चली थी जौनपुर से जो ज़ुबान-ए-उर्दू, क्या अब भी वही मिठास है बाकी?

ध्वनि 2- भाषायें
27-06-2025 09:18 AM
चली थी जौनपुर से जो ज़ुबान-ए-उर्दू, क्या अब भी वही मिठास है बाकी?

भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की जब भी बात होती है, जौनपुर का ज़िक्र अदब और इज़्ज़त के साथ आता है। यह शहर केवल मस्जिदों और इमामबाड़ों की भव्यता का प्रतीक नहीं, बल्कि वह मिट्टी है जिसमें भाषा, संगीत, सूफी सोच और सामाजिक समरसता की जड़ें गहराई तक फैली हुई हैं। खासकर उर्दू भाषा की बात करें, तो जौनपुर की गलियों में गूंजते शेरो-शायरी और अदबी महफिलों ने इसे न सिर्फ ज़िंदा रखा, बल्कि निखार भी दिया।

उर्दू का यह सफ़र यहाँ अचानक नहीं शुरू हुआ। यह एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसमें शारकी सुल्तानों की सूझबूझ, सूफी संतों की संवादधर्मिता, अमीर खुसरो की रचनात्मकता, और औपनिवेशिक युग की पत्रकारिता का मिला-जुला असर था। इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे जौनपुर की सरज़मीं ने उर्दू के विकास को अपनाया, संवारा और समाज की आवाज़ बनने दिया। हम उर्दू की उत्पत्ति से जुड़े मतों पर नज़र डालेंगे, साथ ही इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि हिंदुस्तानी से हिंदी और उर्दू की अलग-अलग धाराएँ कैसे बनीं। साथ ही, आधुनिक युग में उर्दू के सामने खड़ी चुनौतियाँ क्या हैं, और जौनपुर जैसे शहरों की भूमिका आज भी क्यों महत्वपूर्ण है—इस पर भी रोशनी डालेंगे।

Urdu - Wikipedia

शारकी शासन काल में जौनपुर: उर्दू, सूफी संस्कृति और सांप्रदायिक सौहार्द का सांस्कृतिक केंद्र

जौनपुर का शारकी शासनकाल (1394–1479) केवल सत्ता और स्थापत्य का नहीं, बल्कि भाषा, विचार और समरसता के अद्भुत मेल का समय था। यह वह दौर था जब जौनपुर एक मजबूत इस्लामी सत्ता होने के साथ-साथ एक सांस्कृतिक संगम भी बन गया—जहाँ सूफी विचारधारा, फारसी-अरबी ज्ञान परंपरा और लोकभाषाओं का सुंदर सह-अस्तित्व पनपने लगा। शारकी सुल्तानों की विशेषता थी कि उन्होंने शासन की भाषा फारसी और अरबी के साथ-साथ जनमानस की लोकबोलियों को भी समान महत्व दिया। इसी मिश्रण ने "हिंदवी" या "रेख्ता" जैसे प्रारंभिक उर्दू रूपों को जन्म दिया—एक ऐसी भाषा जो धर्म, जाति और वर्ग की सीमाओं को लांघते हुए दिलों को जोड़ने लगी।

इस काल में बनीं स्थापत्य कलाएँ जैसे अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद और लाल दरवाज़ा मस्जिद केवल स्थापत्य की दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना के केंद्र के रूप में भी महत्त्वपूर्ण थीं। इनके आस-पास स्थापित मदरसों में फारसी और अरबी के साथ-साथ हिंदवी में भी धार्मिक, दार्शनिक और काव्यात्मक लेखन किया जाने लगा। साथ ही, सूफी संतों—जैसे शेख जलालुद्दीन ताबरेज़ी और मख़दूम शाह अली—की उपस्थिति ने सामाजिक संवाद को एक नई दिशा दी। उनके प्रवचनों और कव्वालियों में वह लोकस्वर था जो हिन्दू-मुस्लिम समाज के बीच सेतु का काम करता था। इन्हीं संवादों, भाषाओं और संस्कृतियों के संगम से उर्दू भाषा ने संवाद की भूमिका निभाते हुए धीरे-धीरे अपनी पहचान बनानी शुरू की।

उर्दू पत्रकारिता का उत्कर्ष और पतन: स्वतंत्रता आंदोलन से वर्तमान संकट तक

भारत में उर्दू पत्रकारिता का इतिहास सिर्फ समाचार छापने का नहीं, बल्कि एक जनआंदोलन की चेतना जगाने का रहा है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में जब स्वराज्य की मांग अपने उत्कर्ष पर थी, तब अवध पंच, अल-हिलाल और जाम-ए-जम जैसे उर्दू अख़बारों ने लोगों को न केवल सूचनाएं दीं, बल्कि विचार और विद्रोह की मशाल भी जलायी। जौनपुर भी इस संवाद का हिस्सा बना—यहाँ उर्दू अख़बार केवल पढ़े नहीं जाते थे, बल्कि चाय की दुकानों, चौपालों और नुक्कड़ों पर देशभक्ति की बहसें छेड़ते थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यह परंपरा कुछ वर्षों तक जीवित रही। जी.डी. चंदन की रिपोर्ट बताती है कि 1990 तक उर्दू समाचार पत्रों की संख्या में सात गुना वृद्धि हुई थी—एक संकेत कि उर्दू पाठक अब भी मौजूद थे, और अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते थे। लेकिन 1997 के बाद यह प्रवृत्ति अचानक थमने लगी। सरकारी उपेक्षा, उर्दू में रोज़गार की सीमित संभावनाएँ और नई पीढ़ी की बदलती भाषिक प्राथमिकताओं ने इस विधा को धीरे-धीरे हाशिए पर पहुँचा दिया।

आज जब हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता डिजिटल युग में चमक रही है, उर्दू पत्रकारिता अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। जौनपुर जैसे ऐतिहासिक शहर में कभी गुलज़ार रहने वाला "उर्दू बाज़ार" अब केवल बीते ज़माने की गवाही देता है। जहाँ कभी ख़बरें पढ़कर क्रांति की बातें होती थीं, वहाँ अब खामोशी पसरी हुई है।

उर्दू भाषा की उत्पत्ति से जुड़े प्रमुख ऐतिहासिक सिद्धांत

उर्दू केवल एक भाषा नहीं, बल्कि विविध भाषाई और सांस्कृतिक धाराओं के संगम से उपजा एक ऐतिहासिक अनुभव है। इसकी उत्पत्ति को लेकर कई विद्वानों ने विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं, जो इस बात को दर्शाते हैं कि उर्दू का विकास कोई एक क्षणिक घटना नहीं, बल्कि एक सतत ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है।

एक प्रचलित मत के अनुसार "उर्दू" शब्द की जड़ें तुर्की के शब्द "ओरदू" में हैं, जिसका अर्थ है—सैन्य छावनी या शिविर। यह इस ओर संकेत करता है कि उर्दू भाषा का प्रारंभिक स्वरूप उन बहुभाषी सैन्य छावनियों में विकसित हुआ जहाँ तुर्क, फारसी, अफगानी और भारतीय सैनिकों के बीच संवाद की आवश्यकता थी। प्रसिद्ध इतिहासकार महमूद शेरवानी का मत है कि महमूद गजनवी के आक्रमणों के बाद जब फारसी, तुर्की और अफगानी समुदाय भारत में आकर बसे, तब उनकी भाषाएँ स्थानीय बोलियों—खासकर खड़ी बोली, ब्रज और अवधी—के साथ मिलकर एक नए भाषाई ढाँचे का निर्माण करने लगीं। यह भाषाई मेलजोल धीरे-धीरे उर्दू के रूप में विकसित हुआ।

दूसरी ओर, लेखक मुहम्मद हुसैन आज़ाद मानते हैं कि उर्दू की नींव ब्रज भाषा और फारसी के समन्वय पर टिकी है। उनके अनुसार, यह भाषा प्रेम, शिष्टता और भावनात्मक गहराई की अभिव्यक्ति के लिए एक नया मंच बनी।

जो बात सभी मतों में समान है, वह यह कि उर्दू ने संस्कृत, फारसी, अरबी, तुर्की, हिंदी, पंजाबी और पश्तो जैसी अनेक भाषाओं से शब्दों, लयों और भावों को आत्मसात किया। यही समावेशी प्रवृत्ति इसे 'जनभाषा' का स्वरूप देती है—एक ऐसी भाषा जो वर्ग, जाति या धर्म की सीमाओं से परे जाकर संवाद की आत्मा बन गई।

अमीर खुसरो और सूफी कवियों की भूमिका: उर्दू भाषा के विकास में रचनात्मक योगदान

उर्दू भाषा का प्रारंभिक रूप केवल शब्दों का मेल नहीं, बल्कि आत्माओं के संवाद का माध्यम था—और इस आत्मा को आकार देने में सूफी संतों की भूमिका अत्यंत गहन और निर्णायक रही है। विशेष रूप से अमीर खुसरो (1253–1325) का योगदान उर्दू के सांस्कृतिक और काव्यात्मक निर्माण में एक मील का पत्थर माना जाता है। वे केवल एक कवि नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक सेतु थे जिन्होंने भारतीय और इस्लामी परंपराओं को अपने शब्दों और सुरों में पिरोया।

खुसरो ने जब कहा, "साकी पिया को जो मैं ना देखूं तो कैसे काटूं ये अंधेरी रात", तो यह केवल एक प्रेमपूर्ण पंक्ति नहीं थी—यह उस "हिन्दवी" भाषा में लिखी गई पुकार थी जो आगे चलकर उर्दू की कोमल और भावभीनी लय का आधार बनी। वे फारसी पर दक्ष थे, पर उन्होंने देखा कि जनमानस की भाषा कुछ और है—वो भाषा जो गली-मोहल्लों में बहती है, दरगाहों में गूंजती है, और दिलों को छू जाती है।

चिश्ती, कादरी और नक्शबंदी जैसे सूफी सिलसिलों ने इसी आत्मीयता को अपनाया। उन्होंने आध्यात्मिक अनुभवों को जब स्थानीय भाषाओं में पिरोया, विशेषकर हिन्दवी और अवधी में, तो वहीं से उर्दू का स्वर और सादगी जन्म लेने लगी। सूफियों ने धार्मिक उपदेशों को आमजन तक पहुंचाने के लिए भाषा को साधन नहीं, साधना बना दिया। इस नज़दीकी ने उर्दू को केवल साहित्य की नहीं, बल्कि लोक की भाषा बना दिया। दरगाहों की कव्वालियों, मस्जिदों के बयानात, मदरसों की शिक्षा और लोकगीतों की भावनाओं में उर्दू ने एक सहज उपस्थिति दर्ज की। वह भाषा जो पहले दरबारों में थी, वह अब लोगों की ज़ुबान पर थी—प्रेम, ईश्वर, इंसानियत और समरसता की भाषा।

'हिन्दुस्तानी' से उर्दू और हिंदी तक: भाषा से लिपि और पहचान तक का राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलाव

भारत में भाषा कभी महज़ संवाद का माध्यम नहीं रही—यह पहचान, इतिहास और संस्कृति की अभिव्यक्ति रही है। आज जिन दो भाषाओं को हम "हिंदी" और "उर्दू" के नाम से जानते हैं, उनका मूल एक ही सांझा भाषिक विरासत में निहित है—हिन्दुस्तानी।

स्वतंत्रता से पहले 'हिन्दुस्तानी' वह बोलचाल की भाषा थी जो देवनागरी और नस्तलीक—दोनों लिपियों में लिखी जाती थी और जिसमें संस्कृत, फारसी, अरबी और लोक भाषाओं की समान भागीदारी थी। यह भाषा न स़िर्फ बाजार और गलियों की थी, बल्कि अदालती कागज़ात, साहित्यिक रचनाओं और जन आंदोलनों की भी थी। लेकिन 1947 के विभाजन ने केवल ज़मीन नहीं बाँटी—इसने भाषा को भी दो राष्ट्रों की राजनीतिक पहचान में विभाजित कर दिया। भारत में 'हिंदी' को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित किया गया, जबकि उर्दू धीरे-धीरे धार्मिक पहचान से जोड़ दी गई—जैसे वह अब एक "दूसरों" की भाषा हो।

इस बदलाव ने उर्दू को एक समावेशी लोकभाषा से अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान तक सीमित कर दिया। शैक्षणिक संस्थानों से लेकर सरकारी कार्यालयों तक, उर्दू की उपस्थिति कम होती चली गई। यह केवल लिपि का नहीं, बल्कि सत्ता, संस्कृति और संसाधनों का भी पुनर्वितरण था।

आज जबकि हम भाषायी एकता की बातें करते हैं और 'हिन्दुस्तानी' की साझा विरासत की ओर लौटने की ज़रूरत जताते हैं, तब भी व्यवहार में उर्दू को अक्सर एक सीमित, अनसुनी, और उपेक्षित ज़ुबान बना दिया गया है।

आधुनिक जौनपुर में उर्दू की स्थिति: संकट और संभावनाओं का द्वंद्व

आज जौनपुर में उर्दू भाषा अपने सांस्कृतिक गौरव के बावजूद सामाजिक जीवन से धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। सरकारी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की कमी, पाठ्यक्रमों से उसका हटना और सामाजिक उपेक्षा ने इस ज़ुबान को संकट में डाल दिया है। फिर भी “उर्दू बाजार” जैसे इलाके इस बात के साक्षी हैं कि उर्दू अब भी सांस ले रही है—भले ही धीमे।

ज़रूरत है कि सरकार और समाज मिलकर उर्दू को नए सिरे से जीवन दें—स्कूलों में विकल्प के रूप में लाएं, डिजिटल और रोजगारपरक क्षेत्रों में बढ़ावा दें, और जौनपुर में उर्दू अकादमी या शोध केंद्र जैसे संस्थान स्थापित करें। तभी यह भाषा फिर से बोलने लगेगी—सिर्फ होठों से नहीं, बल्कि दिलों से।

पिछला / Previous


Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.

D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.