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मेरठ भारत के बौद्धिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। जहाँ एक ओर यह नगर 1857 की पहली क्रांति का उद्गम स्थल रहा, वहीं दूसरी ओर इसने छपाई और प्रकाशन की दुनिया में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। 19वीं सदी के दौरान जब भारत में मुद्रण तकनीक अपने शुरुआती चरण में थी, मेरठ ने उसे शिक्षा, धर्म, सामाजिक सुधार और जन-जागरण के लिए एक प्रभावशाली माध्यम के रूप में अपनाया। हिंदी और उर्दू भाषाओं में छपने वाले साहित्य ने यहाँ विचारों की नई बुनियाद रखी और एक जीवंत बौद्धिक वातावरण को जन्म दिया। मेरठ का प्रकाशन उद्योग केवल शब्दों का व्यापार नहीं था, बल्कि यह विचारों की आज़ादी, सांस्कृतिक जागरूकता और राष्ट्रीय चेतना की आधारशिला बन गया।इस लेख में हम सबसे पहले मेरठ में छपाई उद्योग की ऐतिहासिक शुरुआत को समझेंगे और फिर 19वीं सदी में उत्तर भारत में प्रिंटिंग प्रेस की व्यापक स्थिति का विश्लेषण करेंगे। इसके बाद हम मेरठ में हिंदी और उर्दू भाषाओं की भूमिका का विवेचन करेंगे और सरधना की बेगम समरू तथा ईसाई मिशनरियों के योगदान को विस्तार से देखेंगे। हम यह भी जानेंगे कि भारत में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत गोवा से कैसे हुई और अंत में स्वतंत्रता संग्राम में प्रेस की भूमिका पर प्रकाश डालेंगे। यह लेख मेरठ के बौद्धिक और ऐतिहासिक योगदान को गहराई से रेखांकित करेगा।
मेरठ में प्रकाशन उद्योग की ऐतिहासिक शुरुआत
मेरठ में प्रकाशन उद्योग की नींव 19वीं सदी में पड़ी, जब यह शहर राजनीतिक, शैक्षणिक और धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बनने लगा था। उस समय छपाई की तकनीक नई-नई आई थी और कुछ शिक्षित वर्गों ने इस तकनीक को अपनाया। शुरूआत में धार्मिक ग्रंथों, शिक्षाप्रद पुस्तकों और सरकारी आदेशों को छापा गया, लेकिन धीरे-धीरे सामाजिक सुधारकों, पत्रकारों और स्वतंत्रता सेनानियों ने भी इस माध्यम का भरपूर उपयोग किया। मेरठ में स्थापित शुरुआती प्रेसों में ‘एंग्लो-वर्नाक्यूलर प्रेस’, ‘मिशनरी प्रेस’ और स्थानीय रूप से संचालित प्रेसों ने मिलकर जनचेतना के विस्तार में योगदान दिया। इस प्रकार, मेरठ का छपाई उद्योग न केवल व्यापारिक गतिविधि बना बल्कि एक वैचारिक क्रांति का साधन भी बना।
19वीं सदी में उत्तर भारत में प्रिंटिंग प्रेस की स्थिति
19वीं सदी का उत्तर भारत सामाजिक परिवर्तन और नवजागरण की प्रक्रिया से गुजर रहा था। इस काल में प्रिंटिंग प्रेस ने ज्ञान के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनकर नई चेतना का सूत्रपात किया। बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ और मेरठ जैसे नगरों में अंग्रेज़ों ने प्रेस की स्थापना की, वहीं भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी निजी प्रेस शुरू किए। इस दौर में हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी जैसी भाषाओं में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक विषयों पर सामग्री छपने लगी। इससे समाज के विभिन्न वर्गों तक सुलभ ज्ञान पहुँचने लगा और शिक्षित नागरिकों की एक नई पीढ़ी तैयार हुई। छपाई की गुणवत्ता, टाइप कास्टिंग, मुद्रण तकनीक और कागज की उपलब्धता जैसे तकनीकी पक्षों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई।
मेरठ में हिंदी और उर्दू भाषाओं की भूमिका
मेरठ, जहाँ हिंदी और उर्दू भाषाएँ समान रूप से बोली और समझी जाती थीं, वहाँ प्रकाशन उद्योग में इन दोनों भाषाओं की प्रमुख भूमिका रही। हिंदी भाषा में छपने वाली धार्मिक कथाएँ, रामचरितमानस की व्याख्याएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ और शिक्षा से जुड़ी पुस्तकें समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करती थीं। वहीं, उर्दू में शायरी, ग़ज़ल, इस्लामी साहित्य, तर्कशास्त्र और तात्कालिक राजनीतिक विचारधाराओं को अभिव्यक्त किया गया। मेरठ से निकलने वाले उर्दू अखबारों और रिसालों ने एक बौद्धिक संवाद की शुरुआत की। इन दोनों भाषाओं के माध्यम से शहर के प्रेसों ने साहित्यिक संस्कृति को जीवंत रखा, धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा दिया और भाषायी एकता की भावना का प्रसार किया।

सरधना की बेगम समरू और ईसाई मिशनरियों का योगदान
मेरठ से कुछ किलोमीटर दूर स्थित सरधना रियासत की शासिका बेगम समरू न केवल एक राजनैतिक व्यक्तित्व थीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से भी प्रभावशाली थीं। वे ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुकी थीं और उन्होंने स्थानीय स्तर पर मिशनरियों को शिक्षा और धर्म प्रचार के लिए संरक्षण दिया। इन मिशनरियों ने मेरठ और आस-पास के क्षेत्रों में स्कूल, चर्च और पुस्तकालयों की स्थापना की। उनके द्वारा स्थापित प्रेसों से अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषाओं में धार्मिक ग्रंथ, शिक्षण सामग्री, स्वास्थ्य सम्बन्धी पुस्तिकाएं और सामाजिक सुधार से जुड़ी सामग्री छापी गई। बेगम समरू की आर्थिक सहायता और प्रशासनिक समर्थन के कारण मिशनरियों को छपाई के लिए ज़रूरी संसाधन प्राप्त हुए। इससे मेरठ के बौद्धिक माहौल को नई दिशा मिली।
भारत में प्रिंटिंग प्रेस का प्रारंभिक इतिहास (गोवा से प्रारंभ)
भारत में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत 1556 ईस्वी में पुर्तगाली मिशनरियों द्वारा गोवा में की गई थी, जब यूरोप से पहला प्रिंटिंग प्रेस भारत लाया गया। इस प्रेस से प्रकाशित पहली पुस्तक ‘डोत्रिना क्रिस्ता’ थी, जो ईसाई धर्म के सिद्धांतों पर आधारित थी। उस समय छपाई का उद्देश्य मुख्यतः धर्म प्रचार था, लेकिन यह धीरे-धीरे एक शैक्षणिक और सामाजिक माध्यम बन गया। दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में तमिल, तेलुगु और मलयालम जैसी भाषाओं में भी धार्मिक साहित्य छपने लगा। 18वीं सदी में प्रेस की तकनीक बंगाल, महाराष्ट्र और फिर उत्तर भारत में पहुँची। इस ऐतिहासिक यात्रा में मेरठ जैसे नगरों ने प्रिंटिंग प्रेस को सामाजिक जागरण के हथियार के रूप में उपयोग किया, जिससे भारतीय भाषाओं का विकास और ज्ञान का लोकतंत्रीकरण संभव हो सका।

स्वतंत्रता संग्राम में प्रिंटिंग प्रेस की भूमिका
1857 की क्रांति की चिंगारी मेरठ में ही भड़की और इसके बाद प्रेसों ने इस संघर्ष की आवाज़ को जन-जन तक पहुँचाया। उस समय जब ब्रिटिश सरकार समाचारों और जनसूचना पर कड़ा नियंत्रण रखती थी, तब भूमिगत प्रेस और गुप्त रूप से छपने वाले पर्चे लोगों को सच से अवगत कराते थे। क्रांतिकारी नेताओं और विचारकों ने प्रेस का उपयोग ब्रिटिश नीतियों की आलोचना, भारतीय गौरव के बखान और एकजुटता की भावना फैलाने के लिए किया। हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में छपने वाले राष्ट्रवादी लेखों, कविताओं, सन्देशों और समाचार पत्रों ने स्वतंत्रता के आंदोलन को वैचारिक आधार दिया। ‘स्वराज’, ‘हिंदुस्तान’, ‘ज़माना’ जैसे प्रकाशन पत्र आंदोलन के औजार बने। मेरठ का प्रेस इन प्रकाशनों का एक अहम केंद्र बना और यहाँ के कार्यकर्ताओं ने सेंसरशिप के भय के बावजूद राष्ट्र के प्रति निष्ठा के साथ कार्य किया।
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