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मेरठवासियों, क्या आपने कभी कल्पना की है कि हमारी नाक जैसी जटिल और संवेदनशील प्रणाली को कोई मशीन भी नकल कर सकती है? और अगर ऐसा संभव है, तो सोचिए - उस मशीन का उपयोग सिर्फ गंध पहचानने तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वह हमारे जीवन के अनेक क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती है। आज विज्ञान ने ऐसी ही एक अद्भुत तकनीक विकसित की है जिसे इलेक्ट्रॉनिक नाक (Electronic Nose) कहा जाता है। यह उपकरण गंधों की पहचान करता है, उनका विश्लेषण करता है, और उनकी प्रकृति के आधार पर निर्णय लेता है - बिल्कुल इंसानी नाक की तरह, लेकिन कहीं अधिक सटीकता और स्थिरता के साथ। चाहे चिकित्सा के क्षेत्र में सांस की गंध से रोग की पहचान करनी हो, खाद्य पदार्थों की ताजगी जांचनी हो, पर्यावरण में जहरीली गैसों की उपस्थिति पता करनी हो या फिर अंतरिक्ष जैसे दुर्गम वातावरण में जीवन रक्षक प्रणालियों की निगरानी करनी हो - यह तकनीक हर जगह उपयोगी साबित हो रही है। मेरठ जैसे तेज़ी से विकसित होते शहर में, जहाँ उद्योग, स्वास्थ्य सेवाएँ और वैज्ञानिक अनुसंधान लगातार विस्तार पा रहे हैं, वहाँ इलेक्ट्रॉनिक नाक जैसी तकनीकों की उपयोगिता आने वाले समय में और भी अधिक बढ़ने वाली है।
इस लेख में हम जानेंगे कि इलेक्ट्रॉनिक नाक वास्तव में क्या है और यह कैसे कार्य करती है। इसके बाद हम देखेंगे कि इसका उपयोग स्वास्थ्य, खाद्य, रक्षा और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्रों में कैसे हो रहा है। हम जीसी-ओ (GC-O - Gas Chromatography-Olfactometry) तकनीक और ओल्फैक्टोग्राम (Olfactogram) के माध्यम से गंध विश्लेषण के वैज्ञानिक पहलुओं को समझेंगे। इसके साथ ही हम ओल्फैक्टोमीटर (Olfactometer) नामक उपकरण की रचना और मापन के तरीकों को जानेंगे। अंत में, हम गंध पहचान की जैविक सीमाओं और गंध आधारित जल गुणवत्ता मापन प्रणाली की संभावनाओं पर भी चर्चा करेंगे।
इलेक्ट्रॉनिक नाक क्या है और यह कैसे काम करती है?
इलेक्ट्रॉनिक नाक एक ऐसा विश्लेषणात्मक उपकरण है जिसे विशेष रूप से गंध पहचानने के लिए बनाया गया है। यह मानव घ्राण प्रणाली की नकल करता है लेकिन उसमें और अधिक सटीकता और स्थिरता प्रदान करता है। इसकी संरचना में गैस सेंसरों (gas sensors) की एक सरणी होती है, जो किसी भी वाष्पशील यौगिक (volatile compound) के संपर्क में आते ही प्रतिक्रिया देती है। ये सेंसर रासायनिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर इलेक्ट्रिकल सिग्नल (electrical signal) उत्पन्न करते हैं। यह सिग्नल फिर एक पैटर्न (pattern) पहचान प्रणाली तक भेजा जाता है, जहाँ यह एक विशिष्ट "डिजिटल गंध फिंगरप्रिंट" (Digital odor fingerprint) में बदला जाता है। इस प्रक्रिया का अगला चरण एक कंप्यूटर यूनिट (computer unit) में होता है, जो सेंसर और पैटर्न से आए डेटा का विश्लेषण करके उस गंध की पहचान करता है। इस पूरी प्रणाली का आधार यही है - अलग-अलग यौगिकों पर विभिन्न सेंसर अलग-अलग प्रतिक्रिया देंगे, और मिलकर एक पैटर्न बनाएँगे जिसे मशीन पहचान सकती है। यह तकनीक अब रासायनिक विश्लेषण की दुनिया में एक आवश्यक साधन बन चुकी है।
इलेक्ट्रॉनिक नाक के विविध उपयोग: स्वास्थ्य से लेकर अंतरिक्ष तक
इलेक्ट्रॉनिक नाक का उपयोग अब केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं है। यह स्वास्थ्य, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा और अंतरिक्ष विज्ञान तक में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। चिकित्सा क्षेत्र में यह तकनीक सांस के नमूनों का विश्लेषण करके बीमारियों की पहचान में सहायक बन चुकी है - जैसे फेफड़ों की बीमारी, कैंसर या संक्रमण। यह एक गंध आधारित डायग्नोस्टिक टूल के रूप में उभर रही है। खाद्य उद्योग में यह तकनीक भोजन की ताजगी, गुणवत्ता और भंडारण स्थिति का अनुमान लगाने में मदद करती है - जैसे दूध के खट्टे होने से पहले उसकी पहचान हो सके। पर्यावरणीय निगरानी में यह विषैली गैसों की पहचान कर प्रदूषण रोकने में मदद करती है। रक्षा क्षेत्र में यह विस्फोटक या रासायनिक हथियारों की गंध पहचानने में उपयोग होती है। और अंतरिक्ष क्षेत्र में, नासा (NASA) इसे अपने स्पेस मिशनों (space missions) में संभावित खतरों की निगरानी के लिए प्रयोग कर रहा है। यह तकनीक वास्तव में बहुआयामी है।
गैस क्रोमैटोग्राफ़ी-ओलफ़ैक्टोमेट्री (GC-O): गंध विश्लेषण में मानव और मशीन का समन्वय
जीसी-ओ तकनीक, जिसे गैस क्रोमैटोग्राफ़ी-ओलफ़ैक्टोमेट्री कहा जाता है, गंध विश्लेषण का एक अनोखा तरीका है जिसमें इंसान और मशीन मिलकर काम करते हैं। इस प्रणाली में गैस क्रोमैटोग्राफ नमूने में मौजूद विभिन्न यौगिकों को समय के अनुसार अलग करता है। इसके बाद इन यौगिकों को दो रास्तों में बाँटा जाता है - एक मशीन द्वारा विश्लेषण के लिए और दूसरा मानव पैनलिस्ट (penalty) द्वारा सूंघने के लिए। मानव पैनलिस्ट एक विशेष मास्क पहनकर गंधों को सूंघता है और जब उसे कोई विशिष्ट गंध महसूस होती है, तो वह बटन दबाता है। इस बटन दबाने की क्रिया को ओल्फैक्टोग्राम में रिकॉर्ड किया जाता है, जो उस यौगिक की पहचान को समय और तीव्रता के साथ जोड़ता है। यह प्रक्रिया यह दिखाती है कि किन यौगिकों की गंध मानव नाक के लिए संवेदनशील है, जो कभी-कभी मशीन द्वारा पूरी तरह नहीं पहचानी जा सकती।
ओलफ़ैक्टोमीटर की संरचना और गंध मापन में इसकी भूमिका
ओलफ़ैक्टोमीटर एक अत्याधुनिक उपकरण है जो किसी गंध की तीव्रता, गुणवत्ता और उपस्थिति को मापने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसकी संरचना में एक वायुप्रवाह नियंत्रक (mass flow controller), वाल्व प्रणाली और कैसेट आधारित डिज़ाइन (design) होती है जो विभिन्न गंधों को नियंत्रित मात्रा में मानव निरीक्षक तक पहुँचाती है। यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि हर पैनलिस्ट को गंध की समान मात्रा मिले। गंध यौगिकों का ऑक्सीकरण न हो, इसके लिए आमतौर पर इसमें नाइट्रोजन (Nitrogen) जैसी निष्क्रिय गैसों का उपयोग किया जाता है। इससे मापन अधिक सटीक और विश्वसनीय बनता है। इस उपकरण में डिजिटल (digital) और एनालॉग (analog) दोनों तरह के नियंत्रण होते हैं, जिससे यह कई वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रयोगों में प्रयोज्य है। ओलफ़ैक्टोमीटर की मदद से किसी गंध की "थ्रेशहोल्ड लिमिट" (Threshold Limit) भी निर्धारित की जाती है।
गंध पहचान की जैविक सीमा और यौगिकों की विशेषताएं
मानव नाक हर गंध को एक जैसी संवेदनशीलता से नहीं पहचानती। गंध पहचान की जैविक सीमा इस बात पर निर्भर करती है कि कोई यौगिक कितनी न्यूनतम सांद्रता में मौजूद हो और नाक उसे महसूस कर सके। यह सीमा यौगिक की आणविक विशेषताओं - जैसे उसका आकार, ध्रुवता (polarity), और आंशिक आवेश - पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, कुछ आइसोमर्स (Isomers), जिनका रासायनिक फॉर्मूला (chemical formula) एक जैसा होता है, अलग-अलग गंध उत्पन्न करते हैं। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि हमारी घ्राण प्रणाली में अभी भी कई रहस्य हैं जिनका उत्तर नहीं मिला है। यही कारण है कि गंध पहचान के क्षेत्र में मशीनों के साथ-साथ मानव अनुभव को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह वैज्ञानिक और जैविक समझ दोनों का समन्वय मांगता है।
जल प्रबंधन और गंध सीमा: पानी की गुणवत्ता की सूंघनीय कसौटी
गंध का उपयोग अब केवल हवा की गुणवत्ता जांचने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि जल और अपशिष्ट जल की गुणवत्ता के निर्धारण में भी इसकी अहम भूमिका है। गंध को मापने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय पैमाना है जिसे दहलीज गंध संख्या (TON) कहा जाता है। यह बताता है कि किसी पानी के नमूने में गंध कितनी तीव्रता से महसूस की जा सकती है। दहलीज गंध संख्या का उपयोग यह तय करने में किया जाता है कि क्या कोई जल स्रोत पीने योग्य है या नहीं। उदाहरण के तौर पर, अमेरिका के इलिनोइस (Illinois) राज्य में इस मानक को कठोरता से लागू किया गया है, जिससे उपभोक्ताओं को गुणवत्ता युक्त जल सुनिश्चित किया जा सके। भारत में भी अब जल गुणवत्ता की जांच के लिए गंध मापन को एक निर्णायक मानदंड के रूप में अपनाने की दिशा में कार्य हो रहा है, खासकर शहरी जलापूर्ति और अपशिष्ट जल उपचार परियोजनाओं में।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/6n5mw87v
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