रामपुर - गंगा जमुना तहज़ीब की राजधानी












रामपुर की तहज़ीब में श्रृंगार रस की गूंज: प्रेम, सौंदर्य और कला का मिलन
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
31-07-2025 09:25 AM
Rampur-Hindi

रामपुर, जहाँ की हवाओं में उर्दू शायरी की नज़ाकत और संगीत की मिठास घुली होती है, वहाँ श्रृंगार रस का प्रभाव भी चुपचाप, किंतु गहराई से अनुभूत होता है। नवाबी दौर की साहित्यिक गोष्ठियों से लेकर रामपुर रज़ा पुस्तकालय की हस्तलिखित पांडुलिपियों तक, इस शहर ने हमेशा प्रेम, सौंदर्य और भावना की अभिव्यक्ति को विशेष स्थान दिया है। खासकर श्रृंगार रस, जो भारतीय काव्य परंपरा का सबसे नयनाभिराम रस माना गया है, रामपुर की अदबी विरासत में रच-बस गया है। रामपुर, एक ऐसा शहर जहाँ हर गली, हर चौक और हर हवेली अपने अंदर सौंदर्य, संगीत और सलीके की विरासत समेटे हुए है। यहाँ की अदबी महफ़िलें, उर्दू शायरी की नफ़ासत, और शास्त्रीय संगीत की परंपरा ने इस नगर को एक संवेदी पहचान दी है। रामपुर की यही संवेदनशीलता श्रृंगार रस के अनुभव से गहराई से जुड़ी हुई है। श्रृंगार रस सिर्फ़ प्रेम का रस नहीं, बल्कि वह भावना है जो जीवन को कोमल, सुन्दर और आत्मिक बनाती है। नवाबी रामपुर के सांस्कृतिक परिदृश्य में श्रृंगार रस की उपस्थिति हमेशा से रही है - शायरों की कलम में, चित्रकारों की कल्पना में, और रज़ा पुस्तकालय की अमूल्य धरोहरों में।
इस लेख में हम श्रृंगार रस की परिभाषा, उसके भावात्मक आधार, शास्त्रीय कलाओं में उसकी अभिव्यक्ति, नाट्यशास्त्रीय संरचना, चित्रकला में उसका प्रतिबिंब और भारतीय सौंदर्य दर्शन में प्रेम की भूमिका की चर्चा करेंगे, जिससे रामपुरवासियों को भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों में छिपे रस की पुन: पहचान हो सके।

श्रृंगार रस की परिभाषा और भावात्मक गहराई
श्रृंगार रस को रसों का राजा कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्य के सबसे कोमल और सार्वभौमिक अनुभव-प्रेम को दर्शाता है। “श्रृंगार” शब्द ही सुशोभन, साज-सज्जा और आकर्षण से जुड़ा है। यह रस रति भाव पर आधारित है, जिसका अर्थ है—किसी मनभावन वस्तु, व्यक्ति या अनुभव के प्रति गहरा लगाव। रामपुर जैसे शहर में, जहाँ मोहब्बत को महज़ भावना नहीं, बल्कि ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा माना गया है, वहाँ श्रृंगार रस की गूंज हर कलात्मक परंपरा में महसूस होती है। यहाँ के बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि कैसे कभी चौपालों में प्रेम कहानियाँ सुनाई जाती थीं, और हवेलियों के झरोखों से चुपचाप प्रेम पत्र पहुँचाए जाते थे। यह रस सिर्फ़ कविता की पंक्तियों में नहीं, बल्कि आम जनजीवन में भी बहता रहा है - शब्दों, मुस्कानों और चुप्पियों में।
भारतीय कलाओं में श्रृंगार रस का महत्व
भारतीय शास्त्रीय कला परंपराएँ, चाहे वह नृत्य हो, संगीत, चित्रकला या नाट्यकला, श्रृंगार रस को अपनी आत्मा मानती हैं। भरतनाट्यम की मुद्राओं से लेकर कथक के लचकते घूंघट तक, राग यमन की अलाप से लेकर चित्रों में राधा-कृष्ण के सौंदर्य तक, श्रृंगार रस इन कलाओं में गहराई से प्रवाहित होता है।
रामपुर की कला संस्कृति में इस रस का स्थान विशेष रहा है। नवाबी दरबारों में होने वाली संगीत महफ़िलों में जब किसी गायिका की आवाज़ में कोई ठुमरी गूंजती थी, तो केवल संगीत नहीं बजता था- प्रेम, लालसा (longing), सौंदर्य और कोमलता सब कुछ उस धुन में समा जाता था। रामपुर घराने की संगीत शैली भी, विशेषकर खयाल गायन और ठुमरी में, श्रृंगार रस की प्रस्तुति में माहिर रही है। यह रस, कलाकार और श्रोता, दोनों को एक आध्यात्मिक संवाद में जोड़ता है।

संभोग और विप्रलंभ: श्रृंगार रस के दो आधार
श्रृंगार रस केवल प्रेम के मिलन तक सीमित नहीं है। यह उसके वियोग, तड़प, और प्रतीक्षा को भी उतनी ही भावनात्मक गहराई से अभिव्यक्त करता है। इसी कारण इसे दो भागों में बाँटा गया है - संभोग श्रृंगार, जो मिलन में प्रेम है, और विप्रलंभ श्रृंगार, जो जुदाई में प्रेम की अनुभूति है। रामपुर की शायरी और दास्तानगोई परंपरा में इस विभाजन की झलक स्पष्ट मिलती है। यहाँ की महफ़िलों में "इश्क़-ए-मुकम्मल" के साथ-साथ "इश्क़-ए-नाकाम" की दास्तानें भी उतनी ही रुचि से सुनी जाती थीं। एक ओर कोई आशिक़ अपने यार की आँखों की तारीफ करता था, तो दूसरी ओर किसी विरहिणी के गीत में जुदाई की पीड़ा छलकती थी। रामपुर के कई लोकगीत, सूफियाना कलाम और उर्दू ग़ज़लें इस बात की मिसाल हैं कि श्रृंगार रस सिर्फ़ प्रेम की खुशी नहीं, बल्कि उसकी कसक भी पूरी नज़ाकत के साथ दर्शाता है।
नाट्यशास्त्र में श्रृंगार रस की प्रस्तुति और तत्व
श्रृंगार रस की प्रस्तुति केवल विचार या भाव के स्तर पर नहीं होती, बल्कि यह एक पूरी नाटकीय संरचना के ज़रिए दर्शाया जाता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार, किसी भी रस की उत्पत्ति तीन घटकों से होती है, विभाव (Determinants), अनुभाव (Physical expressions) और संचारी भाव (Transitory states)। रामपुर के पारंपरिक मंचन, जैसे रामलीला, कृष्णलीला या लोक नाट्य प्रस्तुतियाँ, इन सभी तत्वों को श्रृंगार रस के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। नायक और नायिका की मुलाकात, उनकी आँखों की भाषा, प्रेम की प्रतीक्षा, और मिलन के भाव। यह सब कुछ मंच पर इतनी बारीकी से प्रदर्शित होता है कि दर्शक स्वयं उस भावना का हिस्सा बन जाता है। अभिनेताओं की मधुर मुस्कान, कोमल मुद्राएं, सुगंधित फूलों का प्रयोग, रात्रि की पृष्ठभूमि। यह सब श्रृंगार रस की दृश्यात्मक गहराई को बढ़ाते हैं।

भारतीय कला व चित्रकला में श्रृंगार रस की मूर्त व दृश्य अभिव्यक्तियाँ
श्रृंगार रस का सबसे सुंदर रूप उसकी दृश्य कलाओं में देखने को मिलता है। रामपुर की लघुचित्र परंपरा, जो मुगल और राजस्थानी चित्रकला का सुंदर संगम है, श्रृंगार रस का जीता-जागता प्रमाण है। रज़ा पुस्तकालय की पांडुलिपियों में संजोए गए चित्रों में, राधा का कृष्ण के प्रति अनुराग, राजकुमारियों की साज-सज्जा, या बाग़ में बैठे प्रेमियों की नज़रों का संवाद। ये सभी चित्र श्रृंगार रस की चुपचाप बोलती हुई तस्वीरें हैं। इन चित्रों में रंगों का प्रयोग, वस्त्रों की भव्यता, चेहरों की भाव-भंगिमा और प्रकृति की पृष्ठभूमि मिलकर एक ऐसा सौंदर्य रचते हैं जिसमें प्रेम केवल दृश्य नहीं रहता, बल्कि महसूस किया जाता है। यही श्रृंगार रस की शक्ति है, वह शब्दों से परे जाकर भावों को जगा देता है।
श्रृंगार रस और भारतीय सौंदर्यशास्त्र में प्रेम की भूमिका
भारतीय सौंदर्यदर्शन में यह स्पष्ट रूप से माना गया है कि सौंदर्य, प्रेम और आनंद, तीनों एक-दूसरे से जुड़कर आत्मिक अनुभव का निर्माण करते हैं। श्रृंगार रस इन तीनों का मिलन बिंदु है। जब हम किसी सुंदर चीज़ को देखते हैं। चाहे वो कोई कविता हो, कोई चित्र, कोई स्वर या कोई व्यक्ति, तो वह दृश्य हमारे मन में प्रेम और आनंद की भावना जाग्रत करता है। रामपुर की अदबी परंपरा, विशेषकर सूफी साहित्य, इस दृष्टिकोण का श्रेष्ठ उदाहरण है। वहाँ "इश्क़" केवल सांसारिक आकर्षण नहीं, बल्कि ईश्वर से जुड़ने का मार्ग भी है। सूफी संतों की कविताओं में ‘इश्क़े-मज़ाज़ी’ (दुनियावी प्रेम) से ‘इश्क़े-हक़ीकी’ (ईश्वरीय प्रेम) की यात्रा श्रृंगार रस के माध्यम से ही होती है। इस रस का अनुभव व्यक्ति को अपनी सीमाओं से ऊपर उठाकर किसी बड़े सौंदर्यबोध से जोड़ता है। यही कारण है कि श्रृंगार रस को रसों का राजा कहा गया है। क्योंकि वह केवल प्रेम नहीं, बल्कि उस प्रेम से मिलने वाले सौंदर्य और आत्मिक आनंद का प्रतिनिधित्व करता है।
संदर्भ-
रामपुर की महिलाएं अब सिर्फ परंपराओं की नहीं, आर्थिक बदलाव की पहचान भी हैं
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
30-07-2025 09:30 AM
Rampur-Hindi

रामपुर की गलियों और चौपालों में जब महिलाएं आत्मनिर्भरता की बातें करती हैं, तो यह सिर्फ शब्दों की नहीं, बल्कि एक नए युग की दस्तक होती है। कभी जो महिलाएं अपने परिवार की आय पर पूरी तरह निर्भर हुआ करती थीं, आज वे अपने निर्णय खुद लेने लगी हैं—चाहे वो स्वरोज़गार हो, प्रवास के माध्यम से काम की तलाश, या शिक्षा के बाद नौकरी की ओर बढ़ता कदम। रामपुर की महिलाएं अब सिर्फ घर की चूल्हा-चौका सँभालने वाली पारंपरिक पहचान में सीमित नहीं हैं, बल्कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र, नीतिगत बदलावों की साक्षी और प्रेरणास्रोत बन रही हैं।
आज के इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे रामपुर की महिलाओं की आर्थिक स्थिति समय के साथ बदली है। हम यह भी समझेंगे कि पहले जहाँ महिला प्रवास के पीछे विवाह प्रमुख कारण होता था, वहीं अब रोजगार और आर्थिक अवसरों की तलाश में भी वे घर से बाहर निकल रही हैं। फिर, हम देखेंगे कि महिला श्रमिकों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और श्रम भागीदारी दर में कैसा बदलाव आया है। अंत में, हम उन मिथकों की चर्चा करेंगे जो अब टूट रहे हैं, और जिनके पीछे महिलाएं अपनी असली शक्ति दिखा रही हैं।
रामपुर में महिलाओं की आर्थिक स्थिति का बदलता स्वरूप
कभी रामपुर की अधिकतर महिलाएं अपने घरों की चारदीवारी से बाहर नहीं निकलती थीं और उनके आर्थिक हालात मुख्य रूप से उनके पतियों या घर के पुरुष सदस्यों की आय पर निर्भर करते थे। लेकिन समय के साथ यह तस्वीर बदलने लगी है। शिक्षा, सामाजिक जागरूकता और स्वरोज़गार योजनाओं ने महिलाओं को न केवल आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि उन्होंने अब खुद कमाना और अपने निर्णय लेना शुरू कर दिया है।
आज, रामपुर की कई महिलाएं सिलाई, कढ़ाई, छोटी दुकानों, टिफ़िन सेवाओं (Tiffin Service) और कृषि संबंधी कामों में सक्रिय रूप से भागीदारी कर रही हैं। शहरी क्षेत्र की महिलाएं जहां शैक्षिक योग्यता के आधार पर निजी या सरकारी नौकरियों की ओर अग्रसर हो रही हैं, वहीं ग्रामीण महिलाएं स्वयं सहायता समूहों के ज़रिए स्वरोज़गार की दिशा में बढ़ रही हैं। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक रूप से भी गहराई से जुड़ा है क्योंकि इससे महिलाओं की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में भी सुधार आया है। वे अब सलाहकार की भूमिका में हैं, निर्णय लेने वाली हैं, और अपने बच्चों की शिक्षा से लेकर घर के बजट (budget) तक को नियंत्रित कर रही हैं।

महिला प्रवास के बदलते कारण और आर्थिक अवसरों की खोज
पहले महिला प्रवास का मुख्य कारण विवाह हुआ करता था—लड़कियां अपने पति के साथ नए स्थान पर बस जाती थीं। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। रामपुर की महिलाएं आज शिक्षा, नौकरी और आर्थिक अवसरों की तलाश में अकेले या समूहों में भी प्रवास कर रही हैं। यह प्रवास अब केवल सामाजिक रीति-रिवाज़ का हिस्सा नहीं बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता की दिशा में उठाया गया साहसिक कदम है।
भारत की जनगणना (1971-2001) के अनुसार, महिला प्रवासियों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है।2001 में यह संख्या 218.7 लाख तक पहुँच गई थी, जबकि 1971 में यह मात्र 110 लाख थी। यह दर्शाता है कि महिलाएं अब केवल परिवार का अनुसरण करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी इच्छा और जरूरतों के लिए भी स्थान बदल रही हैं। रामपुर की कई महिलाएं महानगरों की ओर घरेलू काम, केयर वर्क (Care Work), या फैक्ट्री (Factory) आधारित रोजगार के लिए जा रही हैं। यह आर्थिक पहल उन्हें आत्मनिर्भर ही नहीं बनाता, बल्कि उनके परिवारों को भी आर्थिक सहारा देता है। हालांकि यह यात्रा आसान नहीं होती—पर यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और बदलती मानसिकता का प्रमाण है।

महिला श्रमिकों की चुनौतियाँ और श्रम भागीदारी दर में बदलाव
महिला प्रवासी श्रमिकों को जहां एक ओर आर्थिक स्वतंत्रता का रास्ता दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। रामपुर की महिलाएं जो बाहर काम के लिए जाती हैं, उन्हें कई बार वेतन में भेदभाव, सुरक्षित आवास की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता, और यौन शोषण तक की जोखिमों का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, परिवार से दूरी और बच्चों की ज़िम्मेदारी का बोझ उन्हें मानसिक रूप से भी प्रभावित करता है।
भारत में महिला श्रम भागीदारी दर में वर्षों से उतार-चढ़ाव रहा है। 1990 में यह दर 30.2% थी, जो 2018 तक घटकर 17.5% रह गई। हालांकि 2020-21 की रिपोर्ट (report) बताती है कि यह दर फिर से बढ़कर 24.8% तक पहुँची, जो एक सकारात्मक संकेत है। इस सुधार में महिला सशक्तिकरण योजनाएं, स्वरोज़गार के अवसर, और औद्योगिक विकास की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। रामपुर में भी सरकार द्वारा चलाई जा रही कौशल विकास योजनाएं और महिला उद्यमिता को प्रोत्साहन देने वाले कार्यक्रम इस दर को बढ़ाने में मददगार साबित हो रहे हैं।

कार्यस्थल पर महिलाओं से जुड़े मिथक और उनकी सच्चाई
समाज में महिलाओं के बारे में कई ऐसे मिथक (गलत धारणा) हैं जो उनके आत्मविश्वास, क्षमता और नेतृत्व को कमतर आँकते हैं। लेकिन महिलाएं इन मिथकों को हर दिन तोड़ रही हैं। पहला मिथक है कि महिलाएं पुरुषों जितनी महत्वाकांक्षी नहीं होतीं, जबकि सच्चाई यह है कि महिलाएं अपने करियर (career) को लेकर उतनी ही गंभीर होती हैं, लेकिन उन्हें रास्ते में ज़्यादा बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
दूसरा मिथक यह है कि महिलाएं अच्छी वार्ताकार नहीं होतीं, जबकि शोध बताते हैं कि महिलाएं जब दृढ़ता से बातचीत करती हैं तो उन्हें अधिक आलोचना झेलनी पड़ती है। तीसरा मिथक है कि महिलाएं आत्मविश्वास में पुरुषों से पीछे होती हैं, जबकि कई बार वे आत्मविश्वास तो दिखाती हैं, लेकिन उन्हें 'घमंडी' करार दिया जाता है। चौथा और सबसे प्रचलित मिथक है कि महिलाएं काम के प्रति उतनी प्रतिबद्ध नहीं होतीं। लेकिन महिलाएं खेत, कार्यालय और व्यवसायिक मंचों पर लगातार यह साबित कर रही हैं कि वे भी पुरुषों की तरह पूरी निष्ठा से काम करती हैं। महिलाएं अब पंचायतों, विद्यालयों, व्यापारिक संस्थाओं और सामाजिक संगठनों में प्रभावशाली नेतृत्व की मिसाल पेश कर रही हैं।
संदर्भ-
रामपुरवासियों, सुरंगों की दुनिया से जुड़ी एक सच्चाई जो जानना है ज़रूरी
खदान
Mines
29-07-2025 09:32 AM
Rampur-Hindi

रामपुर, जो अपनी तहज़ीब, उर्दू अदब और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए प्रसिद्ध है, वहां के निवासी आजकल देशभर में हो रही तकनीकी और सामाजिक चर्चाओं से जुड़ना चाहते हैं। नवंबर 2023 में उत्तराखंड की एक सुरंग में 41 श्रमिकों के फंसने की खबर ने पूरे देश को झकझोर दिया। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि उन्हें निकालने के लिए एक पारंपरिक और बेहद खतरनाक तकनीक का इस्तेमाल किया गया — रैट-होल खनन। यह शब्द सुनते ही कई लोगों को मेघालय की खदानों की याद आती है, लेकिन अब यह चर्चा राष्ट्रीय फलक पर है। इस लेख के माध्यम से, रामपुर जैसे संवेदनशील और शिक्षित शहर के नागरिकों के लिए यह जानना ज़रूरी है कि यह तकनीक क्या है, क्यों खतरनाक है, और भविष्य में इसका क्या स्थान हो सकता है।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि रैट-होल खनन वास्तव में क्या है और इसे "चूहे का बिल" क्यों कहा जाता है। इसके बाद हम मेघालय राज्य में इस तकनीक के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों का विश्लेषण करेंगे। फिर हम देखेंगे कि कैसे न्यायालयों ने इस पर प्रतिबंध लगाया और फिर वैज्ञानिक तरीके से अनुमति दी। इसके बाद हम बात करेंगे टिकाऊ विकास की दिशा में वैज्ञानिक खनन की प्रगति की, और अंत में चर्चा करेंगे कि अवैध खनन के खिलाफ सरकारी प्रयासों में क्या चूकें रह गई हैं।
क्या है रैट-होल खनन? एक जोखिम भरी पारंपरिक विधि
रैट-होल खनन (Rat Hole mining) एक ऐसी पारंपरिक तकनीक है जो न तो आधुनिक मानकों पर खरी उतरती है, और न ही श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है। इस प्रक्रिया में ज़मीन में बेहद संकरे और गहरे गड्ढे खोदे जाते हैं जो देखने में किसी चूहे के बिल जैसे लगते हैं, इसलिए इसे ‘रैट-होल’ कहा जाता है। इनमें केवल एक इंसान ही घुस सकता है और वही अकेले अंदर जाकर कोयला निकालता है। यह प्रक्रिया न तो ऑक्सीजन सप्लाई सुनिश्चित करती है और न ही इसमें वेंटिलेशन, ढलान सुरक्षा, सीमेंटिंग या गैस रिसाव के प्रति कोई पूर्व चेतावनी प्रणाली होती है। एक मामूली चूक भी ज़िंदगी पर भारी पड़ सकती है। इतना ही नहीं, बाल श्रमिकों और गरीब परिवारों के युवाओं को अक्सर मजबूरी में इस जोखिम भरे कार्य में उतारा जाता है।
इस प्रकार की खनन तकनीकें आधुनिक भारत के लिए न केवल चुनौती हैं, बल्कि हमारे नैतिक मूल्यों की कसौटी भी हैं। यह खनन न सिर्फ श्रमिकों की जान जोखिम में डालती है, बल्कि यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या विकास के नाम पर इंसानी जीवन को दांव पर लगाना जायज़ है? रामपुर जैसे शहरों में, जहाँ शिक्षा और सुरक्षा को गहराई से समझा और महत्व दिया जाता है, वहाँ यह आवश्यक है कि हम ऐसी असुरक्षित प्रणालियों पर खुलकर चर्चा करें और उन्हें बदलने की पहल करें।

मेघालय में रैट-होल खनन: सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव
मेघालय का खनिजों से समृद्ध क्षेत्र, विशेषकर जैन्तिया, खासी और गारो हिल्स, रैट-होल खनन के लिए कुख्यात है। इस प्रक्रिया से वहां के कई स्थानीय आदिवासी समुदायों की जीविका जुड़ी रही है। ये समुदाय अपने पारंपरिक अधिकारों के तहत भूमि और उसके नीचे स्थित कोयले पर स्वामित्व जताते हैं और इसी कारण उन्होंने वर्षों से बिना सरकारी हस्तक्षेप के यह कार्य किया। लेकिन इस तकनीक ने न केवल श्रमिकों की जान को खतरे में डाला है, बल्कि पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान पहुँचाया है। नदी जल में एसिडिक प्रदूषण, वनों की कटाई, मृदा क्षरण और स्थानीय जैव विविधता पर असर — ये सब इसके पर्यावरणीय प्रभाव हैं। इसके अलावा, बाल मजदूरी, स्वास्थ्य संकट और सामाजिक शोषण की खबरें भी बार-बार सामने आती रही हैं। समस्या यह नहीं कि लोग अपनी भूमि से लाभ उठाना चाहते हैं, बल्कि यह है कि यह लाभ एक खतरनाक और अस्थायी व्यवस्था पर टिका हुआ है। मेघालय की कई नदियाँ अब जहरीले जल की वाहक बन चुकी हैं, जिससे वहाँ के मछलीपालक और किसान भी प्रभावित हुए हैं।
रैट-होल खनन पर लगे प्रतिबंध और न्यायिक हस्तक्षेप
2014 में जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने रैट-होल खनन पर रोक लगाई, तो इसके पीछे मानवाधिकार और पर्यावरणीय सुरक्षा का सवाल प्रमुख था। इसके बावजूद यह प्रक्रिया छिप-छिपाकर चलती रही, क्योंकि स्थानीय स्वामित्व और भूमि अधिकारों की वजह से नियंत्रण मुश्किल रहा। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस तकनीक पर दोबारा विचार किया और यह माना कि अगर इसे वैज्ञानिक ढंग से नियंत्रित किया जाए तो खनन किया जा सकता है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार को मिलकर एक समुचित नीति बनाने का निर्देश दिया। इसमें शर्त यह थी कि श्रमिकों की सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण और निगरानी व्यवस्था को सुनिश्चित किया जाए। यह निर्णय केवल एक तकनीकी मार्गदर्शन नहीं था, बल्कि यह एक संविधानिक विवेक का उदाहरण भी है जहाँ मानव अधिकार, स्थानीय परंपराएँ और पर्यावरणीय संतुलन — तीनों को साथ रखने की कोशिश की गई। रामपुर जैसे स्थान, जहाँ नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समान रूप से समझते हैं, वहाँ यह संदेश विशेष महत्व रखता है कि न्याय केवल दंड नहीं, दिशा भी देता है। हमें आवश्यकता है ऐसी न्यायिक समझ को जनचेतना में बदलने की।

वैज्ञानिक कोयला खनन: टिकाऊ विकास और प्रौद्योगिकी का नया रास्ता
रैट-होल खनन के स्थान पर वैज्ञानिक खनन को अपनाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है। इसमें ऐसे तकनीकी उपाय शामिल हैं जो न केवल कोयले के निष्कर्षण को कुशल बनाते हैं, बल्कि श्रमिकों और पर्यावरण को भी सुरक्षा प्रदान करते हैं। रिमोट सेंसिंग (remote sensing), 3D मॉडलिंग (3D modeling), स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग (structural engineering), और जीपीएस (GPS) आधारित ट्रैकिंग सिस्टम (tracking system) जैसे उपाय आज खनन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और सुरक्षित बनाते हैं। केंद्र सरकार ने मेघालय में चार वैज्ञानिक खनन परियोजनाओं को अनुमति दी है, जिससे स्थानीय रोजगार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं को वित्तीय सहायता मिल सके। लेकिन इस बदलाव को केवल नीति में नहीं, संस्कृति में भी उतारने की आवश्यकता है। स्थानीय श्रमिकों को तकनीकी प्रशिक्षण देना, आधुनिक यंत्रों से परिचित कराना और सुरक्षा गियर को अनिवार्य बनाना — यह सब उस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। रामपुर, जहाँ की युवा पीढ़ी तकनीकी कौशल में तेजी से आगे बढ़ रही है, वह इस प्रकार की प्रौद्योगिकी आधारित योजना को प्रेरणा की दृष्टि से देख सकती है।
अवैध खनन और सरकारी नीति की विफलताएँ
हालांकि नीति और कानून की दृष्टि से कई सुधार हुए हैं, फिर भी मेघालय में अवैध खनन का जाल पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया है। 2022 में गठित एक विशेष समिति ने रिपोर्ट दी कि ईस्ट जैन्तिया हिल्स जैसे इलाकों में अब भी ताज़ा कोयला खुले में डंप किया जा रहा है। राजमार्गों के किनारे वेट ब्रिजों के पास भारी मात्रा में बिना लाइसेंस खनन किया हुआ कोयला देखा गया, जो यह दर्शाता है कि स्थानीय प्रशासन और परिवहन नियंत्रण प्रणाली में गंभीर कमियाँ हैं। यह केवल प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक स्वीकृति की भी समस्या है, जहाँ नियमों के उल्लंघन को नजरअंदाज किया जाता है। ज़रूरत है कि निगरानी को सिर्फ़ कैमरों और रिपोर्टों तक सीमित न रखा जाए, बल्कि स्थानीय समुदायों की भागीदारी और जवाबदेही को भी सुनिश्चित किया जाए। रामपुर जैसे शहर, जहाँ नागरिक जागरूकता और जनसहभागिता पर ज़ोर दिया जाता है, वह इस मॉडल को पूरे देश में एक आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।
संदर्भ-
रामपुरवासियों, जानिए कैसे बदलती रही है अखबारों की दुनिया सदियों से
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
28-07-2025 09:29 AM
Rampur-Hindi

रामपुरवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि जो अख़बार हर सुबह आपके दरवाज़े पर बड़ी नियमितता से पहुंचता है, उसकी शुरुआत आखिर कब और कैसे हुई होगी? हमारे रामपुर की गलियों में अब भी सुबह की पहली चाय के साथ अख़बार पढ़ने की परंपरा ज़िंदा है—कोई राजनीति के पन्ने पलटता है, कोई खेल के समाचार खोजता है, और कोई संपादकीय में छिपी सामाजिक अंतर्दृष्टियों को पढ़ता है। यह केवल एक सूचना का साधन नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही एक आदत, एक संवाद का माध्यम और एक सामाजिक दर्पण बन चुका है। रामपुर जैसी ज़हीन और साहित्यिक विरासत रखने वाली ज़मीन पर, जहाँ रज़ा लाइब्रेरी जैसे संस्थान ज्ञान की मिसाल हैं, वहाँ अख़बार की भूमिका हमेशा से गहरी रही है। पहले जब टेलीविज़न आम नहीं था और इंटरनेट का नाम भी अनजाना था, तब यही अख़बार लोगों के विचारों को दिशा देते थे, आंदोलनों को जन्म देते थे और जनचेतना की मशाल जलाते थे। आज जब मोबाइल की स्क्रीनों पर ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ की बाढ़ आई है, तब भी रामपुर के कई बुज़ुर्गों और युवाओं को सुबह अख़बार की स्याही से भरी खुशबू में एक सुकून, एक आत्मीयता महसूस होती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि समाचार पत्रों की शुरुआत रोमन साम्राज्य के 'एक्टा डिउरना' से कैसे हुई और यूरोप की मुद्रण क्रांति ने उन्हें नया जीवन कैसे दिया। फिर हम भारत में हिक्की की गज़ेट से शुरू हुई पत्रकारिता की क्रांतिकारी भूमिका को समझेंगे। इसके साथ ही हम देखेंगे कि समाचार पत्रों ने भारतीय समाज में जानकारी, शिक्षा और जनमत निर्माण में कैसी भूमिका निभाई। अंत में, हम डिजिटल युग में समाचार पत्रों की बदलती पहचान और उनके भविष्य की दिशा पर भी विचार करेंगे।
समाचार पत्रों की उत्पत्ति और लिखित समाचार का आरंभिक इतिहास
समाचार पत्रों की शुरुआत का इतिहास सदियों पुराना है। 59 ईसा पूर्व में रोमन साम्राज्य ने एक्टा डिउरना (Acta Diurna) नामक एक शिलालेख पर आधारित समाचार सेवा शुरू की थी, जिसे सार्वजनिक रूप से रोमन फोरम में लगाया जाता था। इसमें सैनिक अभियानों, राजनीतिक निर्णयों और सार्वजनिक घटनाओं की जानकारी दी जाती थी। यह दुनिया का पहला लिखित समाचार माध्यम था। हालाँकि, यह केवल उच्च वर्ग और शासकों के लिए सुलभ था। आमजन तक खबरें पहुंचाने की व्यवस्था नहीं थी। लेकिन इसने एक नींव रखी कि समाचारों को संकलित कर जनता तक पहुँचाना समाज के लिए कितना आवश्यक है। इसके बाद मध्यकालीन चीन में तांग वंश के दौरान काओ बाओ (Kaiyuan Za Bao) नामक राजकीय बुलेटिन का प्रयोग हुआ जो रेशमी कपड़े पर लिखा जाता था। यह भी मुख्यतः अधिकारियों के लिए था, न कि आम जनता के लिए। इन शुरुआती प्रयासों ने भविष्य के समाचार पत्रों की परिकल्पना को जन्म दिया, जहाँ जानकारी को सहेजने, प्रसारित करने और जनहित में प्रस्तुत करने की परंपरा की शुरुआत हुई।
मुद्रण क्रांति और यूरोप में आधुनिक समाचार पत्रों का विकास
1605 में जर्मनी के स्ट्रासबर्ग शहर में जोहान कैरोलस ने रिलेशन एलर फुरनेमेन अंड गेडेनकवुर्डिगेन हिस्टोरियन (Relation aller Fürnemmen und gedenckwürdigen Historien) नामक पहला मुद्रित समाचार पत्र प्रकाशित किया, जिसे आधुनिक पत्रकारिता का प्रारंभ माना जाता है। यह अखबार साप्ताहिक था और इसमें व्यापारी वर्ग, रॉयल कोर्ट्स और साम्राज्य से संबंधित जानकारियाँ होती थीं। 17वीं से 19वीं सदी के बीच समाचार पत्रों की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ने लगी। मुद्रण तकनीक के सुधार, पेपर की उपलब्धता, और वितरण चैनलों की स्थापना ने समाचार पत्रों को व्यापक वर्ग तक पहुँचाया। 18वीं शताब्दी में अखबारों में विज्ञापन छपने लगे जिससे लागत कम हो गई और आम लोगों की पहुँच में यह आ गया। 19वीं सदी आते-आते टेलीग्राम, टेलीफोन और रेलवे जैसे साधनों के कारण अखबारों में तेज़ी से समाचारों का संकलन और वितरण होने लगा। यूरोप और अमेरिका में अखबारों ने सरकार, व्यापार और जनता के बीच सूचना का सेतु बनने की भूमिका निभाई। यह वह दौर था जब अखबार एक व्यापारिक उद्योग के रूप में उभरे।
भारत में समाचार पत्रों का आगमन और औपनिवेशिक युग की पत्रकारिता
भारत में समाचार पत्रों की शुरुआत 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा प्रकाशित 'द बंगाल गज़ेट' से हुई। यह ब्रिटिश शासन में प्रकाशित पहला अखबार था। इसके बाद 'इंडियन गज़ेट', 'मद्रास कूरियर', और 'बॉम्बे हेराल्ड' जैसे अंग्रेज़ी अखबार सामने आए। प्रारंभिक काल में ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर कड़ा नियंत्रण रखा और कई बार राष्ट्रवादी विचारों वाले लेखों को सेंसर या प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन फिर भी पत्रकारिता ने भारत में सामाजिक चेतना फैलाने का कार्य शुरू कर दिया। राजा राममोहन राय ने 1822 में 'संवाद कौमुदी' (बंगाली) और 'मिरात-उल-अखबार' (फ़ारसी) जैसे अखबारों से जनजागरण की शुरुआत की। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 की आज़ादी तक, समाचार पत्रों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज़ उठाई। केसरी, मराठा, यंग इंडिया, हरिजन, और नेशनल हेराल्ड जैसे समाचार पत्रों ने राजनीतिक चेतना को विस्तार दिया। यह वह युग था जब पत्रकारिता मिशन के रूप में देखी जाती थी।
भारतीय समाज में समाचार पत्रों की सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक भूमिका
रामपुर जैसे शहरों में आज भी अखबार सुबह की चाय का हिस्सा होते हैं। समाचार पत्र सिर्फ खबरें नहीं देते, वे समाज को शिक्षित करते हैं, सोचने की दिशा देते हैं और लोगों को जागरूक बनाते हैं। भारतीय समाज में समाचार पत्रों की भूमिका केवल सूचनात्मक नहीं बल्कि परिवर्तनकारी रही है। स्कूल और कॉलेजों में छात्रों के लिए करंट अफेयर्स का स्रोत, नौकरी के इच्छुक युवाओं के लिए रोजगार विज्ञापन, किसानों के लिए मौसम और मंडी भाव की जानकारी—हर वर्ग को समाचार पत्र कुछ न कुछ देता है। इसके अलावा अखबारों ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों, साहित्य, कला, और क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अखबारों के विशेषांक, संपादकीय, पत्र-से-सम्पादक और फीचर लेखों के माध्यम से जनमत तैयार होता है और लोकतंत्र को मजबूती मिलती है।

डिजिटल युग में समाचार पत्रों की प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा
21वीं सदी में स्मार्टफोन और इंटरनेट की क्रांति ने समाचारों की दुनिया बदल दी है। रामपुर जैसे शहरों में भी अब युवा मोबाइल ऐप्स, वेबसाइट्स और सोशल मीडिया पर खबरें पढ़ना पसंद करते हैं। ट्राई की एक रिपोर्ट के अनुसार, रामपुर क्षेत्र में 4.8 लाख से अधिक इंटरनेट कनेक्शन हैं—जिससे यह स्पष्ट है कि प्रिंट मीडिया की प्रतिस्पर्धा अब डिजिटल मीडिया से है। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं कि समाचार पत्र अप्रासंगिक हो गए हैं। कई प्रमुख अखबार अब डिजिटल रूप में उपलब्ध हैं, वे एप्स, ई-पेपर और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय हैं। साथ ही, डिजिटल समाचार पत्रों ने विश्लेषणात्मक लेखों और डेटा पत्रकारिता जैसे नए आयामों को जन्म दिया है। भविष्य में अखबार एक मल्टी-मोडल मंच के रूप में विकसित हो सकते हैं, जहाँ प्रिंट और डिजिटल दोनों माध्यमों का समन्वय होगा। लेकिन पाठकों का विश्वास और तथ्य आधारित पत्रकारिता ही इसकी सबसे बड़ी पूंजी बनी रहेगी।
संदर्भ-
रामपुर: नवाबी तहज़ीब, ऐतिहासिक विरासत और सांस्कृतिक सौहार्द की ज़मीन
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
27-07-2025 09:28 AM
Rampur-Hindi

रामपुर उत्तर प्रदेश का एक ऐतिहासिक नगर है, जिसकी गाथा सदियों पुरानी है। यह नगर कभी राजपूतों, रोहिलाओं और नवाबों का गौरवशाली केंद्र रहा है। रामपुर की मिट्टी में इतिहास की सुगंध, संस्कृति की गहराई और परंपरा की मिठास आज भी बसी हुई है। प्राचीन समय में रामपुर को "काठेर" कहा जाता था। रोहिलाओं ने रामपुर को अपनी राजधानी बनाया और इसे "रोहिलखंड" नाम दिया गया। इस समय में रामपुर ने राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। जब मराठों ने वर्ष 1772 में रोहिलखंड पर हमला किया, तब रोहिलाओं ने अवध के नवाब से सहायता माँगी, और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की मदद से यहाँ युद्ध हुआ।
पहली वीडियो में हम रामपुर रियासत के इतिहास को समझने का प्रयास करेंगे।
नीचे दी गई वीडियो के माध्यम से हम रामपुर की कुछ पुरानी झलकियां देखेंगे।
वर्ष 1774 में नवाब फैज़ुल्ला ख़ाँ ने रामपुर रियासत की स्थापना की। उन्होंने इस नगर का नाम "मुस्तफ़ाबाद" रखा, लेकिन यह आम बोलचाल में "रामपुर" ही कहलाता रहा। नवाब फैज़ुल्ला ख़ाँ एक विद्वान और कला-संरक्षक शासक थे। उन्होंने अनेक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथ एकत्र किए, जो आज रामपुर की शान — रामपुर रज़ा पुस्तकालय — में सुरक्षित हैं। नवाब कल्ब अली ख़ाँ ने अपनी विद्वता और प्रशासनिक कौशल से रामपुर को एक सांस्कृतिक केंद्र बनाया। उन्होंने जामा मस्जिद का निर्माण कराया और पुस्तकालय के संग्रह को और समृद्ध किया। नवाबों ने भारतीय स्थापत्य कला और यूरोपीय वास्तुकला का अनूठा संगम रामपुर की इमारतों में दिखाया।
ब्रिटिश शासन के समय भी रामपुर की स्थिति विशेष बनी रही। नवाबों ने ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग बनाए रखा, जिससे रामपुर में विद्यालयों, महलों, उद्यानों और सार्वजनिक भवनों का निर्माण हुआ। यह रियासत अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक चेतना के लिए जानी जाती रही। स्वतंत्रता के पश्चात 15 अगस्त 1947 को रामपुर भारत का पहला रियासत था, जिसने स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में विलय स्वीकार किया। 26 जनवरी 1950 में यह संयुक्त प्रांतों में सम्मिलित हुआ। यद्यपि नवाबों से राजसत्ता छीन ली गई, लेकिन उनकी संस्कृति, विद्वता और जनसेवा की परंपरा आज भी यहाँ जीवित है।
रामपुर केवल एक नगर नहीं है, यह भारत की साझा संस्कृति, साहित्यिक गहराई, और सौहार्द की जीवंत मिसाल है।
नीचे दी गई वीडियो में हम रामपुर शहर की एक झलक देखेंगे।
संदर्भ-
सर्दियों की गर्मी या पर्यावरण पर बोझ? जानिए कोयले के लाभ-हानि की पूरी कहानी
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
26-07-2025 09:25 AM
Rampur-Hindi

रामपुर, मुरादाबाद, कानपुर जैसे उत्तर भारत के शहरों और आस-पास के गाँवों में सर्दी के मौसम में अलाव के पास बैठकर कोयले की गर्माहट लेना अब भी एक आम दृश्य है। वहीं, ग्रामीण घरों की रसोई में आज भी कोयले की अंगीठी में रोटी सेंकती माँ या दादी की छवि हमें हमारी जड़ों की याद दिलाती है। लेकिन आज जब दुनिया जलवायु संकट से गुजर रही है और हरित ऊर्जा की ओर बढ़ रही है, तो यह जरूरी हो गया है कि हम कोयले के फायदे और नुकसान दोनों को समझें। क्या यह सदियों पुराना ईंधन आज भी हमारे लिए सही विकल्प है?
इस लेख में हम कोयले की उपयोगिता और उससे जुड़े पर्यावरणीय तथा स्वास्थ्य प्रभावों को गहराई से जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम ग्रामीण जीवन में इसके पारंपरिक उपयोग को समझेंगे। फिर, कोयले के वैश्विक भंडार, इसके प्रकार और ऊर्जा दक्षता पर नजर डालेंगे। इसके बाद हम जानेंगे कि यह स्वास्थ्य और पर्यावरण पर कितना गहरा प्रभाव डालता है। लेख में हम एन्थ्रेसाइट (anthracite) कोयले जैसे “स्वच्छ विकल्पों” पर भी बात करेंगे और अंत में वैश्विक ईंधन बदलाव की दिशा में हो रहे प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
ग्रामीण जीवन में कोयले की पारंपरिक भूमिका और व्यापक उपयोग
भारत के गाँवों में कोयले का उपयोग केवल ईंधन भर नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी एक अभिन्न हिस्सा रहा है। ठंडी सुबहों में अंगीठी के चारों ओर बैठकर कोयले की गर्मी लेना, लोगों के आपसी संवाद और सामूहिकता को भी बढ़ाता है। कई क्षेत्रों में आज भी कोयले पर बनी रोटियों का स्वाद विशेष माना जाता है। इसके अलावा, कोयले की सहायता से दूध गर्म करना, चाय बनाना या धीमी आँच पर दाल पकाना एक पारंपरिक घरेलू परंपरा बनी हुई है। जिन घरों में बिजली या एलपीजी (LPG) की सुविधा नहीं है, वहाँ कोयला ही जीवनरेखा है। इसके सस्तेपन और लंबी अवधि तक जलने की विशेषता ने इसे गरीब और निम्न आयवर्ग के लिए प्राथमिक विकल्प बना दिया है। कई गरीब परिवारों के लिए कोयला इसलिए भी उपयोगी है क्योंकि वह गीले मौसम में भी आसानी से जल सकता है, जो लकड़ी से संभव नहीं हो पाता। कुछ इलाकों में कोयला बेचने का छोटा व्यवसाय भी होता है, जिससे कई ग्रामीणों को आय का स्रोत प्राप्त होता है। स्कूलों, पंचायत कार्यालयों, दुकानों और चाय की टपरियों तक में सर्दियों में कोयले की अंगीठियाँ देखी जा सकती हैं। इस प्रकार, कोयला केवल ऊर्जा नहीं, बल्कि ग्रामीण जीवन की दिनचर्या का एक आधार है।
कोयले के प्रकार, भंडार और वैश्विक उपयोग का परिप्रेक्ष्य
कोयला प्राकृतिक संसाधनों में सबसे पुराना और व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला जीवाश्म ईंधन है। इसे इसके कार्बन सामग्री और ऊष्मा उत्पादन क्षमता के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में बाँटा गया है — लिग्नाइट (Lignite), बिटुमिनस (Bituminous), एन्थ्रेसाइट आदि। एन्थ्रेसाइट कोयला सबसे उच्च गुणवत्ता वाला होता है, जिसमें जलने पर सबसे अधिक ऊर्जा मिलती है और प्रदूषण कम होता है। भारत के झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में कोयले के सबसे बड़े भंडार स्थित हैं। वैश्विक स्तर पर अमेरिका, चीन और भारत प्रमुख उत्पादक हैं। चीन में कोयला बिजली उत्पादन के लिए सबसे प्रमुख स्रोत है। वहीं अमेरिका अब वैकल्पिक ऊर्जा की ओर बढ़ चुका है लेकिन वहाँ अब भी भारी उद्योगों में कोयले की मांग बनी हुई है। भारत में थर्मल पावर स्टेशनों के लिए कोयला मुख्य ईंधन है। वर्ष 2024 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल बिजली उत्पादन का 52% हिस्सा कोयले पर आधारित है। इसके अतिरिक्त, कुछ देशों में घरेलू उपयोग के लिए स्थानीय स्तर पर भी कोयला उपलब्ध कराया जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोयले का व्यापार और निर्यात भी बड़े पैमाने पर होता है, जिससे इसकी भूमिका केवल घरेलू ही नहीं, वैश्विक ऊर्जा अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

कोयले के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभाव: एक अदृश्य खतरा
कोयला जलने से निकलने वाले उत्सर्जनों में कई प्रकार के खतरनाक रसायन होते हैं, जिनमें कार्सिनोजेनिक (carcinogenic) पदार्थ, पारा (mercury), आर्सेनिक (arsenic), सीसा, सेलेनियम (selenium)और सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) प्रमुख हैं। ये पदार्थ मानव शरीर में जाकर साँस की बीमारियाँ, हृदय रोग और कैंसर जैसी घातक समस्याएँ उत्पन्न कर सकते हैं। विशेष रूप से महिलाएँ और छोटे बच्चे, जो रसोई में अधिक समय बिताते हैं, इसके प्रभाव में जल्दी आ जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, विश्वभर में लाखों लोग घरेलू कोयले के धुएँ के कारण इनडोर एयर पॉल्यूशन (indoor air pollution) का शिकार होते हैं। कोयला जलने से कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) का उत्सर्जन भी अत्यधिक होता है, जो ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) के स्तर को बढ़ाकर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) को गति देता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, बीते 150 वर्षों में CO₂ का स्तर 265 PPM से बढ़कर 400+ PPM तक पहुँच चुका है — और इसका एक प्रमुख कारण कोयले का उपयोग ही है। यह न केवल जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है, बल्कि इससे प्राकृतिक आपदाओं, फसल की असफलता और जल संकट जैसी समस्याएं भी जुड़ी हैं। जंगलों और ग्लेशियरों (glaciers) पर भी इसका सीधा असर देखा गया है। इतना ही नहीं, कोयले की खदानों और खनन क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिक भी अक्सर सांस संबंधी रोगों और त्वचा संक्रमणों से पीड़ित होते हैं। कुल मिलाकर, कोयले का दुष्प्रभाव केवल व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रहता, यह पूरे पर्यावरण और समाज को प्रभावित करता है।
एन्थ्रेसाइट कोयला: कोयले का स्वच्छ विकल्प या भ्रम?
एन्थ्रेसाइट कोयला अन्य कोयलों की तुलना में अधिक परिष्कृत और स्वच्छ माना जाता है। इसमें स्थिर कार्बन (carbon) की मात्रा अधिक होती है, जिससे यह जलते समय अधिक ऊष्मा देता है और धुआं बहुत कम निकलता है। इसके जलने से कणीय उत्सर्जन (Particulate Matter) भी काफी कम होता है, जिससे इनडोर वायु गुणवत्ता (indoor air quality) बेहतर बनी रहती है। यह विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में लोकप्रिय है, जहाँ लोग पर्यावरणीय स्वास्थ्य के प्रति अधिक सजग हैं। इसका उपयोग छोटे हीटिंग सिस्टम (heating system), भट्ठियों और घरेलू अंगीठियों में किया जाता है। हालांकि, एन्थ्रेसाइट कोयले को "स्वच्छ" कहना एक सीमित अवधारणा है, क्योंकि यह भी अंततः एक जीवाश्म ईंधन ही है और इसमें CO₂ उत्सर्जन तो होता ही है। कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि इसे "कम नुकसानदेह" तो कहा जा सकता है, पर "स्वस्थ विकल्प" नहीं। इसके अलावा, यह अन्य कोयलों की तुलना में महंगा होता है, जिससे गरीब वर्ग के लिए इसकी सुलभता सीमित रहती है। कुछ क्षेत्रों में इसकी उपलब्धता भी समस्या बनी हुई है, जिससे इसकी आपूर्ति असंतुलित हो सकती है। यही कारण है कि सरकारें अब एन्थ्रेसाइट को केवल एक अंतरिम समाधान मान रही हैं, और दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ रही हैं।

ऊर्जा संक्रमण और कोयले से दूर जाने की वैश्विक प्रवृत्ति
विकसित और विकासशील देशों में अब कोयले से दूर जाने की एक वैश्विक प्रवृत्ति तेजी से उभर रही है, जिसे फ्यूल स्विचिंग (Fuel Switching) के रूप में जाना जाता है। इसके तहत पारंपरिक कोयले से हटकर लोग एलपीजी, बायोगैस (biogas), बिजली और सौर ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ईंधनों की ओर बढ़ रहे हैं। वर्ष 1990 के बाद से आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) देशों में आवासीय कोयले की खपत में 70% तक की गिरावट दर्ज की गई है। भारत में भी उज्ज्वला योजना जैसी सरकारी पहलों ने ग्रामीण महिलाओं को एलपीजी से जोड़ा है, जिससे कोयले पर निर्भरता घटी है। संयुक्त राष्ट्र और आईईए (IEA) जैसी संस्थाएँ भी देशों को ऊर्जा संक्रमण की दिशा में नीतिगत सहायता प्रदान कर रही हैं। वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लिए पेरिस समझौते जैसे प्रयास हो रहे हैं, जिनका लक्ष्य 2050 तक शुद्ध-शून्य (Net Zero) उत्सर्जन प्राप्त करना है। तकनीकी स्तर पर भी अब स्वच्छ ऊर्जा संसाधनों की कीमतें कम हो रही हैं, जिससे आम लोग भी इनका उपयोग कर पा रहे हैं। स्कूलों, अस्पतालों और शहरी रसोईघरों में अब सौर हीटर और इंडक्शन कुकिंग (induction cooking) जैसी विधियाँ लोकप्रिय हो रही हैं। यह बदलाव न केवल पर्यावरण के लिए हितकारी है, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टिकोण से भी टिकाऊ है। सरकारों, उद्योगों और समाज को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि कोयले से दूर जाने का यह परिवर्तन समावेशी और न्यायसंगत हो।
संदर्भ -
रामपुरवासियों, क्या आपने कभी सुना है सड़े मांस जैसी गंध वाले फूलों के बारे में?
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25-07-2025 09:38 AM
Rampur-Hindi

रामपुर की आबोहवा जहाँ गुलाब, बेला और मोगरे जैसी महकती खुशबू से पहचानी जाती है, वहाँ से दूर, विश्व के कुछ हिस्सों में ऐसे भी फूल पाए जाते हैं जो सड़े हुए मांस की बदबू से जाने जाते हैं—वो भी विशालकाय आकार में! इन फूलों में न तो सौंदर्य की पारंपरिक परिभाषा है और न ही मनभावन सुगंध, परंतु ये जैविक दृष्टिकोण से इतने अद्वितीय हैं कि वैज्ञानिकों को दशकों से अचंभित कर रहे हैं। आज का यह लेख आपको रैफ्लेसिया (Rafflesia) और कॉर्प्स फ्लावर (Corpse Flower) जैसे दुर्लभ, आश्चर्यजनक और कभी-कभार ही खिलने वाले फूलों की रोमांचक दुनिया से परिचित कराएगा। आइए जानें इनके विशाल आकार, विचित्र गंध, जीनोमिक (Genomic) रहस्यों और लुप्तप्राय स्थिति के बारे में।
इस लेख में हम सबसे पहले रैफ्लेसिया नामक परजीवी पौधे की अद्भुत बनावट और उसके फूल की विशेषताओं पर प्रकाश डालेंगे, जो वनस्पति जगत के सबसे रहस्यमय जीवों में से एक माना जाता है। इसके बाद हम जानेंगे कि रैफ्लेसिया के जीनोम में वैज्ञानिकों को क्या अकल्पनीय बातें मिलीं, और यह पौधा अपने अस्तित्व के लिए किन जैविक तरकीबों का इस्तेमाल करता है। तीसरे भाग में हम कॉर्प्स फ्लावर की असाधारण प्रकृति, उसकी तीव्र गंध और दुर्लभ खिलने की प्रक्रिया को विस्तार से समझेंगे। फिर हम कॉर्प्स फ्लावर की पारिस्थितिक स्थिति और संरक्षण की चुनौतियों को जानेंगे, और अंत में यह जानने का प्रयास करेंगे कि इन दोनों फूलों के माध्यम से हमें जैव विकास और ‘जीन चोरी’ जैसे वैज्ञानिक सिद्धांतों की कैसी अद्भुत झलक मिलती है।

रैफ्लेसिया: वनस्पति जगत का रहस्यमय विशाल परजीवी फूल
रैफ्लेसिया एक ऐसा पौधा है, जो अपने विशाल आकार और अद्भुत जैविक विशेषताओं के लिए जाना जाता है। यह मुख्यतः मलेशिया और इंडोनेशिया के घने वर्षावनों में पाया जाता है और इसे ‘लाश का फूल’ कहा जाता है, क्योंकि इससे सड़े मांस जैसी दुर्गंध आती है। इसका सबसे बड़ा फूल एक मीटर व्यास तक का हो सकता है और इसका वजन 10 किलो तक पहुंच सकता है, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा फूल बनाता है। इस पौधे की त्वचा छूने पर मांस जैसी प्रतीत होती है और इसकी गंध मांसाहारी कीड़ों को आकर्षित करती है, जैसे कि मक्खियाँ और डंग बीटल्स (Dung Beetles)।
रैफ्लेसिया का जीवन चक्र अत्यंत रहस्यमय होता है। यह फूल किसी भी पारंपरिक पौधे की तरह प्रकाश संश्लेषण नहीं करता, न इसकी पत्तियाँ होती हैं, न तना। यह पूरी तरह से अपने मेज़बान बेलों पर निर्भर रहता है और वहीं से पोषक तत्वों का संचरण करता है। यह परजीवी पौधा वर्ष में केवल कुछ ही दिनों के लिए खिलता है, और फिर सड़कर नष्ट हो जाता है। इसकी दुर्लभता और असामान्यता के कारण यह बॉटनिकल उद्यानों और वैज्ञानिक अनुसंधानों में विशेष आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

रैफ्लेसिया का जीनोमिक रहस्य और वैज्ञानिक खोजें
जब वैज्ञानिकों ने रैफ्लेसिया के जीनोम पर शोध आरंभ किया, तो उन्हें ऐसे नतीजे मिले जो वनस्पति विज्ञान को चौंकाने वाले थे। ब्रुकलिन की लॉन्गआईलैंड यूनिवर्सिटी (Long Island University, Brooklyn) की वैज्ञानिक जीनमायर मोलिना (Jeanmyer Molina) ने इस परजीवी पौधे के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (Mitochondrial DNA) को सफलतापूर्वक अलग किया, परंतु क्लोरोप्लास्ट (Chloroplast) से जुड़े किसी भी कार्यशील जीन का पता नहीं लगा सकीं। क्लोरोप्लास्ट वह भाग होता है जहाँ सामान्य पौधे प्रकाश संश्लेषण कर भोजन बनाते हैं, लेकिन रैफ्लेसिया में यह पूरी प्रणाली ही गायब है।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (Harvard University) के वैज्ञानिकों ने आगे यह पता लगाया कि इस पौधे में अन्य प्रजातियों से "चुराए गए" जीन मौजूद हैं — जिसे क्षैतिज जीन स्थानांतरण (horizontal gene transfer) कहा जाता है। यह प्रक्रिया पौधों में अत्यंत दुर्लभ मानी जाती है। रैफ्लेसिया के जीनोम का लगभग 1.2% हिस्सा ऐसे ‘चोरी किए हुए’ जीनों से बना है। यह दर्शाता है कि यह परजीवी पौधा सहस्त्राब्दियों से अन्य जीवों के जीन समाहित करता रहा है। इस प्रकार, रैफ्लेसिया का जीनोम एक तरह से ‘डीएनए का कब्रिस्तान’ बन गया है — जो जैव विकास के रहस्यों को उजागर करने का एक अप्रतिम साधन है।
कॉर्प्स फ्लावर: सबसे दुर्गंधयुक्त और दुर्लभ खिलने वाला विशाल फूल
कॉर्प्स फ्लावर (Corpse Flower), जिसे वैज्ञानिक नाम अमोर्फोफैलस टाइटेनम (Amorphophallus Titanium) से जाना जाता है, अपनी विशालता और दुर्गंध के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इसका नाम "लाश का फूल" इसलिए पड़ा क्योंकि इसके फूल से सड़े मांस जैसी गंध आती है। यह फूल लगभग हर 7 से 10 साल में एक बार खिलता है और केवल 24–36 घंटों तक ही जीवित रहता है। इस दौरान यह 3 मीटर तक ऊँचा हो सकता है। इसकी गंध के पीछे डाइमिथाइल ट्राइसल्फ़ाइड (Dimethyl trisulfide), ट्राइमिथाइलअमीन (Trimethylamine) और आइसोवालेरिक एसिड (Isovaleric acid) जैसे रसायन होते हैं, जो खराब पनीर, सड़ती मछली और पसीने जैसी गंध उत्पन्न करते हैं। इन रसायनों की गंध विशेष कीड़ों को आकर्षित करती है, जैसे कि डंग बीटल और मांस मक्खियाँ, जो परागण में सहायता करते हैं। फूल के खिलने की प्रक्रिया अत्यंत ऊर्जा-गहन होती है और इसके भूमिगत तने (corm) को वर्षों तक ऊर्जा संचित करनी पड़ती है। यह प्रक्रिया इतनी दुर्लभ होती है कि जब यह फूल खिलता है तो वह स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खबर बन जाती है।

दुनिया भर में कॉर्प्स फ्लावर की संरक्षण स्थिति और पारिस्थितिकी
कॉर्प्स फ्लावर का प्राकृतिक आवास मुख्यतः इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में पाया जाता है, जहाँ यह एक विशिष्ट उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा है। जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और मानवीय दखल के कारण इसकी संख्या में भारी गिरावट आई है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) ने इसे लुप्तप्राय (Endangered) प्रजातियों की सूची में शामिल किया है। माना जाता है कि जंगलों में इसकी संख्या 1000 से भी कम रह गई है। वर्तमान में यह फूल केवल कुछ सीमित बॉटैनिकल गार्डनों में ही सुरक्षित रूप से पनप रहा है। अमेरिका, जापान, भारत और यूरोप के वैज्ञानिक उद्यानों में इसे अत्यधिक देखभाल और नियंत्रित पर्यावरण में उगाया जाता है। जब यह फूल खिलता है, तो उस शहर में हजारों लोग उसे देखने आते हैं, और यह एक सार्वजनिक उत्सव जैसा दृश्य बन जाता है। संरक्षण की दृष्टि से यह फूल वैज्ञानिकों के लिए एक अनूठी चुनौती और प्रेरणा दोनों है।
जैव विकास और जीन चोरी: फूलों की दुनिया का अद्भुत विज्ञान
रैफ्लेसिया और कॉर्प्स फ्लावर जैव विकास के दो ऐसे उदाहरण हैं जो हमें यह दिखाते हैं कि प्रकृति कितनी रचनात्मक और लचीली हो सकती है। रैफ्लेसिया जैसे पौधों ने अपने अनावश्यक जीन त्याग दिए और अपने मेजबानों से नए उपयोगी जीन हासिल किए — यह व्यवहार आमतौर पर बैक्टीरिया में देखा जाता है, न कि जटिल पौधों में। दूसरी ओर, कॉर्प्स फ्लावर ने अपने खिलने की प्रक्रिया, तापमान और गंध जैसी विशेषताओं को इतने अनूठे तरीके से ढाला है कि यह विशेष कीड़ों को आकर्षित कर सके। यह जैव विकास का एक अत्यंत विशिष्ट उदाहरण है, जिसमें फूल की रचना और पर्यावरण के बीच एक अत्यंत सटीक सामंजस्य दिखता है। ये दोनों पौधे वनस्पति विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी और अनुवांशिक अनुसंधान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और आने वाले समय में नई औषधियाँ, परागण तकनीकें और संरक्षण नीतियाँ इन्हीं से प्रेरित होकर बन सकती हैं।
संदर्भ-
रामपुर की धरोहर: रज़ा लाइब्रेरी और गुंबद की गूंजती हुई ऐतिहासिक पहचान
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
24-07-2025 09:24 AM
Rampur-Hindi

रामपुरवासियों, क्या आपने कभी रज़ा लाइब्रेरी की भव्यता को नज़दीक से महसूस किया है? शहर की हलचल के बीच यह ऐतिहासिक इमारत जैसे समय के ठहराव का अनुभव कराती है। नवाब फैज़ुल्लाह खान द्वारा स्थापित यह लाइब्रेरी न केवल दुर्लभ पांडुलिपियों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का खज़ाना है, बल्कि इसकी स्थापत्य कला भी उतनी ही अद्वितीय और गहराई से जुड़ी हुई है रामपुर की पहचान से। इसकी ऊँची छतरियाँ, नक्काशीदार मेहराबें और प्याज़ के आकार का भव्य गुंबद, जैसे इतिहास को पत्थर में तराश कर सामने रख देते हैं। यह इमारत केवल किताबों का घर नहीं, बल्कि एक जीवंत संग्रहालय है—जहाँ हर दीवार, हर खिड़की और हर गुंबद किसी न किसी बीते दौर की गवाही देता है। विशेष रूप से इसका गुंबद न केवल स्थापत्य कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि रामपुर के क्षितिज पर उभरता हुआ एक सांस्कृतिक प्रतीक भी बन गया है। यह गुंबद दूर से ही शहर की आत्मा की तरह दिखता है—शांत, गरिमामय और इतिहास से गूंजता हुआ। रज़ा लाइब्रेरी और उसका स्थापत्य सौंदर्य रामपुर के गौरवशाली अतीत की याद दिलाते हैं, और साथ ही यह भी बताते हैं कि कैसे एक इमारत ज्ञान, कला और पहचान का संगम बन सकती है।
इस लेख में हम पहले, जानेंगे रज़ा लाइब्रेरी की ऐतिहासिक स्थापना और इसके समृद्ध संग्रह को। फिर हम इसकी स्थापत्य शैली, खासकर इंडो-सारसेनिक प्रभाव को समझेंगे। तीसरे भाग में गुंबद की संरचना और सौंदर्यशास्त्र पर प्रकाश डालेंगे। उसके बाद भारत के अन्य ऐतिहासिक गुंबदों से इसकी तुलना करेंगे, और अंत में जानेंगे कि गुंबद भारतीय संस्कृति और परंपरा में प्रतीकात्मक रूप से कितना महत्वपूर्ण है।
रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी: ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत
रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी केवल एक पुस्तकालय नहीं, बल्कि ज्ञान, परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर का गढ़ है। इसकी स्थापना 1774 में नवाब फैज़ुल्लाह खान ने की थी, जब रामपुर एक नवोदित रियासत था और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के दौर में प्रवेश कर रहा था। नवाब की निजी पुस्तक-संग्रह की शुरुआत से बनी यह लाइब्रेरी बाद में जनता के लिए खोल दी गई और धीरे-धीरे यह एक बौद्धिक केंद्र में परिवर्तित हो गई।
यहाँ पांडुलिपियों का ऐसा संग्रह है जो 12वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक फैला हुआ है। इनमें इस्लामी, हिंदू, सूफी, तात्त्विक और वैज्ञानिक ग्रंथों के अलावा शिल्पकला, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद और संगीत विषयों पर भी दुर्लभ सामग्री मौजूद है। इस लाइब्रेरी की खास बात यह है कि यहाँ ज्ञान को किसी एक धर्म या परंपरा से सीमित नहीं किया गया, बल्कि यह भारत की बहुलतावादी संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण है। संस्कृत, फारसी, अरबी, उर्दू, हिंदी और पश्तो जैसे भाषाई विविधता में निहित ग्रंथ इसे दक्षिण एशिया की सबसे समृद्ध और बहुआयामी पुस्तकालयों में स्थान दिलाते हैं।

रज़ा लाइब्रेरी की स्थापत्य शैली: इंडो-सारसेनिक वास्तुकला
रज़ा लाइब्रेरी केवल अपनी सामग्री के लिए नहीं, बल्कि अपने भव्य भवन के लिए भी प्रसिद्ध है, जो इंडो-सारसेनिक शैली की उत्कृष्ट मिसाल है। यह शैली भारत में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरी, जब अंग्रेजों ने स्थानीय स्थापत्य परंपराओं को यूरोपीय डिजाइन के साथ मिलाकर एक नई शैली का निर्माण किया। इस इमारत में इस्लामी वास्तुकला की भव्यता, हिंदू मंदिरों की सूक्ष्मता, गोथिक चर्चों की ऊँचाई और नव-शास्त्रीय संतुलन का अद्भुत मेल देखने को मिलता है।
इसकी बड़ी-बड़ी जालीदार खिड़कियाँ गर्मी में भी ठंडी हवा के लिए बनाई गई थीं, जबकि ऊँचे मेहराब संवाद और सभाओं के लिए आदर्श ध्वनि संरचना प्रदान करते हैं। सुंदर छतरियाँ, कमलाकार आकृतियाँ, और फूलों की नक्काशी इसके सौंदर्य को और गहराई देती हैं। यह इमारत न केवल स्थापत्य प्रतिभा का उदाहरण है, बल्कि यह दर्शाती है कि कैसे कला, तकनीक और परंपरा एक साथ मिलकर किसी इमारत को 'जीवित' बना सकते हैं।

रज़ा लाइब्रेरी का गुंबद: संरचना और सौंदर्य
रज़ा लाइब्रेरी का सबसे प्रभावशाली हिस्सा है उसका भव्य गुंबद, जो दूर से ही अपनी आभा बिखेरता है। यह गुंबद प्याज़ के आकार का है, जो इस्लामी वास्तुकला की पहचान माने जाते हैं, लेकिन इसकी बनावट में नवाबी शैली की गरिमा और स्थानीय शिल्पकला की कलात्मकता झलकती है।
गुंबद की सतह पर की गई महीन नक्काशी और उसका संतुलित घेरा देखने वालों को मुग्ध कर देता है। इसकी बनावट न केवल भौतिक रूप से मजबूत है, बल्कि इसके नीचे खड़े होकर की गई बातों की गूंज इसकी ध्वनि प्रणाली की तकनीकी दक्षता भी दर्शाती है। यह गुंबद रामपुर के स्काईलाइन का हिस्सा बन चुका है—एक ऐसा स्थायी प्रतीक जो न केवल अतीत की भव्यता की याद दिलाता है, बल्कि आज भी नगरवासियों को एकता, बौद्धिकता और गौरव का अहसास कराता है।
भारत के प्रमुख ऐतिहासिक गुंबद: विरासत की झलक
भारतीय उपमहाद्वीप में गुंबदों की परंपरा अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण रही है। प्राचीन भारत में सांची का स्तूप, जहाँ गुंबद बौद्धिक निर्वाण का प्रतीक है, स्थापत्य की सरलता और आध्यात्मिक गहराई दोनों को दर्शाता है। वहीं, मध्यकालीन भारत में ताज महल का गुंबद प्रेम, सौंदर्य और संतुलन की चरम अभिव्यक्ति बन गया—जिसका आकर्षण आज भी पूरी दुनिया में बरकरार है।
बीजापुर का गोल गुंबज तकनीकी दृष्टि से अविश्वसनीय है, जहाँ एक सदी पहले की गई ध्वनि आज भी गूंजती है। लुटियन्स दिल्ली में राष्ट्रपति भवन का गुंबद साम्राज्यशक्ति का प्रतीक है, तो गोल गुम्बद और हुबली की दरगाहें आध्यात्मिक सामंजस्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन सभी गुंबदों की विशेषता यह है कि वे सिर्फ छत नहीं, बल्कि सोच, स्मृति और समाज का शिखर होते हैं। रज़ा लाइब्रेरी का गुंबद इन्हीं परंपराओं की निरंतरता है, जो रामपुर को उस सांस्कृतिक मानचित्र पर स्थापित करता है जहाँ कला और विरासत साथ चलती है।

गुंबदों का सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक महत्व
गुंबद भारतीय स्थापत्य का सिर्फ एक तत्व नहीं, बल्कि एक 'संकेत' है—आध्यात्मिकता की ऊँचाई, विचारों की गहराई और सभ्यता की स्थिरता का। बौद्ध स्तूपों में यह आत्मज्ञान और निर्वाण की खोज का प्रतीक होता है, इस्लामी मस्जिदों में यह अल्लाह की ओर रूहानी ऊँचाई का प्रतीक है, जबकि हिंदू मंदिरों में यह ब्रह्मांड की गोलाई और अनंतता का दृश्य रूप है।
सामाजिक दृष्टि से भी, गुंबद शहरी पहचान का केंद्र होते हैं—लोग उन्हें दूर से देखकर अपना शहर पहचानते हैं। वे स्मृति में रच-बस जाते हैं, जैसे दिल्ली का जामा मस्जिद, लखनऊ का आसिफी इमामबाड़ा या हैदराबाद का चारमीनार। रामपुर में रज़ा लाइब्रेरी का गुंबद भी एक ऐसी ही सांस्कृतिक स्मृति है—एक बिंदु जहाँ इतिहास, परंपरा और स्थानीय गौरव आपस में मिलते हैं। यह न केवल एक स्थापत्य सौंदर्य है, बल्कि रामपुरवासियों के आत्मगौरव का प्रतीक है, जो अतीत को वर्तमान से जोड़ता है।
संदर्भ-
रामपुर की कलाई पर समय की शान: एचएमटी घड़ियों की अमिट विरासत
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
23-07-2025 09:33 AM
Rampur-Hindi

रामपुरवासियों, क्या आपने कभी अपने दादा की अलमारी में रखी वह पुरानी घड़ी देखी है, जो हर सुबह ठीक 8 बजे की टिक-टिक से पूरे घर को जगा देती थी? ज़रा सोचिए, जब रामपुर की गलियों में उर्दू शायरी की महक और इत्र की खुशबू तैर रही थी, उसी वक़्त हर कलाई पर जो टिक-टिक चलती थी, वह एचएमटी (HMT)की घड़ी थी। यह घड़ी केवल समय दिखाने का यंत्र नहीं थी, बल्कि शान, सौम्यता और स्वदेशी गौरव का प्रतीक थी। आज जब डिजिटल घड़ियों और स्मार्टवॉच का दौर है, तो एचएमटी की वह सरल टिक-टिक हमारे बीते वक्त की ख़ूबसूरत गूंज बन चुकी है। यह लेख उस विरासत को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश है, जिसे रामपुर जैसे सांस्कृतिक और कलात्मक शहर ने भी बड़े प्रेम से अपनाया था।
इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे एचएमटी घड़ियों की स्थापना हुई और यह आम लोगों की पहचान बनी। हम उनके लोकप्रिय मॉडलों को समझेंगे, तकनीकी नवाचारों की झलक पाएंगे, और टाइटन जैसी कंपनियों के उदय से एचएमटी को हुए नुकसान पर भी बात करेंगे। अंत में, हम यह भी देखेंगे कि आज की पीढ़ी में यह विरासत किस रूप में जीवित है, विशेषकर रामपुर जैसे शहरों में।
एचएमटी घड़ियों की स्थापना और प्रारंभिक लोकप्रियता
एचएमटी (Hindustan Machine Tools) की शुरुआत 1961 में हुई थी, जब भारत सरकार ने जापान की प्रतिष्ठित सिटीजन वॉच कंपनी के साथ मिलकर बेंगलुरु में पहला घड़ी निर्माण संयंत्र स्थापित किया। यह वही समय था जब भारत तकनीकी आत्मनिर्भरता की ओर पहला कदम बढ़ा रहा था। 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा ‘जनता’ नाम की पहली यांत्रिक घड़ी को लॉन्च किया गया। देखते ही देखते यह घड़ी हर आम भारतीय की कलाई पर दिखने लगी।
रामपुर में, जहां नवाबी तहज़ीब के साथ-साथ परंपराओं का गहरा संबंध रहा है, वहाँ एचएमटी घड़ियों ने बड़ी आसानी से अपना स्थान बना लिया। यह घड़ियाँ शादी-ब्याह, रोज़गार, परीक्षा पास करने जैसे शुभ अवसरों पर गिफ्ट की जाती थीं। आज भी पुरानी दुकानों में एचएमटी के बैनर धूल में लिपटे हुए दिख जाते हैं, लेकिन उनके पीछे छिपी स्मृतियाँ अब भी साफ़ हैं।

'जनता', 'पायलट', 'झलक' जैसे लोकप्रिय मॉडलों की विशेषताएँ
एचएमटी के पास हर वर्ग के लिए अलग मॉडल थे – ‘जनता’ आम आदमी के लिए था – मजबूत, सादा और विश्वसनीय। ‘पायलट’ उन युवाओं के लिए था जो थोड़ा हटकर चाहते थे – इसका डायल बड़ा और भारी होता था। ‘झलक’ महिलाओं के लिए डिज़ाइन किया गया एक सुंदर और पतला मॉडल था, जो महिलाओं की घुटनों तक झूमती साड़ियों और परंपरागत अंदाज़ से मेल खाता था। 'सोना' और 'कोहिनूर' जैसे मॉडल उत्सवों और पारिवारिक उपहारों में बहुत लोकप्रिय थे। बाज़ारों पर एचएमटी की घड़ियाँ इतनी आसानी से मिलती थीं कि ग्राहक सिर्फ अपनी पसंद बताता और दुकानदार उसे तीन-चार मॉडल तुरंत दिखा देता। उन दिनों हर घर में एक न एक एचएमटी ज़रूर होती थी – चाहे पहनने के लिए या वारिस के तौर पर सहेजकर रखने के लिए।
एचएमटी का तकनीकी नवाचार और विनिर्माण विस्तार
एचएमटी केवल एक उत्पादक नहीं, बल्कि तकनीकी नवाचार का प्रतीक था। भारत की पहली ब्रेल घड़ी, क्वार्ट्ज घड़ी, डे-डेट ऑटोमैटिक घड़ी – सभी इसी कंपनी ने बनाई। एचएमटी की घड़ियाँ 100% भारत में बनी होती थीं और उनकी गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाता था। एक घड़ी बनने में दर्जनों परीक्षण होते थे – जल परीक्षण, धूल परीक्षण, स्प्रिंग तनाव, और भी बहुत कुछ।
बेंगलुरु के बाद एचएमटी ने श्रीनगर, रानीबाग, तुमकुर और दिल्ली में नई इकाइयाँ स्थापित कीं। 1980 के दशक तक कंपनी हर साल करीब 70 लाख घड़ियाँ बना रही थी। यह एक प्रेरणादायक उदाहरण था कि सरकारी उपक्रम भी विश्वस्तरीय गुणवत्ता और तकनीक में अग्रणी हो सकते हैं। इस नवाचार ने देश में एक तकनीकी आत्मनिर्भरता की भावना को जन्म दिया, जो आज ‘मेक इन इंडिया’ के रूप में पुनर्जीवित हो रही है।

बाज़ार में प्रतिस्पर्धा, टाइटन का आगमन और एचएमटी का पतन
1987 में टाटा समूह और टिडको (TIDCO )के संयुक्त प्रयास से जब टाइटन ने भारतीय बाज़ार में प्रवेश किया, तब एचएमटी को हल्का प्रतिस्पर्धी माना गया। लेकिन टाइटन ने बाज़ार की नब्ज को समझा – युवा डिज़ाइनों, पतली घड़ियों और आकर्षक विज्ञापनों के ज़रिए उसने एचएमटी की लोकप्रियता को पीछे छोड़ दिया।
एचएमटी ने तकनीकी रूप से क्वार्ट्ज घड़ियाँ पहले ही बना ली थीं, लेकिन उनके डिज़ाइन पुराने लगते थे और कीमतें भी अपेक्षाकृत अधिक थीं। सरकार ने जब क्वार्ट्ज कंपोनेंट्स पर आयात शिथिल किया, तो विदेशी ब्रांडों की घड़ियाँ भी बाज़ार में आ गईं। एचएमटी इन सब बदलावों के अनुरूप खुद को ढाल नहीं सका। अंततः, 2016 में सरकार ने इसके अंतिम संयंत्र को बंद करने का फैसला लिया।
भारतीय घड़ी संस्कृति में एचएमटी का ऐतिहासिक महत्व और वर्तमान स्थिति
आज एचएमटी भले ही बाज़ार से लुप्त हो गई हो, लेकिन इसका प्रभाव आज भी ज़िंदा है – संग्रहकर्ताओं की अलमारियों में, ऑनलाइन नीलामियों में और उन पुरानी अलमारियों में जहाँ एक एचएमटी 'जनता' अभी भी चुपचाप समय के साथ चल रही है। रामपुर में ऐसे कई घर हैं, जहाँ दादा की घड़ी को पोते ने मरम्मत करवा कर पहना है – यह केवल एक विरासत नहीं, एक भावनात्मक कड़ी है। आज सोशल मीडिया पर एचएमटी फैन क्लब सक्रिय हैं, जहाँ पुराने मॉडल के बारे में जानकारी साझा की जाती है और उनकी मरम्मत की तकनीकें सिखाई जाती हैं। यह केवल घड़ी का नहीं, बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता, शिल्प कौशल और सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक बन चुका है।
संदर्भ-
रामपुर की छतों पर मंडराता ख़तरा: जब मांझा बन गया जानलेवा धागा
हथियार व खिलौने
Weapons and Toys
22-07-2025 09:27 AM
Rampur-Hindi

रामपुर, जहाँ की फ़िज़ाओं में तहज़ीब की खुशबू रची-बसी है, वहाँ पतंगबाज़ी न केवल बचपन की यादों से जुड़ी एक मीठी परंपरा रही है, बल्कि सामूहिक उत्सवों और मोहल्लों की पहचान भी बन चुकी है। मकर संक्रांति हो, स्वतंत्रता दिवस हो या यूं ही कोई अवकाश—रामपुर की छतें रंग-बिरंगी पतंगों से सज जाया करती थीं। लेकिन बीते कुछ वर्षों में यह मनोरंजक परंपरा एक गंभीर चिंता में तब्दील हो गई है। पतंग उड़ाने में इस्तेमाल होने वाला चीनी नायलॉन मांझा अब कई जानलेवा हादसों की वजह बन रहा है। यह मांझा, जो सस्ता और तेज़ है, अब सिर्फ़ पतंगों की लड़ाई तक सीमित नहीं रहा, बल्कि राहगीरों, बाइक सवारों और बेगुनाह पक्षियों के लिए एक गंभीर संकट बन चुका है।
इस लेख में हम चार महत्वपूर्ण पहलुओं को विस्तार से समझेंगे। पहले, यह जानेंगे कि कैसे चीनी मांझा रामपुर में लोकप्रिय हुआ और यह इंसानों व पक्षियों के लिए कितना घातक है। दूसरे, इस जानलेवा मांझे पर सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों और उनकी वास्तविक स्थिति पर नज़र डालेंगे। तीसरे, भारत में पतंगबाज़ी की ऐतिहासिक जड़ों और सांस्कृतिक महत्त्व को जानेंगे। और अंत में, आज के समय में पतंगबाज़ी किस तरह त्योहारों, डिज़ाइनों और सामाजिक संदेशों के साथ एक नए रूप में लौट रही है, यह समझेंगे।

चीनी मांझे की बढ़ती लोकप्रियता और उससे होने वाले मानवीय व पक्षीय खतरे
रामपुर की पतंगबाज़ी की दुनिया में आज चीनी मांझा सबसे अधिक मांग में है। दुकानदार बताते हैं कि पतंग खरीदने आए ज़्यादातर लोग अब सीधे यही पूछते हैं—"चीनी मांझा है?" इसकी दो वजहें हैं—यह पारंपरिक सूती मांझे से काफ़ी सस्ता है और इसकी मजबूती इतनी अधिक है कि पतंग की लड़ाई में जीतने का विश्वास जगाता है। लेकिन यही सस्ता विकल्प अब मौत का कारण बन रहा है। इस मांझे पर काँच के महीन टुकड़ों और धातु के मसाले का लेप होता है, जिससे यह न केवल अन्य पतंगों की डोरी काट सकता है, बल्कि राह चलते व्यक्ति की गर्दन, उँगलियाँ या चेहरे पर भी गहरा घाव दे सकता है।

रामपुर में भी ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जहाँ बाइक सवार इस मांझे में उलझकर बुरी तरह घायल हो गए। हेलमेट पहनने के बावजूद कुछ की गर्दन तक कट गई। वहीं, पक्षियों के लिए यह मांझा और भी खतरनाक साबित हुआ है। महामारी के दौरान, जब लोग छतों तक सीमित थे और पतंगबाज़ी अपने चरम पर थी, तब पशु चिकित्सालयों में घायल पक्षियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई। कबूतर, मैना, चील, तोता—हर प्रकार के पक्षी इस अदृश्य जाल में फँसते हैं और या तो तड़पते हैं या मर जाते हैं। रामपुर में पक्षी प्रेमियों और पशु संगठनों की चिंता लगातार बढ़ रही है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर समाधान अब भी नज़र नहीं आता।
मांझे पर कानूनी प्रतिबंध और ज़मीनी सच्चाई
2017 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने नायलॉन और सिंथेटिक मांझों पर सख़्त प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया। पर्यावरण, पक्षियों और आम नागरिकों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया था। दिल्ली सरकार ने तो सभी तरह के नॉन-कॉटन मांझों पर प्रतिबंध लगाकर केवल सूती धागे से बने मांझे को अनुमति दी। लेकिन रामपुर सहित देश के कई हिस्सों में आज भी ये प्रतिबंध सिर्फ़ काग़ज़ों में सीमित हैं।
स्थानीय पतंग विक्रेताओं के अनुसार, लोग अभी भी बड़ी संख्या में चीनी मांझा ही मांगते हैं क्योंकि वह सस्ता और मज़बूत होता है। एक सामान्य 12 रील का सूती मांझा जहाँ ₹1150 से ₹1500 तक में मिलता है, वहीं चीनी मांझा ₹350 से ₹500 तक में उपलब्ध है। इतना सस्ता और ताक़तवर विकल्प मिलने से दुकानदार भी आसानी से स्टॉक करते हैं। हालांकि प्रशासन समय-समय पर अभियान चलाता है, लेकिन निगरानी की निरंतरता की कमी के कारण यह मांझा अब भी खुलेआम बिक रहा है—चाहे वह स्थायी दुकानों में हो या ऑनलाइन माध्यमों पर।
यह स्थिति दर्शाती है कि प्रतिबंध लगाने से ज़्यादा ज़रूरी है उनका कड़ाई से पालन और जनजागरूकता। जब तक आम नागरिकों को इस मांझे के खतरों की पूरी जानकारी नहीं होगी, तब तक सिर्फ़ कानून बना देना काफ़ी नहीं होगा। रामपुर के मोहल्लों में आज भी हर मकर संक्रांति के पहले यह मांझा बिकता है, और वहीं से इसके दुष्परिणाम भी शुरू हो जाते हैं।

भारत में पतंगबाज़ी की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
भारत में पतंगबाज़ी महज़ एक खेल नहीं रही, यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा रही है। संत नामदेव से लेकर तुलसीदास तक ने अपने काव्य में पतंगों का उल्लेख किया है। यह उल्लेख दर्शाता है कि पतंगें न केवल आम जनजीवन का हिस्सा थीं, बल्कि उन्हें आध्यात्मिक अर्थों से भी जोड़ा जाता था। मुग़ल काल में पतंगबाज़ी एक कुलीन और दरबारी खेल बन चुकी थी, जहाँ नवाबों और दरबारियों के बीच पतंग युद्ध होते थे। यहां तक कि कहा जाता है कि जहांगीर के दिल्ली लौटने के उपलक्ष्य में, लोगों ने शहर भर में पतंगें उड़ाकर स्वागत किया था।
रामपुर, जो अपने नवाबी अतीत और शाही संस्कृति के लिए जाना जाता है, वहाँ भी पतंगबाज़ी को ख़ास महत्व प्राप्त था। लोक उत्सवों और पारिवारिक आयोजनों में पतंगें आसमान में उड़ती थीं और लोगों के बीच आपसी संवाद और मेलजोल का माध्यम बनती थीं। इन पतंगों के माध्यम से सामाजिक संदेश भी प्रेषित किए जाते थे, और कई बार तो स्वतंत्रता संग्राम के विरोध प्रदर्शन में भी इनका इस्तेमाल किया गया।

आज के दौर में पतंगबाज़ी: त्योहार, डिज़ाइन और सामाजिक संदेशों की उड़ान
आज का समय डिज़िटल और इलेक्ट्रॉनिक गेम्स का ज़माना है, लेकिन पतंगबाज़ी अब भी उन चंद खेलों में शामिल है जो हर पीढ़ी को एकजुट करता है। रामपुर में अब भी मकर संक्रांति, स्वतंत्रता दिवस और बसंत पंचमी जैसे अवसरों पर लोग पतंगें उड़ाने की तैयारी पहले से करने लगते हैं। आधुनिक पतंगें अब पहले से ज़्यादा स्टाइलिश, रंगीन और डिज़ाइनर हो गई हैं। ‘आई लव इंडिया’, 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ', जैसे संदेशों वाली पतंगें न केवल उड़ती हैं, बल्कि लोगों के दिलों को भी छूती हैं।
वर्तमान समय में पतंगें प्लास्टिक, रेशम और लचीले कपड़ों से बनने लगी हैं, जिससे वे अधिक टिकाऊ और रंगीन हो गई हैं। रामपुर के बाजारों में अब ₹5 से लेकर ₹200 तक की पतंगें मिलती हैं, और बच्चे हो या बड़े, सभी में इसके प्रति आकर्षण बरकरार है। हालांकि, डिज़ाइन और प्रचार के इस युग में, यह भी ज़रूरी है कि हम इसकी परंपरा को ज़िम्मेदारी के साथ निभाएँ—सुरक्षित मांझों के उपयोग के साथ, ताकि यह खेल फिर से सिर्फ़ आनंद का स्रोत बने, दुर्घटनाओं का नहीं।
संदर्भ-
नैनी झील की ओर: ताज़गी, आत्मिक शांति और अनुभवों की एक सुगंधित यात्रा
पर्वत, चोटी व पठार
Mountains, Hills and Plateau
21-07-2025 09:25 AM
Rampur-Hindi

रामपुर की दोपहर जब तपते सूरज की किरणों से अंगारे जैसी लगती है, तब मन अनायास ही किसी ठंडी और सुकूनभरी जगह की तलाश करने लगता है। और ऐसे में नैनीताल का नाम जैसे हर रामपुरी की ज़ुबान पर अपने आप आ जाता है। रामपुर से मात्र सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह हिल स्टेशन केवल एक पर्यटन स्थल नहीं है—यह एक परंपरा है, एक आदत है, और कई परिवारों के लिए पीढ़ियों से चली आ रही गर्मियों की एक वार्षिक यात्रा का हिस्सा है। नैनीताल की वादियों में जाते ही जैसे मन का ताप उतरने लगता है। शहर की चहल-पहल से दूर, नैनी झील के किनारे बैठकर रामपुर के लोग अक्सर अपने जीवन की थकान को बहा देते हैं। बच्चों के लिए यह जगह नाव की सवारी और केबल कार की रोमांचक यात्रा है, तो बुज़ुर्गों के लिए नैना देवी के दर्शन आत्मिक शांति का माध्यम हैं। कई रामपुरी परिवारों की पुरानी एलबमों में नैनीताल की तस्वीरें हैं—कभी मॉल रोड की रौनक, कभी झील की सैर, और कभी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर ली गई कोई यादगार फोटो।
इस लेख में हम जानेंगे नैनीताल की खोज से लेकर उसकी ब्रिटिश विरासत, नैना देवी की पौराणिक कथा, नैनी झील की प्राकृतिक शोभा, और उन पाँच अनुभवों के बारे में जो हर रामपुरी को नैनीताल में ज़रूर करने चाहिए। साथ ही, पर्यटन के ज़रिए इस नगर की बदलती अर्थव्यवस्था को भी समझेंगे।
नैनीताल की खोज और ब्रिटिश युग की शुरुआत
रामपुर जैसे समतल और गर्म शहर से जब कोई सैलानी हिमालय की ओर बढ़ता है, तो नैनीताल का शांत और ठंडा वातावरण उसे एक नई दुनिया में ले जाता है। हालांकि स्थानीय लोग इस क्षेत्र को पहले से जानते थे, लेकिन ब्रिटिश युग में इसकी महत्ता तब बढ़ी जब 1839 में अंग्रेज़ व्यापारी पी. बैरन यहाँ शिकार करते हुए भटक कर पहुँचे। झील की मोहकता ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपना व्यापार छोड़ यहाँ एक यूरोपीय कॉलोनी बसाने का निर्णय लिया। 1841 में 'इंग्लिशमैन कलकत्ता' पत्रिका में इसका औपचारिक उल्लेख हुआ और धीरे-धीरे यह हिल स्टेशन बनता गया। 1850 में नगर पालिका और 1862 में उत्तर-पश्चिमी प्रांत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनने से इसका राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप भी विकसित हुआ। सचिवालय, आलीशान बंगले, क्लब, स्कूल और चर्च की स्थापना ने इसे एक आधुनिक औपनिवेशिक नगर का रूप दे दिया। यहाँ ब्रिटिशों ने प्राकृतिक सौंदर्य और आधुनिक शहरी योजनाबद्धता का अद्भुत मेल प्रस्तुत किया। समय के साथ-साथ नैनीताल केवल एक अंग्रेजी रिसॉर्ट नहीं रहा, बल्कि एक सांस्कृतिक केंद्र भी बन गया। रामपुर जैसे इलाकों से आने वाले कई भारतीयों के लिए यह जगह रोजगार और शिक्षा के अवसरों का केंद्र बनती गई। आज जब कोई पर्यटक नैनीताल पहुँचता है, तो उसके पैरों के नीचे इतिहास की वह गूंज होती है, जो केवल पुस्तकों से नहीं, अनुभवों से महसूस होती है।

नैना देवी मंदिर: आस्था, पौराणिकता और शक्ति पीठ
रामपुर के निवासी जब नैना देवी मंदिर पहुँचते हैं, तो वह केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं होती—बल्कि यह आत्मा की एक गूढ़ खोज बन जाती है। नैनीताल का यह प्रमुख मंदिर हिंदू आस्था की एक प्राचीन कथा से जुड़ा है, जिसमें देवी सती की आँखें इस स्थान पर गिरी थीं। यह स्थान शक्ति पीठों में एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में जाना जाता है, जहाँ देवी को नेत्रों के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। मंदिर की स्थिति नैनी झील के उत्तरी छोर पर है, जिससे यह प्राकृतिक और आध्यात्मिक दोनों ही रूपों में विशेष बनता है। रामपुर जैसे शहरों से हर वर्ष नवरात्र और अन्य पर्वों के समय बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं। उनके लिए यह मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि एक व्यक्तिगत और पारिवारिक परंपरा का हिस्सा होता है। मंदिर में बजती घंटियाँ, फूलों की महक और झील से आती ठंडी हवा—सब मिलकर एक दिव्य वातावरण रचते हैं। पौराणिकता और प्रकृति के इस संगम ने नैना देवी को उत्तर भारत के सबसे श्रद्धेय स्थलों में शामिल कर दिया है। यहाँ आने वाले लोग केवल मन्नतें नहीं माँगते, वे एक मानसिक शांति और आत्मिक जुड़ाव भी महसूस करते हैं। यह मंदिर रामपुर के सांस्कृतिक मानस में गहराई से बसा है और इसे केवल एक धार्मिक गंतव्य कहना अन्याय होगा। यह एक ऐसी जगह है जहाँ परंपरा, भक्ति और प्रकृति एकत्र होती हैं। हर यात्रा यहाँ एक नई श्रद्धा के साथ लौटती है, जो मन को स्थायित्व देती है।

झीलों का शहर: नैनी झील और उसके आसपास की प्राकृतिक छटा
रामपुर की गर्म हवाओं और सपाट मैदानों से जब कोई नैनी झील के तट पर पहुँचता है, तो उसकी आँखों में एक नई चमक और मन में एक अजीब-सी शांति उतरती है। नैनीताल की सबसे प्रमुख पहचान उसकी केंद्रीय झील है, जो इस पूरे नगर की आत्मा मानी जाती है। चारों ओर फैली पहाड़ियाँ, हरे-भरे वृक्ष और साफ़-सुथरा वातावरण इस झील को अलौकिक बना देते हैं। झील का जल मानो आकाश का आईना हो, जिसमें बादलों की परछाइयाँ नृत्य करती हैं। सुबह के समय झील पर छाई धुंध और शाम को दीपों की छाया इसे और भी रहस्यमय बना देती है। यहाँ की नाव सवारी एक ध्यान की तरह लगती है, जो भीतर की बेचैनी को शांत कर देती है। झील के किनारे बने घाट और फूलों की क्यारियाँ इस अनुभव को और सुंदर बना देते हैं। रामपुर से आए हर यात्री के लिए यह झील केवल एक सैरगाह नहीं होती, बल्कि जीवन के कुछ शांत क्षणों की अनुभूति होती है। यहाँ की हवा में ठंडक ही नहीं, एक मानसिक ताजगी भी होती है। यह वह स्थान है जहाँ प्रकृति, आत्मा के सबसे करीब महसूस होती है। नैनी झील केवल जल का स्रोत नहीं, बल्कि भावनाओं का दर्पण है। जब कोई यात्री यहाँ से लौटता है, तो वह कुछ न कुछ इस झील में छोड़ आता है—और बहुत कुछ अपने भीतर समेट कर ले जाता है।

औपनिवेशिक विरासत और नैनीताल की शहरी योजनाबद्धता
जहाँ रामपुर की हवेलियाँ और किले नवाबी और मुगल स्थापत्य की झलक देते हैं, वहीं नैनीताल औपनिवेशिक ब्रिटिश शहरीकरण का सजीव उदाहरण है। जब नैनीताल को 1862 में उत्तर-पश्चिमी प्रांत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया गया, तब इस शहर को विशेष ढंग से विकसित किया गया। प्राकृतिक ढलानों और झील के चारों ओर बसी योजनाबद्ध बस्तियाँ, सचिवालय, क्लब, चर्च और शैक्षणिक संस्थान इसकी बुनियाद बने। ब्रिटिश इंजीनियरों ने यहाँ की भौगोलिक बनावट के अनुसार ऐसी संरचनाएँ बनाईं जो सौंदर्य और कार्यक्षमता दोनों में बेमिसाल थीं। झील के आसपास की सड़कों, पगडंडियों और छायादार वृक्षों की कतारें अब भी उस युग की याद दिलाती हैं। यह शहर अंग्रेजों के लिए सिर्फ एक ठंडी जगह नहीं था, बल्कि यहाँ प्रशासनिक कामकाज, शिक्षा और अवकाश—तीनों का संतुलन रचा गया। रामपुर से आने वाले परिवार आज भी जब नैनीताल की इन इमारतों को देखते हैं, तो उनमें इतिहास की वो परतें महसूस करते हैं जो किताबों में नहीं, केवल अनुभव में मिलती हैं। इन भवनों की खिड़कियों से झाँकता अतीत अब भी वर्तमान के साथ जी रहा है। औपनिवेशिक इमारतें और योजनाएँ केवल स्थापत्य की दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी उत्तर भारत की विरासत का हिस्सा बन चुकी हैं। नैनीताल की शांत हवाओं में जब कोई रामपुरवासी इन इमारतों को देखता है, तो वह अपने शहर के इतिहास से एक अलग तुलना करने लगता है। इस तुलना में भले भव्यता अलग हो, लेकिन आत्मीयता की डोर दोनों को जोड़ती है।

पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था: नैनीताल का आधुनिक स्वरूप
आज का नैनीताल केवल एक हिल स्टेशन नहीं, बल्कि एक जीवंत अर्थव्यवस्था का केन्द्र बन चुका है। रामपुर जैसे शहरों से हर साल हजारों लोग यहाँ पर्यटक बनकर आते हैं, लेकिन कुछ अपने जीवन की नई शुरुआत भी यहीं करते हैं। पर्यटन से जुड़ी सेवाओं — जैसे होटल, होम-स्टे, टैक्सी, स्थानीय हस्तशिल्प और खानपान व्यवसाय — ने यहाँ के स्थानीय लोगों के साथ-साथ बाहरी लोगों को भी आजीविका दी है। गर्मियों में जब रामपुर की गलियाँ धूप से तप रही होती हैं, नैनीताल की गलियाँ चहल-पहल से भर जाती हैं। होटलों की बुकिंग से लेकर नाव चलाने वाले, बाजारों में स्मृति-चिह्न बेचने वाले या घूमने वाले गाइड — हर कोई इस पर्यटन-श्रृंखला का हिस्सा है। यह अर्थव्यवस्था केवल पैसों का लेन-देन नहीं, बल्कि भावनाओं, सौहार्द और मिलन का भी माध्यम बन चुकी है। रामपुर के कई युवा आज नैनीताल में सीजनल काम करते हैं, कुछ परिवारों ने यहाँ स्थायी बसावट भी कर ली है। त्योहारों पर नैना देवी मंदिर और गर्मियों की छुट्टियों में मॉल रोड, दोनों ही उत्तर भारत के सांस्कृतिक मेलजोल के साक्षी बन जाते हैं। नैनीताल की अर्थव्यवस्था में पर्यटक केवल ग्राहक नहीं — बल्कि साझेदार हैं, जो हर साल इस शहर की जीवंतता को फिर से संजीवनी देते हैं। यह जुड़ाव ही नैनीताल को केवल एक गंतव्य नहीं, बल्कि एक जीवंत संस्कृति का केन्द्र बना देता है।
संदर्भ-
रामपुर की कुल्फी से इटली के जिलेटो तक: जानिए आइसक्रीम बनने की पूरी प्रक्रिया
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
20-07-2025 09:34 AM
Rampur-Hindi

जब रामपुर की गर्मियों में मोहल्ले की किसी दुकान से कोई बच्चा 5 रुपये की कुल्फी लेकर दौड़ता है, या किसी पुरानी हवेली की छांव में बैठकर बनाना स्प्लिट (Banana Split Icecream) और हॉट फज संडे (Hot Fudge Sunday) की बातें होती हैं — तब समझ आता है कि आइसक्रीम सिर्फ मिठाई नहीं, बल्कि बचपन की ठंडी यादों का हिस्सा है। चाहे रामपुर की पारंपरिक कुल्फी हो या विदेशी जिलेटो (Gelato) और जापानी मोची — हर जगह ने इस जमी हुई मिठास को अपनी संस्कृति में ढाल लिया है। आज दुनिया भर में आइसक्रीम का उत्पादन और खपत तेजी से बढ़ रही है। अकेले अमेरिका और चीन हर साल 12 बिलियन लीटर से ज़्यादा आइसक्रीम का सेवन करते हैं। और अब जब लोग लो-फैट, ऑर्गेनिक और डेयरी-फ्री विकल्प ढूंढ़ रहे हैं, तो रामपुर जैसे शहरों में भी आइसक्रीम के नए स्वाद और स्वास्थ्यवर्धक संस्करण लोकप्रिय हो रहे हैं। इससे आइसक्रीम निर्माण की तकनीकें भी बदल रही हैं और छोटे कस्बों के उद्यमियों के लिए नए अवसर खुल रहे हैं।
पहले वीडियो में हम देखेंगे कि हमारी पसंदीदा आइसक्रीम्स कैसे बनाई जाती हैं।
आइसक्रीम बनाना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें कई चरण होते हैं:
1. मिक्सिंग और पाश्चराइजेशन (Mixing & Pasteurization):
सबसे पहले, दूध, क्रीम, चीनी, फ्लेवर (Flavourings), स्टेबलाइज़र (Stabilisers) और इमल्सीफायर (Emulsifiers) जैसी सभी आवश्यक सामग्री को अच्छी तरह से मिलाया जाता है। इसके बाद इस मिश्रण को 65°C से 85°C तक गर्म किया जाता है ताकि उसमें मौजूद हानिकारक रोगाणु (Microorganisms) नष्ट हो जाएं। यह चरण सुरक्षा (Safety) और शेल्फ लाइफ (Shelf Life) बढ़ाने के लिए अनिवार्य होता है।
2. होमोजेनाइजेशन (Homogenization):
इस चरण में मिश्रण को उच्च दाब (High Pressure) में होमोजेनाइज़र (Homogenizer) से गुज़ारा जाता है। इससे वसा (Fat) के बड़े-बड़े कण टूटकर बहुत छोटे ग्लोब्यूल्स (Fat Globules) में बदल जाते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य है कि आइसक्रीम की बनावट मुलायम (Smooth) और एकसमान (Uniform) बनी रहे।
3. कूलिंग और एजिंग (Cooling & Ageing):
पाश्चराइजेशन के बाद मिश्रण को लगभग 4°C तक ठंडा किया जाता है और उसे 4 से 24 घंटे तक ऐसे ही रखा जाता है। इस प्रक्रिया को एजिंग (Ageing) कहते हैं। इस समय के दौरान वसा धीरे-धीरे क्रिस्टलाइज़ (Crystallize) होती है और सूखी सामग्री जैसे दूध प्रोटीन (Milk Proteins) और शर्करा (Lactose) पूरी तरह हाइड्रेट (Hydrate) हो जाती है, जिससे मिश्रण गाढ़ा और स्थिर बनता है।
4. फ्रीज़िंग और एयर इन्कॉरपोरेशन (Freezing & Air Incorporation):
अब एजिंग किए गए मिश्रण को -5°C तापमान पर कंटीन्युअस फ्रीज़र (Continuous Freezer) में डाला जाता है। इस समय तक मिश्रण में लगभग 50% पानी बर्फ में बदल जाता है। साथ ही इसमें नियंत्रित मात्रा में हवा (Air) भी मिलाई जाती है, जिसे ओवररन (Overrun) कहा जाता है। यह आइसक्रीम को हल्का, फूला हुआ और क्रीमी बनाता है।
5. हार्डनिंग (Hardening):
आखिरी चरण में, आइसक्रीम को -40°C के तापमान पर रखा जाता है, जिसे हार्डनिंग (Hardening) कहते हैं। इससे बचा हुआ सारा पानी जम जाता है और आइसक्रीम को उसकी अंतिम ठोस बनावट मिलती है। इस प्रक्रिया के बाद ही आइसक्रीम को स्टोरेज या वितरण के लिए भेजा जाता है।
नीचे दिए गए लिंक के ज़रिए आइए देखते हैं कि आइसक्रीम कैसे बनाई जाती है।
संदर्भ-
संस्कृति 2073
प्रकृति 761