गा विसर्जन, दुर्गा पूजा उत्सव का समापन है, जब भक्त माँ दुर्गा को श्रद्धा और भावनाओं के साथ विदा करते हैं। यह विसर्जन विजयादशमी के दिन होता है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। विसर्जन का शुभ मुहूर्त अत्यंत महत्वपूर्ण होता है और इसे श्रवण नक्षत्र तथा दशमी तिथि में करना श्रेष्ठ माना गया है। पारंपरिक रूप से दोपहर का समय उपयुक्त माना गया है, हालांकि आजकल कई स्थानों पर प्रातःकाल भी विसर्जन की परंपरा अपनाई जाने लगी है। दुर्गा पूजा भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। विशेषकर पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, झारखंड और त्रिपुरा में इसे अत्यंत भव्यता से मनाया जाता है। इसके अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे अनेक राज्यों में भी दुर्गा उत्सव और नवरात्रि बड़ी श्रद्धा और धूमधाम के साथ आयोजित होते हैं। यह उत्सव सामान्यतः नौ दिनों तक चलता है, लेकिन कई लोग इसे पाँच या सात दिनों तक भी मनाते हैं। षष्ठी से पूजा प्रारंभ होकर दशमी के दिन विसर्जन के साथ इसका समापन होता है।
सनातन धर्म में विसर्जन का गहरा दार्शनिक महत्व है। यह केवल किसी उत्सव का अंत नहीं, बल्कि उसकी पूर्णता का प्रतीक है। दुर्गा पूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन इस बात का द्योतक है कि नौ दिनों की आराधना के बाद हम उन्हें उन पंचतत्वों में लौटा रहे हैं, जिनसे उनका स्वरूप निर्मित हुआ था। यह हमें सिखाता है कि भौतिक रूप क्षणभंगुर है, जबकि दिव्यता अनंत और शाश्वत है। मूर्ति का विसर्जन सृजन, पालन और संहार के चक्र की याद दिलाता है और यह विश्वास भी कि माँ दुर्गा हर वर्ष लौटकर आएँगी। विसर्जन के दिन भक्त विशाल शोभायात्राएँ निकालते हैं। ढोल-नगाड़ों की धुन, भक्ति गीतों की गूँज और उत्साहपूर्ण वातावरण में माँ दुर्गा की प्रतिमा को नदियों, तालाबों या समुद्र में विसर्जित किया जाता है। यह पल भावनात्मक भी होता है क्योंकि भक्त माँ को विदा करते हैं, जिन्हें शक्ति स्वरूपा, करुणामयी और जगत की पालनहार माना जाता है। मान्यता है कि कैलाश पर्वत लौटने से पहले माँ अपने भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। इसलिए दुर्गा विसर्जन केवल विदाई नहीं, बल्कि श्रद्धा, विश्वास और पुनर्मिलन की आशा का उत्सव भी है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/43AZu
https://shorturl.at/VHFtF
https://tinyurl.com/29mpz9e4
https://short-link.me/1cjbj
https://tinyurl.com/aayf8mfu
मेरठ की कृषि विरासत: इतिहास, नवाचार और पारंपरिक खेती के साधन
मध्यकाल 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी तक
Medieval: 1450 CE to 1780 CE
06-09-2025 09:19 AM
Meerut-Hindi

मेरठ, जिसे आज उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख कृषि केंद्र और उपजाऊ गंगा-यमुना दोआब का दिल माना जाता है, सदियों से खेती के नवाचारों और कृषि परंपराओं का गवाह रहा है। यहाँ की धरती ने न केवल देश को भरपूर अन्न दिया है, बल्कि नई-नई तकनीकों और उपकरणों को अपनाकर खेती को समय के साथ आगे भी बढ़ाया है। आज मेरठ के खेतों में ट्रैक्टरों (tractor) की गड़गड़ाहट, सीड ड्रिल मशीन (seed drill machine) की सटीक बुवाई, और आधुनिक स्प्रेयर (sprayer) की तेज़ फुहार आम नज़ारा हैं। लेकिन कभी समय ऐसा भी था जब यहाँ की खेती पूरी तरह बैलों की धीमी चाल, लकड़ी के हल की खरखराहट और साधारण जल-उठाने वाले यंत्रों पर निर्भर थी। मध्यकालीन युग से लेकर मुगल काल तक, कृषि उपकरणों, बुवाई पद्धतियों और सिंचाई तकनीकों में धीरे-धीरे ऐसे बदलाव हुए, जिन्होंने भारतीय खेती को नई दिशा और नई पहचान दी। इन बदलावों ने न केवल उत्पादन क्षमता बढ़ाई, बल्कि किसानों के श्रम को भी कम किया और उनकी उपज को बाज़ार तक पहुँचाने के रास्ते खोले। आइए, मेरठ की मिट्टी और भारतीय कृषि के इस ऐतिहासिक सफर को विस्तार से समझते हैं, जहाँ हल और लोहे के फाल से लेकर साकिया और रहट तक की कहानियाँ हमारे अतीत को जीवंत कर देती हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले मध्यकालीन भारतीय कृषि में हल और लोहे के फाल के विकास के बारे में जानेंगे। इसके बाद, हम बीज बुवाई और सिंचाई तकनीकों में हुए नवाचार को समझेंगे, जिसमें साकिया (फ़ारसी पहिया) जैसी खोज शामिल है। फिर, हम देखेंगे कि मुगल काल की प्रमुख फ़सलें और कृषि विस्तार किस तरह भारत के अलग-अलग हिस्सों में हुए और यूरोपीय व्यापार ने खेती में क्या नए पौधे जोड़े। अंत में, हम जानेंगे विभिन्न क्षेत्रों में जल-उठाने वाले पारंपरिक उपकरणों जैसे कश्मीर का अरघट्टा, पंजाब का अरहत/रहत और बाबर द्वारा वर्णित चरसा का महत्व।

मध्यकालीन भारतीय कृषि में हल और लोहे के फाल का विकास
मध्यकालीन भारत में खेती का सबसे अहम और अनिवार्य औज़ार हल था, जिसे पीढ़ियों से किसान अपने खेत जोतने के लिए इस्तेमाल करते आ रहे थे। शुरुआती समय में हल का फाल लकड़ी या पत्थर से बनाया जाता था। ये फाल अपेक्षाकृत कमज़ोर होते थे और कठोर मिट्टी को गहराई से जोतने में सक्षम नहीं होते थे, जिसके कारण खेत की जुताई अधूरी रह जाती थी और पैदावार भी सीमित रहती थी। समय के साथ जब किसानों ने लोहे के फाल का उपयोग शुरू किया, तो यह बदलाव खेती में क्रांतिकारी साबित हुआ। लोहे का फाल न केवल मज़बूत और टिकाऊ था, बल्कि यह कठोर, चिपचिपी या पथरीली मिट्टी में भी आसानी से धँसकर उसे भुरभुरा कर देता था। गहरी जुताई से मिट्टी में हवा का संचार बढ़ता था, पुराने खरपतवार नष्ट होते थे और बीज के अंकुरण के लिए ज़रूरी नमी एवं पोषण मिट्टी में बेहतर तरीके से संरक्षित होता था। इस तकनीकी सुधार ने खेती की रफ़्तार और उत्पादन, दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि की।

बीज बुवाई और सिंचाई तकनीकों में नवाचार
मध्यकालीन दौर में किसानों ने केवल हल और फाल के रूप में ही नवाचार नहीं किए, बल्कि बीज बुवाई की प्रक्रिया में भी महत्वपूर्ण सुधार लाए। पहले बीज बिखेरकर बोए जाते थे, जिससे पौधों की बढ़वार असमान होती थी और कई बार बीज नष्ट भी हो जाते थे। धीरे-धीरे किसानों ने बीजों को समान दूरी और उचित गहराई पर बोने की तकनीक विकसित की। इससे फसल की कतारें सीधी और व्यवस्थित बनने लगीं, जिससे देखभाल और निराई-गुड़ाई आसान हो गई। इसके साथ ही सिंचाई के तरीकों में भी बड़ी प्रगति हुई। कुओं से पानी निकालने के पारंपरिक, श्रमसाध्य तरीकों के स्थान पर साकिया या फ़ारसी पहिया जैसी यांत्रिक पद्धतियां प्रचलित हुईं। इस यंत्र में बैलों की सहायता से जुड़े हुए घड़े या बर्तन घुमाए जाते थे, जो लगातार पानी खींचकर खेतों में पहुँचा देते थे। यह तरीका पुराने हाथ से खींचने वाले उपायों की तुलना में तेज़, निरंतर और कम मेहनत वाला था, जिससे सिंचाई की क्षमता कई गुना बढ़ गई।
मुगल काल की प्रमुख फ़सलें और कृषि विस्तार
मुगल काल भारतीय कृषि के लिए विविधता और विस्तार का काल रहा। इस दौर में खेती सिर्फ़ अनाजों तक सीमित नहीं रही, बल्कि नकदी फसलों और मसालों का भी बड़ा महत्व बढ़ा। उत्तर और मध्य भारत में गेहूँ की भरपूर खेती होती थी, जबकि पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में चावल मुख्य आहार फसल के रूप में उगाया जाता था। शुष्क और कम वर्षा वाले इलाकों जैसे गुजरात और खानदेश में बाजरा किसानों की पसंदीदा फसल थी, क्योंकि यह कम पानी में भी अच्छी उपज देता था। इसके अलावा, कपास, गन्ना, नील और अफीम जैसी नकदी फसलें किसानों के लिए अतिरिक्त आय का स्रोत बनीं। यूरोपीय व्यापारियों, विशेषकर पुर्तगालियों के आगमन के बाद, भारत में तंबाकू, अनानास, पपीता और काजू जैसे नए पौधे भी आए, जिन्होंने कृषि परिदृश्य को और समृद्ध किया। मसाले, खासकर काली मिर्च, और कॉफी (coffee) उस समय के समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक माने जाते थे और इनका उत्पादन व्यापार के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहुँचने लगा।

विभिन्न क्षेत्रों में जल-उठाने वाले पारंपरिक उपकरण
भारत जैसे विशाल और भौगोलिक रूप से विविध देश में, अलग-अलग क्षेत्रों ने अपनी आवश्यकताओं और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार जल-उठाने की विशिष्ट पद्धतियां विकसित कीं। उदाहरण के लिए, कश्मीर में अरघट्टा नामक पहिया-आधारित यंत्र का उपयोग होता था, जो गाँवों और खेतों में पानी वितरण के लिए अत्यंत उपयोगी था। पंजाब और आस-पास के इलाकों में अरहत या रहत का प्रचलन था, जिसमें बर्तनों की श्रृंखला और पिन-ड्रम गेयरिंग सिस्टम (Pin-drum gearing system) का प्रयोग करके कुएँ से लगातार पानी निकाला जाता था। यह व्यवस्था मज़बूत, लम्बे समय तक चलने वाली और बड़े पैमाने पर सिंचाई के लिए उपयुक्त थी। बाबर ने अपने संस्मरण ‘बाबरनामा’ में चरसा नामक उपकरण का उल्लेख किया है, जिसमें बैलों के सहारे एक लकड़ी के कांटे और रस्सियों की सहायता से कुएँ से पानी निकाला जाता था। ये सभी उपकरण, चाहे वे तकनीकी रूप से साधारण हों, किसानों की मेहनत को कम करने और सिंचाई की दक्षता बढ़ाने में अमूल्य भूमिका निभाते थे।
संदर्भ-
शिक्षक दिवस पर भारत के उन महान गुरुओं को याद करें, जिन्होंने समाज को दिशा दी
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
05-09-2025 09:09 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
भारत का इतिहास केवल राजाओं, सम्राटों और स्वतंत्रता सेनानियों की वीरगाथाओं से ही नहीं रचा गया, बल्कि उन महान शिक्षकों (teachers) के विचारों और उनके ज्ञान से भी गढ़ा गया है, जिन्होंने समाज को नई दिशा दी और आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा की मशाल प्रज्वलित की। भारतीय संस्कृति में शिक्षक को ‘गुरु’ कहा गया है, और यह माना गया है कि गुरु केवल ज्ञान देने वाला नहीं, बल्कि जीवन का सच्चा मार्गदर्शक होता है। यही कारण है कि गुरु को माता-पिता के समान दर्जा दिया गया है और उनकी वाणी को अमूल्य माना गया है। हर साल 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस (Teachers’ Day) मनाते हैं। यह दिन डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के रूप में पूरे देश में समर्पित होता है, जिन्होंने न केवल भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में देश का नेतृत्व किया, बल्कि एक आदर्श शिक्षक और महान दार्शनिक के रूप में भी शिक्षा को नई दिशा दी। इस अवसर पर छात्र अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, उन्हें धन्यवाद देते हैं और उनकी प्रेरणा को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते हैं। भारत की शिक्षा परंपरा इतनी गहरी और समृद्ध है कि इसमें प्राचीन गुरुकुलों से लेकर आधुनिक विश्वविद्यालयों तक का योगदान रहा है। यहाँ ऐसे शिक्षक हुए जिन्होंने सिर्फ़ पाठ्यक्रम पढ़ाने तक खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि समाज सुधार, राष्ट्रनिर्माण और मानवीय मूल्यों की स्थापना को ही शिक्षा का मूल उद्देश्य माना। आइए, इस लेख में हम कुछ ऐसे ही प्रमुख शिक्षकों के जीवन और योगदान को जानें, जिन्होंने भारतीय समाज और शिक्षा की धारा को हमेशा के लिए बदल दिया।
इस लेख में हम ऐसे ही पाँच महान शिक्षकों के योगदान पर चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम पढ़ेंगे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में, जिन्होंने दर्शनशास्त्र (philosophy) और शिक्षा को जीवन का ध्येय बनाया और बाद में राष्ट्रपति पद तक पहुँचे। फिर हम देखेंगे सावित्रीबाई फुले की संघर्षमयी यात्रा, जिन्होंने जाति और लिंग भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लड़कियों के लिए शिक्षा का द्वार खोला। इसके बाद हम जानेंगे चाणक्य के बारे में, जो राजनीति और कूटनीति (statecraft and strategy) के शिक्षक के रूप में आज भी प्रासंगिक हैं। आगे हम चर्चा करेंगे महामना मदन मोहन मालवीय के उस सपने पर, जिसने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू - BHU) जैसी महान संस्था को जन्म दिया। अंत में, हम पढ़ेंगे रवीन्द्रनाथ टैगोर यानी गुरुदेव की शांति निकेतन पद्धति के बारे में, जिसने शिक्षा को पुस्तकों से बाहर निकाल कर रचनात्मकता और जीवन से जोड़ा।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन - वह शिक्षक जो राष्ट्रपति बने
डॉ. राधाकृष्णन न केवल एक महान शिक्षक थे बल्कि दार्शनिक और शिक्षाविद भी। उन्होंने मैसूर और कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ाया और ऑक्सफोर्ड (Oxford) में तुलनात्मक धर्म (comparative religion) पर व्याख्यान दिए। बाद में वे स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति बने। उनकी जन्मतिथि 5 सितम्बर को ही शिक्षक दिवस (Teachers’ Day) के रूप में मनाई जाती है। उनका यह विश्वास कि “सच्चा शिक्षक वह है जो हमें अपने लिए सोचने की प्रेरणा दे” आज भी हर पीढ़ी को मार्गदर्शन देता है।

सावित्रीबाई फुले - भारत की पहली महिला शिक्षिका और समाज सुधारक
सावित्रीबाई फुले का नाम भारतीय समाज सुधार आंदोलन की अग्रणी पंक्ति में आता है। 1848 में जब उन्होंने अपने पति ज्योतिराव फुले के सहयोग से पुणे में लड़कियों और दलित बच्चों के लिए पहला स्कूल खोला, तो यह अपने आप में एक क्रांति थी। उस दौर में स्त्रियों को शिक्षा देना सामाजिक अपराध माना जाता था। लोग उन्हें स्कूल जाते समय अपमानित करते, गालियाँ देते और यहाँ तक कि रास्ते में पत्थर और गोबर फेंकते। लेकिन सावित्रीबाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने साफ़ कहा था - “अगर लोग हमें रोकेंगे तो इसका मतलब है कि हम सही रास्ते पर चल रहे हैं।” आगे चलकर उन्होंने केवल पाँच विद्यालय ही नहीं खोले, बल्कि विधवा महिलाओं के लिए आश्रयगृह और अनाथ बच्चों के लिए ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ की भी स्थापना की। उन्होंने जाति प्रथा, स्त्री-पुरुष असमानता और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ खुलकर आवाज़ उठाई। उनकी दृढ़ता और साहस ने आने वाली पीढ़ियों की महिलाओं के लिए शिक्षा और सम्मान का दरवाज़ा खोला। आज पुणे विश्वविद्यालय को उनके नाम से जाना जाता है, जो उनके अदम्य योगदान की जीवित पहचान है।

चाणक्य - राजनीति और कूटनीति के प्राचीन शिक्षक
चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली गुरुओं में गिने जाते हैं। वे नालंदा विश्वविद्यालय के विद्वान थे और राजनीति, अर्थशास्त्र तथा कूटनीति के गहन जानकार। उन्होंने बालक चंद्रगुप्त मौर्य को न केवल शिक्षा दी बल्कि उसे प्रशिक्षित करके एक शक्तिशाली सम्राट बना दिया। चाणक्य की दूरदर्शिता और नीति ने नंद वंश को समाप्त कर मौर्य साम्राज्य की नींव रखी, जो आगे चलकर भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य बना। उनकी रचना ‘अर्थशास्त्र’ आज भी प्रशासन, कानून, वित्त और शासन व्यवस्था का एक प्राचीन मार्गदर्शक ग्रंथ माना जाता है। इसमें कर-प्रणाली, युद्ध-नीति, जासूसी, शिक्षा और राज्य संचालन के सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन है। उनकी ‘चाणक्य नीति’ जीवन दर्शन की तरह है, जिसमें नैतिकता, मित्रता, नेतृत्व और व्यवहार से जुड़ी शिक्षाएँ दी गई हैं। उनका कथन - “शिक्षा सबसे अच्छा मित्र है, एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पाता है”, उनकी दृष्टि की गहराई और कालातीत महत्व को दर्शाता है। चाणक्य केवल एक शिक्षक नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माता थे।

महामना मदन मोहन मालवीय - बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक
मदन मोहन मालवीय भारतीय शिक्षा और राजनीति के इतिहास में महामना के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका मानना था कि यदि भारत को आधुनिक और मजबूत बनाना है तो उच्च शिक्षा को हर वर्ग तक पहुँचाना होगा। इसी सोच से उन्होंने 1916 में काशी में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना की। उस समय भारत में ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करना, जहाँ भारतीय संस्कृति और आधुनिक विज्ञान का समन्वय हो, एक असाधारण सपना था। बीएचयू आज एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है, जहाँ लाखों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते हैं। यहाँ से निकलने वाले विद्वानों ने विज्ञान, चिकित्सा, साहित्य, कला और राष्ट्रनिर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मालवीय जी स्वयं भी स्वतंत्रता आंदोलन के सक्रिय नेता थे और कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कई बार रहे। उनकी राष्ट्रभक्ति और शिक्षा के प्रति निष्ठा ने उन्हें ‘महामना’ की उपाधि दिलाई। उनका दिया गया संदेश - “भारत की आत्मा शिक्षा से ही जीवित रह सकती है”, आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर - गुरुदेव और शांति निकेतन का मॉडल
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर केवल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी महान सुधारक थे। उनका मानना था कि शिक्षा को केवल परीक्षा और डिग्री (Degree) तक सीमित नहीं करना चाहिए, बल्कि यह बच्चों के मन, हृदय और आत्मा को विकसित करने का माध्यम होना चाहिए। इसी सोच से उन्होंने 1901 में पश्चिम बंगाल के बोलपुर में शांति निकेतन की स्थापना की। यहाँ बच्चों को प्रकृति के बीच खुला वातावरण दिया गया, ताकि वे रचनात्मकता, कला, संगीत, नृत्य और खेलों के माध्यम से सीख सकें।
टैगोर की शिक्षा पद्धति इस विचार पर आधारित थी कि “मनुष्य केवल पुस्तकों से नहीं, बल्कि जीवन से सीखता है।” उन्होंने शिक्षा में स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता और मानवीय संवेदना पर ज़ोर दिया। यही कारण है कि शांति निकेतन ने आगे चलकर विश्व-भारती विश्वविद्यालय का रूप लिया, जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी आकर सीखने लगे। टैगोर का मानना था कि “शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं, बल्कि मनुष्य को अधिक मानवीय बनाना है।” उनकी यह सोच आज की शिक्षा व्यवस्था को भी मानवीय दिशा प्रदान करती है।
संदर्भ-
बटागुर बास्का: सुंदरबन के संकटग्रस्त कछुए की जंग, क्या बच पाएगी ये प्रजाति?
रेंगने वाले जीव
Reptiles
04-09-2025 09:21 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आप जानते हैं कि हमारी धरती पर कुछ ऐसे जीव भी हैं जो करोड़ों साल से अस्तित्व में हैं, लेकिन आज उनकी पहचान खतरे में पड़ गई है? इन्हीं रहस्यमय जीवों में से एक है बटागुर बास्का कछुआ, जिसे उत्तरी नदी टेरापिन (northern river terrapin) भी कहा जाता है। यह दुर्लभ और बेहद सुंदर कछुआ मुख्य रूप से सुंदरबन और ओडिशा की नदियों और मैंग्रोव (mangrove) इलाकों में पाया जाता है। कभी बड़ी संख्या में नदियों में तैरने वाला यह जीव अब सिर्फ गिनती के कुछ सौ कछुओं तक सिमट चुका है। प्रकृति की नाजुकता और मानव हस्तक्षेप के कारण ये कछुए आज विलुप्ति की कगार पर हैं।
इस लेख में हम बटागुर बास्का कछुए से जुड़ी पाँच प्रमुख बातों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम इस दुर्लभ कछुए के परिचय और उसकी भौतिक विशेषताओं को जानेंगे, जिसमें इसका आकार, रंग और अन्य विशिष्ट गुण शामिल हैं। इसके बाद हम इसके प्राकृतिक आवास और जीवन शैली पर नज़र डालेंगे, जहां यह कछुआ मीठे और खारे पानी के बीच अपना जीवन कैसे व्यतीत करता है। तीसरे भाग में हम इसके प्रजनन चक्र और अंडे देने की प्रक्रिया को समझेंगे, जो इसकी प्रजाति के अस्तित्व में अहम भूमिका निभाती है। इसके बाद चौथे हिस्से में उन प्रमुख खतरों पर बात करेंगे, जिनकी वजह से यह प्रजाति आज विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई है। अंत में, हम उन संरक्षण प्रयासों और उपलब्धियों पर चर्चा करेंगे, जिनकी बदौलत इस अनोखे कछुए को बचाने की उम्मीद अब भी बनी हुई है।
बटागुर बास्का कछुए का परिचय और भौतिक विशेषताएँ
बटागुर बास्का कछुआ दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की नदियों में पाया जाने वाला एक अत्यंत दुर्लभ और अद्भुत जीव है। यह कछुआ अपने आकार और अनोखी शारीरिक बनावट के कारण अन्य प्रजातियों से अलग दिखाई देता है। इसकी लंबाई लगभग 55 से 60 सेंटीमीटर तक हो सकती है और वज़न 15 से 18 किलोग्राम तक पहुँचता है। इसके मजबूत और थोड़ा उभरे हुए खोल का रंग जैतून या भूरा होता है, जो इसे प्राकृतिक परिवेश में घुलने-मिलने में मदद करता है। नीचे का हिस्सा हल्के पीले रंग का होता है। सिर छोटा और थूथन आगे से नुकीला और हल्का ऊपर उठा होता है, जिससे यह आसानी से पानी में सांस लेने और भोजन खोजने में सक्षम होता है। इनकी सबसे खास बात यह है कि प्रजनन काल के दौरान इनका रंग बदल जाता है, नर कछुओं का सिर और गर्दन काले हो जाते हैं और पैरों पर लाल या नारंगी रंग की आभा आ जाती है। उनकी आंखों की पुतलियां भी इस समय बदलकर और चमकीली हो जाती हैं। यह बदलाव सिर्फ इन्हीं कछुओं में देखा जाता है, जिससे इनका स्वरूप अत्यंत आकर्षक और अनूठा हो जाता है।

प्राकृतिक आवास और जीवन शैली
बटागुर बास्का कछुआ मीठे और खारे दोनों तरह के पानी में रहने में सक्षम है। यह प्रजाति मुख्य रूप से भारत और बांग्लादेश के सुंदरबन डेल्टा (delta), ओडिशा के भितरकनिका अभयारण्य, म्यांमार, मलेशिया (Malaysia) और कंबोडिया (Cambodia) के तटीय इलाकों और बड़ी नदियों के मुहानों पर पाई जाती है। कभी ये सिंगापुर और थाईलैंड (Thailand) में भी पाए जाते थे, लेकिन अब वहां पूरी तरह लुप्त हो चुके हैं। ये कछुए सामान्य दिनों में नदी के शांत मीठे पानी में रहते हैं और प्रजनन के मौसम में खारे पानी वाले ज्वारीय क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। इनका भोजन पौधों के कोमल हिस्सों, बीजों और जलीय छोटे जीवों से बना होता है। इन्हें देखने का मौका बेहद दुर्लभ होता है क्योंकि ये स्वभाव से बहुत शर्मीले और सतर्क होते हैं। ये अक्सर पानी के भीतर या मैंग्रोव की झाड़ियों में छिपकर रहते हैं। इनकी धीमी चाल और सतर्क स्वभाव इन्हें इंसानों से दूर रखता है, और शायद इसी कारण यह प्रजाति हमारे लिए अब भी रहस्यमयी बनी हुई है।
प्रजनन चक्र और अंडे देने की प्रक्रिया
बटागुर बास्का का प्रजनन समय दिसंबर से मार्च तक चलता है। इस अवधि में नर कछुए रंग बदलकर और भी आकर्षक हो जाते हैं ताकि मादा को आकर्षित कर सकें। प्रजनन के बाद, मादा कछुआ नदी के किनारे पर किसी सुरक्षित रेतीले स्थान की तलाश करती है। वह एक बार में 10 से 34 अंडे देती है, जिसे वह तीन अलग-अलग बार में पूरा करती है। अंडे देने के बाद मादा उन्हें रेत में अच्छी तरह ढक देती है और अपने भारी शरीर से दबाकर मजबूत करती है। यह स्वाभाविक व्यवस्था अंडों को शिकारी जानवरों और लहरों से बचाती है। यह पूरा व्यवहार इस बात का उदाहरण है कि प्रकृति अपने हर जीव को जीवन देने का अवसर किस तरह देती है। अंडे देने के बाद मादा कछुआ बिना पीछे देखे पानी की ओर लौट जाती है और प्रकृति पर भरोसा करती है कि अगली पीढ़ी सुरक्षित रूप से जन्म लेगी।
इस प्रजाति के अस्तित्व के सामने प्रमुख खतरे
आज बटागुर बास्का का अस्तित्व कई गंभीर खतरों से जूझ रहा है। अतीत में इनके मांस और अंडों का बड़े पैमाने पर शिकार हुआ, जिससे इनकी संख्या तेजी से घट गई। औपनिवेशिक समय में इनका मांस एक खास व्यंजन माना जाता था। वर्तमान समय में इनके आवास का लगातार खत्म होना सबसे बड़ा खतरा है। प्रदूषण, नदियों में फैला प्लास्टिक कचरा, मैंग्रोव का कटना और जलवायु परिवर्तन से समुद्र का बढ़ता जल स्तर इनके प्राकृतिक घर को तेजी से नष्ट कर रहा है। इसके अलावा, अक्सर ये मछली पकड़ने के जाल में फंस जाते हैं और मर जाते हैं। तापमान में लगातार वृद्धि ने इनकी प्रजनन प्रक्रिया को भी प्रभावित किया है क्योंकि ज्यादा तापमान पर अंडों से अधिक मादाएं पैदा हो रही हैं, जिससे नर-मादा का संतुलन बिगड़ रहा है। इस असंतुलन के कारण प्रजाति की आगे की पीढ़ियां संकट में हैं।

संरक्षण के लिए किए गए प्रयास और सफलताएँ
2018 में जब इनकी संख्या केवल 100 के आसपास रह गई, तब पश्चिम बंगाल के वन विभाग और कई संस्थाओं ने मिलकर इन कछुओं को बचाने की बड़ी मुहिम शुरू की। सजनेखाली द्वीप पर मिले कुछ कछुओं को सुरक्षित वातावरण में रखा गया और वहां कृत्रिम ऊष्मायन तकनीक (Artificial incubation) का उपयोग करके इनके अंडों को सेने का काम शुरू किया गया। इस प्रयास के बाद धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ने लगी। आज 2024 तक लगभग 430 कछुए नियंत्रित और सुरक्षित स्थानों पर पाले जा रहे हैं। 2022 में 10 कछुओं को उपग्रह निगरानी के साथ खुले जंगल में छोड़ा गया ताकि उनके व्यवहार और अनुकूलन क्षमता को समझा जा सके। परिणाम उत्साहजनक रहे, हालांकि बढ़ती लवणता और आवास के नुकसान जैसी चुनौतियां अब भी बाकी हैं। इन प्रयासों से उम्मीद की किरण जगी है कि यदि लगातार प्रयास किए जाएं तो एक दिन ये कछुए फिर से स्वतंत्र रूप से सुंदरबन की नदियों और मैंग्रोव में लौट सकते हैं।
संदर्भ-
मेरठ की थाली में चावल: परंपरा, विज्ञान और सुनहरे भविष्य की कहानी
डीएनए
By DNA
03-09-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, हमारी थाली में अगर कोई अनाज सबसे ज़्यादा अपनापन और सुकून लेकर आता है, तो वह है, चावल। चाहे ईद के मौके पर सुगंध से महकती बिरयानी हो, तीज-त्योहार पर बनने वाली खीर की मिठास हो या फिर सर्दी की शाम में गरमा-गरम खिचड़ी, चावल हर स्वाद में अपनी सादगी और अपनापन घोल देता है। यह अनाज सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं, बल्कि हमारी परंपराओं और संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। बचपन की यादों में खेतों की लहलहाती धान की बालियां, कटाई के बाद घर में बिखरी उनकी महक और त्योहारों में पकने वाले चावल के पकवान, सब कुछ जुड़ा है इसी एक फसल से। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे देश और दुनिया में चावल की कितनी किस्में होती हैं? भारत अकेले ही लगभग 40,000 प्रकार के चावल का घर है, और हर इलाके की अपनी खास किस्म और स्वाद है। फिर सवाल उठता है, जब विज्ञान इतना आगे बढ़ चुका है, तो क्यों भारत ने अब तक आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM - Genetically Modified) चावल, यानी जीएम चावल (GM rice) की खेती को मंज़ूरी नहीं दी? और आखिर ये गोल्डन राइस (Golden Rice) जैसी नई तकनीकें क्या हैं, जिन पर दुनिया में इतनी चर्चा हो रही है? इस लेख में हम इन्हीं सवालों के जवाब खोजेंगे।
इस लेख में हम चावल और उससे जुड़े कुछ अहम पहलुओं को विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले बात करेंगे भारत में चावल की महत्ता और उसकी अद्भुत विविधता की, जहां यह केवल एक फसल नहीं बल्कि हमारी संस्कृति और जीवन का हिस्सा है। इसके बाद जानेंगे देश में उगाई जाने वाली प्रमुख किस्मों के बारे में, जिनकी सुगंध और स्वाद ने भारत की रसोई को समृद्ध बनाया है। फिर हम देखेंगे कि आनुवंशिक रूप से संशोधित यानी जीएम (GM) चावल को लेकर भारत का रुख क्या है और देश ने इस दिशा में इतनी सावधानी क्यों बरती है। चौथे पहलू के रूप में, दुनिया के अलग-अलग देशों में जीएम चावल, खासकर गोल्डन राइस के इतिहास और विकास को समझेंगे। और अंत में, इस गोल्डन राइस से जुड़े विवादों और लोगों की प्रतिक्रियाओं पर नजर डालेंगे, जहां एक ओर विज्ञान की उम्मीद है तो दूसरी ओर परंपरा और सावधानी की चिंता।
भारत में चावल की महत्ता और विविधता
भारत में चावल सिर्फ एक अनाज नहीं है, यह हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति और हमारे जीवन का हिस्सा है। खेतों में लहराती धान की बालियों की हरियाली केवल भोजन का स्रोत नहीं बल्कि किसानों के चेहरे पर मुस्कान और गांव की मिट्टी में बसी खुशबू का प्रतीक है। भारत के मौसम और मिट्टी की अनूठी विविधता ने लगभग 40,000 से भी अधिक किस्मों को जन्म दिया है। उत्तर के मैदानी इलाकों से लेकर पूर्वोत्तर की पहाड़ियों और दक्षिण के तटीय इलाकों तक, हर क्षेत्र ने चावल की अपनी-अपनी पहचान बनाई है। खासकर पूर्वी और दक्षिणी भारत के बरसाती खेत, जहां खरीफ के मौसम में धान की लहरें समुद्र जैसी लय में हिलती हैं, हमारे देश की आत्मा का हिस्सा हैं। यह अनाज हमारी थाली में सिर्फ खिचड़ी, बिरयानी, इडली, डोसा या खीर बनकर नहीं आता, बल्कि हमारे त्योहारों, रस्मों और रिश्तों में भी शामिल होता है।

भारत की प्रमुख चावल की किस्में
भारत में चावल की किस्में इतनी विविध हैं कि हर राज्य का स्वाद अलग है। सबसे पहले बात करें बासमती की, जो अपनी लंबी, पतली और सुगंधित दानों के कारण दुनिया भर में मशहूर है। जैस्मीन चावल (Jasmine Rice) का हल्का मीठा स्वाद, जो थाईलैंड (Thailand) से आया और अब भारत की रसोई में भी अपनापन पा चुका है। लाल चावल की पौष्टिकता और उसका गाढ़ा रंग, जो दक्षिण भारत के खानपान में ऊर्जा भरता है। मध्य प्रदेश का मोगरा चावल, अपनी नाज़ुक बनावट के कारण, करी और व्यंजनों में घुलकर स्वाद को निखार देता है। स्वास्थ्य के प्रति सजग लोगों के लिए ब्राउन चावल (Brown Rice) एक वरदान है, क्योंकि इसमें चोकर की परत बनी रहती है। वहीं काला चावल, जिसे कभी "निषिद्ध चावल" कहा जाता था, अपने गहरे रंग और एंटीऑक्सीडेंट (Antioxidant) गुणों के कारण आज फिर से लोकप्रिय हो रहा है। आंध्र प्रदेश का सोना मसूरी, महाराष्ट्र का अम्बेमोहर, झारखंड और पूर्वोत्तर का बांस चावल, और काला जीरा, ये सभी अपने स्वाद, सुगंध और संस्कृति का अलग ही अनुभव देते हैं। हर एक किस्म में भारत की मिट्टी की महक और इतिहास की परतें छुपी हैं।
भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित चावल पर प्रतिबंध
आज के दौर में जब कृषि तकनीक तेजी से बदल रही है, भारत ने आनुवंशिक रूप से संशोधित यानी जीएम चावल को लेकर बेहद सावधानी अपनाई है। भारत सरकार ने अब तक किसी भी प्रकार के जीएम चावल को न खेती के लिए, न निर्यात के लिए, और न ही उपभोग के लिए अनुमति दी है। इसकी पुष्टि भारत के वाणिज्य मंत्रालय ने भी की है। इसका एक बड़ा कारण है हमारी खाद्य सुरक्षा और हमारी प्राकृतिक विविधता की रक्षा करना। पारंपरिक चावल की किस्में, जो पीढ़ी दर पीढ़ी किसानों ने बचाई हैं, वे न केवल हमारी थाली में स्वाद देती हैं बल्कि खेतों में मिट्टी, जलवायु और स्थानीय जैव विविधता से जुड़ी होती हैं। अगर जीएम तकनीक बिना सोचे-समझे लागू की जाए तो इन किस्मों पर खतरा हो सकता है। इसलिए भारत ने यह रास्ता बेहद सोच-समझकर और सतर्कता के साथ चुना है।

दुनिया में जीएम चावल और 'गोल्डन राइस' का इतिहास
दुनिया के कई देशों ने हालांकि जीएम चावल पर प्रयोग किए हैं। 1999-2000 में वैज्ञानिकों ने एक अनोखी कोशिश की, उन्होंने 'गोल्डन राइस' नाम की एक विशेष किस्म विकसित की। इस चावल में बीटा-कैरोटीन (Beta Carotene) नामक पोषक तत्व जोड़ा गया, जो शरीर में विटामिन ए (Vitamin A) में बदलता है। इसका उद्देश्य था उन गरीब देशों में विटामिन ए की कमी को दूर करना, जहां बच्चों को इस कमी के कारण गंभीर बीमारियाँ होती हैं। अमेरिका, कनाडा, चीन, मैक्सिको (Mexico) और ऑस्ट्रेलिया में इस चावल पर परीक्षण हुए। 2018 में कनाडा और अमेरिका ने इसे सुरक्षित घोषित किया और 2021 में फिलीपींस (Philippines) पहला देश बना जिसने गोल्डन राइस की व्यावसायिक खेती को मंजूरी दी। यह प्रयोग विज्ञान और मानवता के मिलन का एक प्रयास था, जहां तकनीक ने पोषण की कमी से लड़ने का सपना देखा।
गोल्डन राइस पर विवाद और प्रतिक्रियाएँ
लेकिन गोल्डन राइस की कहानी इतनी सीधी नहीं रही। जहां एक ओर इसे विटामिन ए की कमी से बचाने के लिए एक उम्मीद की किरण माना गया, वहीं दूसरी ओर इसने कई विवाद खड़े कर दिए। कई संगठनों का कहना है कि अगर जीएम चावल खेतों में फैले तो यह प्राकृतिक किस्मों को नुकसान पहुँचा सकता है। इसके अलावा, छोटे किसानों की आजीविका और बीजों पर उनका नियंत्रण कम हो सकता है। कुछ का मानना है कि विटामिन ए की कमी को दूर करने के लिए फलों, हरी सब्जियों और स्थानीय आहार को बढ़ावा देना ज्यादा आसान और सस्ता उपाय है। इसी वजह से भारत सहित कई देशों ने अभी तक गोल्डन राइस को अपनाने का निर्णय नहीं लिया है। इस बहस में एक ओर विज्ञान की उम्मीद है तो दूसरी ओर सावधानी और परंपरा को बचाने की चाह, और यह संघर्ष अभी भी जारी है।
संदर्भ-
मेरठ का आलमगीरपुर: सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा और सांस्कृतिक पहचान
सभ्यताः 10000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व
Civilization: 10000 BCE to 2000 BCE
02-09-2025 09:23 AM
Meerut-Hindi

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ ज़िले में स्थित आलमगीरपुर, सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, जिसे इस सभ्यता की पूर्वी सीमा माना जाता है। यमुना नदी के किनारे बसे इस स्थल को स्थानीय रूप से “परशुराम का खेड़ा” भी कहा जाता था। आलमगीरपुर न केवल हड़प्पा संस्कृति के विस्तार को दर्शाता है, बल्कि यह उस समय की जीवनशैली, कला, और शिल्पकला का भी जीवंत प्रमाण है। मेरठ की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान में आलमगीरपुर का नाम बेहद खास है। यमुना नदी के किनारे बसा यह स्थान सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा माना जाता है, जिसने प्राचीन भारत के इतिहास को नई दिशा दी। स्थानीय लोगों के बीच “परशुराम का खेड़ा” के नाम से मशहूर आलमगीरपुर, सिर्फ पुरानी ईंटों और मिट्टी के बर्तनों का ढेर नहीं, बल्कि उस समय की जीवनशैली, व्यापारिक गतिविधियों, कला और शिल्पकला का सजीव प्रमाण है। यहां से मिले बारीक नक्काशी वाले बर्तन, टेराकोटा (terracotta) मूर्तियां और आभूषण यह बताते हैं कि हड़प्पा संस्कृति मेरठ तक पहुंची और यहां पनपी भी। आलमगीरपुर की हर खुदाई की परत मानो अतीत का दरवाज़ा खोल देती है, जो हमें यह एहसास कराती है कि मेरठ न सिर्फ आज के समय में, बल्कि हजारों साल पहले भी सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है।
इस लेख में हम चरणबद्ध तरीके से आलमगीरपुर की कहानी जानेंगे। सबसे पहले, हम इसके ऐतिहासिक महत्व और पहचान पर चर्चा करेंगे। फिर, हम खोज और उत्खनन का इतिहास जानेंगे, जिसमें 20वीं शताब्दी के मध्य में हुए पुरातात्विक सर्वेक्षण शामिल हैं। इसके बाद, हम मिट्टी के बर्तन और कार्यशाला के साक्ष्य देखेंगे, जो उस समय के औद्योगिक कौशल को दर्शाते हैं। आगे, हम मिली हुई कलाकृतियों के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे, जिनमें टेराकोटा, सिरेमिक (ceramic), और धातु की वस्तुएं शामिल हैं। फिर, हम कालखंडों का क्रम और अंतर समझेंगे, जो चार अलग-अलग सांस्कृतिक चरणों में बंटे थे। अंत में, हम जानेंगे आलमगीरपुर का सांस्कृतिक महत्व और भारतीय पुरातत्व में इसकी भूमिका।

आलमगीरपुर का ऐतिहासिक महत्व और पहचान
आलमगीरपुर, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा के रूप में जाना जाता है, भारतीय पुरातत्व के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह स्थल लगभग 2600 ईसा पूर्व से 2200 ईसा पूर्व के बीच सक्रिय था, जब हड़प्पा संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी। यमुना नदी के किनारे बसा यह स्थान उस समय व्यापार, शिल्पकला, कृषि और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक केंद्र रहा होगा। यहां पाए गए साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र न केवल स्थानीय बल्कि दूर-दराज़ के क्षेत्रों से भी जुड़ा हुआ था। स्थानीय लोककथाओं में इसे “परशुराम का खेड़ा” कहा जाता था, जो इस क्षेत्र की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण है।
खोज और उत्खनन का इतिहास
आलमगीरपुर का पुरातात्विक महत्व 1958–59 में सामने आया, जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहां खुदाई की। इस खुदाई में चार अलग-अलग सांस्कृतिक कालखंडों के स्पष्ट प्रमाण मिले, जिन्होंने इस स्थल के लंबे ऐतिहासिक सफर को उजागर किया। बाद में, 1974 में पंजाब विश्वविद्यालय ने भी इस स्थल का अध्ययन किया और कुछ और विवरण जोड़े। हालांकि खुदाई सीमित क्षेत्र में ही हुई, फिर भी इससे सिंधु घाटी सभ्यता के भौगोलिक विस्तार को यमुना के पूर्वी किनारे तक प्रमाणित किया जा सका। यह खोज भारतीय इतिहास में एक नए दृष्टिकोण को जन्म देने वाली साबित हुई।

मिट्टी के बर्तन और कार्यशाला के साक्ष्य
खुदाई के दौरान सबसे उल्लेखनीय खोजों में से एक थी हड़प्पा कालीन मिट्टी के बर्तन, जिनमें कप, प्लेट, फूलदान, ढक्कन और अन्य उपयोगी वस्तुएं शामिल थीं। इन बर्तनों के आकार, डिजाइन (design) और सतह पर की गई सजावट से पता चलता है कि यहां एक संगठित और कुशल बर्तन निर्माण कार्यशाला थी। बर्तनों की बनावट और गुणवत्ता इस बात का प्रमाण है कि उस समय शिल्पकला का स्तर काफी ऊँचा था और यह क्षेत्र न केवल स्थानीय आवश्यकताओं बल्कि संभवतः व्यापार के लिए भी वस्तुएं तैयार करता था।
मिली हुई कलाकृतियाँ
आलमगीरपुर से प्राप्त कलाकृतियां इसकी सांस्कृतिक समृद्धि का जीवंत प्रमाण हैं। यहां से सिरेमिक टाइलें (ceramic tiles), टेराकोटा मूर्तियां, घनाकार पासे, मोती और धातु के अवशेष मिले हैं। विशेष रूप से कूबड़ वाले बैल और सांप की मूर्तियां संभवतः धार्मिक आस्था या सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक सोने-मढ़ी हुई टेराकोटा आकृति और उच्च गुणवत्ता वाले वस्त्रों के प्रमाण इस बात को दर्शाते हैं कि यह स्थल आर्थिक और कलात्मक दृष्टि से उन्नत था। इन कलाकृतियों की विविधता यह भी बताती है कि यहां के लोग विभिन्न कलाओं और हस्तशिल्प में निपुण थे।
कालखंडों का क्रम और अंतर
आलमगीरपुर के उत्खनन से चार प्रमुख सांस्कृतिक कालखंड सामने आए - (I) हड़प्पा काल, (II) चित्रित ग्रे वेयर (gray ware) काल, (III) प्रारंभिक ऐतिहासिक काल, और (IV) मध्यकालीन काल। इन कालखंडों के बीच की परतों में स्पष्ट भौतिक अंतर देखने को मिलता है। हड़प्पा काल की परत ठोस और भूरी थी, जो निर्माण और बस्तियों की स्थिरता को दर्शाती है। इसके विपरीत, चित्रित ग्रे वेयर काल की परत ढीली थी और राख में लिपटी हुई ग्रे रंग की थी, जो संभवतः अलग जीवनशैली और तकनीकी बदलाव का संकेत देती है। इस क्रमिक विकास ने इस क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा को और स्पष्ट किया।

आलमगीरपुर का सांस्कृतिक महत्व
आलमगीरपुर की खोज ने यह साबित कर दिया कि सिंधु घाटी सभ्यता केवल पंजाब, सिंध और गुजरात तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका विस्तार पूर्व में यमुना नदी तक भी था। यह स्थल भारत की सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यहां से प्राप्त साक्ष्य हमें न केवल प्राचीन समय की औद्योगिक और शिल्पकला की झलक देते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि उस समय के लोग सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से कितने संगठित और उन्नत थे। भारतीय पुरातत्व में आलमगीरपुर की भूमिका अमूल्य है, क्योंकि यह हमें अतीत के बारे में ठोस प्रमाण और नई दृष्टि प्रदान करता है।
संदर्भ-
संस्कृति 2093
प्रकृति 757