रामपुरवासियों, क्या आप जानते हैं भारत की पहली महाशक्ति – कुरु साम्राज्य के बारे में?

ठहरावः 2000 ईसापूर्व से 600 ईसापूर्व तक
14-08-2025 09:28 AM
रामपुरवासियों, क्या आप जानते हैं भारत की पहली महाशक्ति – कुरु साम्राज्य के बारे में?

रामपुरवासियों, आज हम आपको इतिहास की उस महत्वपूर्ण शाखा से परिचित कराने जा रहे हैं, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप की प्रारंभिक राजनीति, समाज और संस्कृति को आकार दिया, वह है कुरु साम्राज्य। यह प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली और प्रभावशाली राज्य था, जिसकी जड़ें वैदिक काल तक फैली हुई थीं। महाभारत जैसे महाकाव्य और ऋग्वेद जैसे ग्रंथों में वर्णित यह साम्राज्य, केवल एक भू-राजनीतिक सत्ता नहीं था, बल्कि भारतीय सभ्यता के विकास की एक आधारशिला था। वर्तमान दिल्ली, मेरठ, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैले इस क्षेत्र में कुरु वंश ने न केवल शासन किया, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं, धार्मिक परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों की दिशा भी निर्धारित की। 

इस लेख में हम कुरु साम्राज्य से जुड़ी उन ऐतिहासिक परतों को उजागर करेंगे, जो न केवल भारतीय इतिहास की नींव रखती हैं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक समझ को भी समृद्ध करती हैं। हम सबसे पहले कुरु साम्राज्य की भौगोलिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानेंगे, फिर कौरव जनजाति की उत्पत्ति और उसकी विभिन्न शाखाओं पर नज़र डालेंगे। इसके बाद महाभारत में कुरु राज्य की भूमिका और उससे जुड़े राजनीतिक-सामरिक पहलुओं को समझेंगे। साथ ही, उस समय की सामाजिक संरचना और वर्ण व्यवस्था पर भी विचार करेंगे। अंत में, कुरु काल के सिक्कों और पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से उस युग की आर्थिक और सांस्कृतिक झलक पाने की कोशिश करेंगे।

कुरु साम्राज्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और भौगोलिक विस्तार
कुरु साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप की पहली ऐसी सत्ता मानी जाती है जिसे राज्य-स्तरीय सभ्यता का दर्जा प्राप्त हुआ। इसका भौगोलिक विस्तार दिल्ली, मेरठ, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था। यह क्षेत्र वैदिक और उत्तरवैदिक काल के अनेक ऐतिहासिक घटनाक्रमों का केंद्र रहा। वैदिक ग्रंथों में “उत्तर कुरु” और “दक्षिण कुरु” की अवधारणाएँ उल्लेखनीय रूप से मिलती हैं। इनसे पता चलता है कि यह साम्राज्य केवल राजनीतिक शक्ति नहीं था, बल्कि वैचारिक और सांस्कृतिक पहचान भी था। राजधानी के रूप में संदीवत और इन्दपट्टा का उल्लेख मिलता है। ये स्थल महाभारत और पुराणों में बार-बार वर्णित हैं।

कौरव जनजाति की उत्पत्ति और शाखाएँ
कौरवों की उत्पत्ति ऋग्वैदिक युग में “इमुकुरस” और “उत्तराम्बरस” जैसी जनजातियों से मानी जाती है। ये शाखाएँ कालांतर में राजनीतिक संगठन और कुल वंश की नींव बनीं। कौरव वंश को पुरु वंश की शाखा माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति की कथा ब्रह्मा द्वारा रचित आर्य वंश से जोड़ी जाती है। इनका राजनीतिक और वैवाहिक संबंध यादवों, पांचालों और भोजों से रहा, जिससे उनकी शक्ति और विस्तार को मजबूती मिली। इस सहयोग से एक बहु-जातीय और गठबंधन आधारित राजनयिक प्रणाली का निर्माण हुआ। कौरवों की पहचान केवल शक्ति से नहीं, बल्कि उनके सामाजिक ताने-बाने से भी परिभाषित होती है।

कुरु राज्य और महाभारत का संबंध
कुरु साम्राज्य महाभारत का प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा। हस्तिनापुर, कुरुक्षेत्र और कुरुजंगल जैसे क्षेत्र महाभारत की घटनाओं के प्रमुख स्थल रहे हैं। यह केवल एक राजवंश नहीं, बल्कि एक ऐसी परंपरा थी जिसने धर्म, नीति और युद्ध की अवधारणाओं को पुनर्परिभाषित किया। महाभारत में कुरु नीतियों, युद्धनीति और सामाजिक मूल्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। कौरवों का वर्चस्व केवल सैन्य बल पर नहीं, बल्कि बौद्धिक और धार्मिक अनुशासन पर आधारित था। ये स्थान भारतीय सांस्कृतिक स्मृति में आज भी गहरे बसे हुए हैं। उनका प्रभाव धार्मिक ग्रंथों, रीति-रिवाजों और सामाजिक ढाँचों में विद्यमान है।

कुरु साम्राज्य की सामाजिक संरचना और वर्ण व्यवस्था
कुरु साम्राज्य के समय में पहली बार चार वर्णों की स्पष्ट रूपरेखा सामने आती है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह संरचना ऋग्वैदिक आर्य-दास प्रणाली से विकसित हुई थी और धार्मिक समर्थन से सशक्त बनी। ब्राह्मणों को शिक्षा और यज्ञ का अधिकार मिला, क्षत्रियों को शासन और सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया। वैश्य व्यापार और कृषि से जुड़े, जबकि शूद्रों को सेवाकार्यों में नियोजित किया गया। यह व्यवस्था कालांतर में भारतीय सामाजिक संरचना की रीढ़ बन गई। वर्ण व्यवस्था के धार्मिक और राजनीतिक समर्थन ने समाज में अनुशासन और वर्गीय संतुलन बनाए रखा। यद्यपि यह व्यवस्था स्थायित्व लाई, पर सामाजिक गतिशीलता को भी सीमित कर दिया।

कुरु साम्राज्य के सिक्के: आर्थिक और सांस्कृतिक साक्ष्य
कुरु साम्राज्य के काल में जारी किए गए चाँदी के ½ कार्षापण सिक्के ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इन सिक्कों पर त्रिस्केल चिन्ह और अर्धचंद्राकार आकृतियाँ अंकित थीं, जो धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों को दर्शाती हैं। ये प्रतीक उस समय की सांस्कृतिक संवेदनाओं और राज्य की वैचारिक पहचान को भी प्रकट करते हैं। इन सिक्कों से राज्य की मुद्रा प्रणाली और आर्थिक स्थायित्व का आभास होता है। साथ ही ये सिक्के काल निर्धारण और व्यापारिक गतिविधियों की दिशा समझने में सहायक होते हैं। आर्थिक इतिहास के अध्येयनों में ये महत्वपूर्ण प्रमाण माने जाते हैं। इनसे प्राचीन भारत की विकसित आर्थिक सोच का संकेत मिलता है।

संदर्भ-

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