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लखनऊवासियों, नवाबी तहज़ीब, चिकनकारी और कलात्मक शिल्प के लिए मशहूर हमारे शहर में एक ऐसी कला चुपचाप अपनी पहचान बना रही है, जो न सिर्फ़ धागों को गूंथती है, बल्कि रचनात्मकता, धैर्य और आत्मिक संतुलन को भी एक नया रूप देती है, क्रोशिया सिलाई (crochet stitching) कोई साधारण कारीगरी नहीं, बल्कि एक ऐसी साधना है जो हर फंदे के साथ मन को स्थिरता और आत्मा को सुकून देती है, जिसमें हर गाँठ, हर डिज़ाइन (design) एक कहानी कहती है। लखनऊ की पहचान जहां ज़री-ज़रदोज़ी, चिकन और मीनाकारी जैसे पारंपरिक हस्तशिल्पों से रही है, वहीं अब क्रोशिया जैसी विदेशी जड़ों वाली कला भी इस सांस्कृतिक गहने में चमकदार मोती की तरह जुड़ रही है। आज की इस बदलती पीढ़ी में, जहां एक ओर विरासतों को सहेजने की चाह है, वहीं दूसरी ओर नई तकनीकों के प्रति उत्सुकता भी है, ऐसे में क्रोशिया दोनों का सेतु बनता दिख रहा है।
आज हम जानेंगे कि क्रोशिया सिलाई वास्तव में होती क्या है, और किस तरह क्रोकेट हुक (crochet hook) व धागे की मदद से रंग-बिरंगी आकृतियाँ बनाई जाती हैं। फिर, हम इतिहास के झरोखे से देखेंगे कि यह कला यूरोप (Europe) से निकलकर भारत और विशेष रूप से लखनऊ जैसे शहरों तक कैसे पहुँची। इसके बाद, हम समझेंगे कि यह बुनाई कला हमारे धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन में किस रूप में रच-बस चुकी है, मंदिरों की पिछवाइयों से लेकर प्रार्थना की टोपियों तक। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि क्रोशिया सिलाई मानसिक स्वास्थ्य के लिए कितनी उपयोगी हो सकती है, और कैसे यह तनाव, चिंता व अवसाद को कम करने में मदद करती है।
क्रोशिया सिलाई क्या है और इसे कैसे किया जाता है?
क्रोशिया, जिसे अंग्रेज़ी में (Crochet) कहा जाता है, सिलाई की एक बेहद विशिष्ट और कलात्मक तकनीक है, जिसमें धागे को एक विशेष हुक - क्रोकेट हुक - की मदद से बुनकर विभिन्न आकृतियाँ बनाई जाती हैं। यह कोई साधारण कढ़ाई नहीं है, इसमें हर गाँठ, हर मोड़ में एक तरह की रचनात्मकता झलकती है। क्रोशिया हुक अक्सर धातु, लकड़ी, बांस, हाथी दांत या प्लास्टिक (plastic) जैसी सामग्रियों से बनाए जाते हैं, और इन्हें विभिन्न आकारों में तैयार किया जाता है ताकि मोटे से पतले धागों तक का काम सुगमता से हो सके।
लखनऊ जैसे पारंपरिक और सौंदर्यप्रिय शहर में महिलाएँ अब इस तकनीक को सिर्फ एक घरेलू काम नहीं, बल्कि एक रचनात्मक हस्तशिल्प के रूप में देखती हैं। क्रोशिया से बनने वाली वस्तुओं में केवल लेस (lace), मेज़पोश, परदे, या तकिए की खोलें ही नहीं, बल्कि नवजात शिशुओं के कपड़े, हाथ से बने खिलौने, जानवरों की आकृतियाँ, हेडबैंड्स, बुने हुए बैग्स, और मोबाइल कवर तक शामिल हैं। आधुनिक लखनऊ की महिलाएँ सोशल मीडिया (social media) और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स (online platforms) का प्रयोग करते हुए अपने डिज़ाइनों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचा रही हैं। यही कारण है कि यह कला एक बार फिर जीवंत हो उठी है, पुराने और नए का सुंदर संगम बनकर।
क्रोशिया कला का ऐतिहासिक सफर - यूरोप से भारत तक
क्रोशिया सिलाई की जड़ें यूरोप के मध्ययुगीन इतिहास से जुड़ी हैं। 15वीं शताब्दी में फ्रांस (France) और आयरलैंड (Ireland) जैसे देशों में यह कला मुख्यतः महिलाओं द्वारा धार्मिक वस्त्रों, रूमालों, और परदों को सजाने के लिए प्रयोग की जाती थी। धीरे-धीरे रूस, इटली और अन्य यूरोपीय देशों में भी इसका प्रसार हुआ, जहाँ इसने एक सजावटी और सांस्कृतिक हस्तकला का रूप ले लिया। वहाँ से यह सिलाई की तकनीक भारत में यूरोपीय मिशनरियों के माध्यम से पहुँची, जो न केवल अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे, बल्कि स्थानीय महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में भी प्रशिक्षित कर रहे थे। भारत में इसका पहला औपचारिक दस्तावेज़ी उल्लेख 1818 में मिलता है, जब श्रीमती माल्ट (Mrs. Malt) नामक एक यूरोपीय महिला ने केरल के क्विलन (Quilon) और तिरुवनंतपुरम में क्रोशिया कार्यशालाओं की शुरुआत की। वहाँ से यह सिलाई तिनेवेली, मबुराई और आंध्र प्रदेश के पालकोल्लु व नरसापुर तक पहुँची, जहाँ यह एक पूर्ण कुटीर उद्योग बन गई। उत्तर भारत में यह कला दिल्ली, हैदराबाद और विशेष रूप से मिर्ज़ापुर में फैल गई। लखनऊ, जो अपने ज़रदोज़ी, चिकनकारी और पारंपरिक कढ़ाई के लिए प्रसिद्ध है, वहाँ क्रोशिया एक पूरक कला के रूप में उभर रही है, जो अब पारंपरिक और आधुनिक डिज़ाइनों के संलयन का प्रतीक बन चुकी है।
क्रोशिया सिलाई का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व
भारत जैसे विविध धार्मिक और सांस्कृतिक देश में, क्रोशिया सिलाई केवल एक सजावटी हस्तकला नहीं रही, यह हमारी परंपराओं और आस्थाओं से भी जुड़ गई है। उदाहरण के लिए, राजस्थान और गुजरात में वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण के लिए पिछवाइयाँ (दीवार पर टांगे जाने वाले सजावटी वस्त्र) क्रोशिया से बनाते हैं। ये पिछवाइयाँ अक्सर जटिल फूल-पत्तियों, मोर, और गोपियों की आकृतियों से सजी होती हैं और इन्हें महीनों की मेहनत से तैयार किया जाता है। इसी तरह मुस्लिम समुदाय में नमाज़ के दौरान पहनी जाने वाली जालीदार टोपियाँ, जिन्हें बड़े आदर और श्रद्धा के साथ बुना जाता है, भी क्रोशिया सिलाई का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ विभिन्न धर्मों का सहअस्तित्व है, वहाँ यह कला दोनों समुदायों में अपनाई जाती है। विवाह के उपहारों में हाथ से बनी थालपोश, दूल्हे की साफे की लेस, दुल्हन की साड़ियों के बॉर्डर (border), या सजावटी पर्दे, ये सभी वस्तुएँ अब फिर से प्रचलन में आ रही हैं। यह दर्शाता है कि क्रोशिया केवल फैशन (fashion) का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का भी अभिन्न अंग है।
क्रोशिया और मानसिक स्वास्थ्य का संबंध
आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। ऐसे में क्रोशिया जैसी पारंपरिक हस्तकला आश्चर्यजनक रूप से थैरेप्यूटिक (चिकित्सात्मक) (Therapeutic) साबित हो रही है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार जब हम हाथों से कोई दोहराव वाला कार्य करते हैं, जैसे क्रोशिया की गाँठें बनाना, डिज़ाइन पर ध्यान केंद्रित करना, या पैटर्न का अनुसरण करना, तो हमारे मस्तिष्क में सेरोटोनिन (serotonin) नामक हार्मोन (hormone) का स्राव होता है, जो तनाव और चिंता को कम करता है, और हमारे मूड (mood) को बेहतर बनाता है। लखनऊ की कई गृहणियाँ और रिटायर्ड (retired) महिलाएँ अब इसे 'मन की शांति' का साधन मानती हैं। लॉकडाउन (lockdown) के दौरान जब बाहर निकलना संभव नहीं था, तब क्रोशिया एक सुकून देने वाली गतिविधि बनकर उभरी। महिलाएँ अकेले बैठकर घंटों तक रंग-बिरंगे धागों से आकृतियाँ बनाती रहीं, जिससे उनका मन एकाग्र और शांत रहा। यही नहीं, यह कला अब युवाओं में भी लोकप्रिय हो रही है, जो इसे एक क्लिक-एंड-क्रिएट (Click-and-Create) दुनिया के विकल्प के रूप में देख रहे हैं। कुछ ऐसा जिसे आप अपने हाथों से गढ़ते हैं, और जिससे न केवल सुंदर वस्तुएँ बनती हैं, बल्कि मन भी स्थिर होता है।
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