नवाबी ज़ायके में विदेशी रंग: लखनऊ की ज़मीन पर बदलती खेती की कहानी

फल-सब्ज़ियां
02-07-2025 09:26 AM
नवाबी ज़ायके में विदेशी रंग: लखनऊ की ज़मीन पर बदलती खेती की कहानी

लखनऊ के निवासियों, कभी आपने गौर किया है कि अब चौक की गलियों, अमीनाबाद की सब्ज़ी मंडी या गोमती नगर के ठेले पर सिर्फ परवल, बैगन और टमाटर नहीं, बल्कि ब्रोकोली, लेट्यूस, जुकीनी और बेल पेपर जैसी विदेशी सब्ज़ियाँ भी दिखने लगी हैं? ये वही सब्ज़ियाँ हैं जिन्हें कभी सिर्फ बड़े रेस्टोरेंट के मेन्यू में देखा करते थे या मॉल की एयर-कंडीशंड सब्ज़ी शेल्फ़ पर। लेकिन अब ये स्वाद और दृश्य बदल रहे हैं — और इस बदलाव की जड़ें लखनऊ की मिट्टी में ही हैं। आज लखनऊ के आसपास के किसान परंपरागत खेती से आगे बढ़कर विदेशी फल और सब्ज़ियों की खेती की ओर रुख कर रहे हैं। मलिहाबाद, बीकेटी, मोहनलालगंज जैसे इलाकों में युवा किसान अब ब्रोकोली और लेट्यूस जैसे उत्पाद उगाकर शहर के नए स्वाद और सेहत दोनों की ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं। यह सिर्फ खेती नहीं, एक नई सोच है — जहाँ लखनऊ का किसान अब न सिर्फ मंडी, बल्कि मेट्रो शहरों की डिमांड से भी जुड़ने लगा है। ये बदलाव केवल थाली तक सीमित नहीं, यह लखनऊ की बदलती अर्थव्यवस्था, खानपान की संस्कृति और स्थानीय किसान की पहचान से गहराई से जुड़ा हुआ है। अब जब अगली बार आप सब्ज़ी खरीदने जाएँ, तो ज़रा रुककर सोचिए — ये जुकीनी शायद उसी खेत से आई है, जो गोमती किनारे किसी किसान ने बड़े सपने लेकर सींचा था।

इस लेख में हम पाँच मुख्य पहलुओं को विस्तार से समझेंगे। पहले, हम जानेंगे कि उपभोक्ताओं के स्वाद और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ने विदेशी फल और सब्ज़ियों की लोकप्रियता को कैसे बढ़ावा दिया। फिर बात करेंगे लखनऊ और देशभर में किसानों द्वारा इन फसलों की ओर बढ़ते रुझान की। तीसरे भाग में भारत की जलवायु में विदेशी फलों के उत्पादन की संभावनाओं का विश्लेषण करेंगे। चौथे उपविषय में जानेंगे इनसे होने वाले आर्थिक लाभ और ग्रामीण क्षेत्रों में इसके प्रभाव के बारे में। और अंत में, विदेशी खाद्य पदार्थों के आयात बनाम घरेलू उत्पादन की प्रवृत्ति को आत्मनिर्भर भारत की दृष्टि से देखेंगे।

विदेशी सब्जियों और फलों की बढ़ती लोकप्रियता: उपभोक्ता आदतों में बदलाव

बीते कुछ वर्षों में भारतीय उपभोक्ताओं का स्वाद और खानपान की आदतें तेजी से बदली हैं। अब लोग सिर्फ स्वाद नहीं, सेहत और पोषण पर भी ध्यान देने लगे हैं। ऐसे में ब्रोकोली, लेट्यूस, एवोकैडो, कीवी जैसे विदेशी फल-सब्ज़ियाँ उनके भोजन का हिस्सा बन रही हैं। इनमें मौजूद विटामिन्स, फाइबर और एंटीऑक्सिडेंट जैसे पोषक तत्व शरीर के लिए फायदेमंद माने जाते हैं। स्वस्थ जीवनशैली को लेकर बढ़ती जागरूकता और सोशल मीडिया पर हेल्थ डाइट ट्रेंड्स ने विदेशी उत्पादों की मांग को और तेज कर दिया है। लोग अब घर पर ही 'सैलड बाउल', 'ग्रीन स्मूदी', और 'बेक्ड वेजिटेबल्स' जैसे व्यंजन बना रहे हैं, जिनमें इन विदेशी सामग्री की भूमिका अहम होती है। इससे स्थानीय मंडियों में इनकी माँग पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ी है।

साथ ही, महानगरों के रेस्टोरेंट्स और कैफे में भी अब विदेशी सब्ज़ियों और फलों से बने व्यंजनों की मांग तेज़ी से बढ़ी है, जिससे इनके उपयोग को लोकप्रियता मिली है। स्कूलों और जिम संस्थानों द्वारा हेल्दी फूड पर बल दिए जाने से युवाओं के बीच भी यह प्रवृत्ति गहराई है। इसके अलावा, कोरोना महामारी के बाद लोगों ने रोग प्रतिरोधक क्षमता को लेकर सजगता अपनाई है, जिससे ऐसे पोषक तत्वों से भरपूर फलों और सब्ज़ियों की मांग और बढ़ गई है। खास बात यह है कि अब छोटे शहरों और कस्बों में भी इन विदेशी खाद्य पदार्थों को अपनाने की रुचि बढ़ रही है, जिससे इसका सामाजिक दायरा भी विस्तार पा रहा है।

लखनऊ और भारत में विदेशी सब्जियों की खेती की ओर किसानों का रुझान

लखनऊ के किसान अब पारंपरिक फसलों के साथ-साथ विदेशी सब्जियों की खेती में भी हाथ आज़मा रहे हैं। ब्रोकोली, जुकीनी, बोक चॉय, पार्सले और लेट्यूस जैसी सब्जियाँ अब लखनऊ के आस-पास के खेतों में उगाई जा रही हैं। कृषि विज्ञान केंद्र (ICAR-IISR) द्वारा वर्ष 2010-11 में शुरू किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों ने किसानों को इस दिशा में प्रोत्साहित किया। इसके अलावा, किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले बीज, वैज्ञानिक मार्गदर्शन और खेती की आधुनिक तकनीकों की जानकारी भी दी गई। इससे किसानों को विदेशी फसलों की बेहतर उपज मिली और बाजार में सीधा संपर्क भी बना। सरकारी योजनाओं और निजी क्षेत्र के सहयोग से अब यह रुझान व्यापक होता जा रहा है, जिससे इन सब्जियों की कीमतें भी कम हो रही हैं।

लखनऊ के मलिहाबाद, गोसाईंगंज, मोहनलालगंज जैसे इलाकों में अब विदेशी सब्ज़ियों के खेतों का दायरा बढ़ा है। कई किसान समूह बनाकर सामूहिक खेती कर रहे हैं, जिससे लागत घट रही है और लाभ बढ़ रहा है। किसान मेलों, कृषि प्रदर्शनियों और डिजिटल प्लेटफॉर्मों के ज़रिए भी किसान नई किस्मों की जानकारी पा रहे हैं। इनमें से कई किसान अब सीधे रेस्तरां, होटल और ऑर्गेनिक स्टोर्स को आपूर्ति करने लगे हैं। इसके चलते किसानों की आय में स्थायित्व आया है और उन्हें बाजार में एक नई पहचान भी मिली है।

भारत में विदेशी फलों का उत्पादन और जलवायु अनुकूलता

भारत की विविध जलवायु विदेशी फलों की खेती के लिए एक उपयुक्त अवसर प्रदान करती है। हिमाचल प्रदेश में एवोकैडो, नीलगिरी में लेट्यूस, और महाराष्ट्र व तेलंगाना में ड्रैगन फ्रूट की सफल खेती इसका उदाहरण है। जहां पहले कीवी, खजूर, जापानी सेब जैसे फल केवल आयात किए जाते थे, वहीं अब भारत में भी इनका उत्पादन शुरू हो चुका है। मिट्टी, तापमान और वर्षा जैसे कारकों की समझ ने किसानों को यह विश्वास दिलाया है कि ये फल हमारे देश में भी गुणवत्ता सहित उगाए जा सकते हैं। जलवायु-आधारित अनुसंधान और स्थानीय अनुकूलन के कारण उत्पादन की लागत भी कम होती जा रही है, जिससे इन फलों का व्यावसायिक उत्पादन संभव हो पाया है।

इसके अलावा, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थानों द्वारा इन फलों के लिए उन्नत किस्में विकसित की गई हैं जो भारतीय वातावरण में अधिक अनुकूल होती हैं। फल संरक्षण और कोल्ड स्टोरेज तकनीकों की प्रगति ने भी इनके परिवहन और भंडारण को आसान बना दिया है। कई राज्य सरकारें ड्रैगन फ्रूट और एवोकैडो को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी और प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चला रही हैं। इससे किसानों को जोखिम कम होने का विश्वास मिला है और वे इन फसलों को दीर्घकालिक निवेश के रूप में देखने लगे हैं।

आर्थिक लाभ और स्थानीय किसानों के लिए अवसर

विदेशी सब्जियों की खेती से किसानों को पारंपरिक फसलों की तुलना में कहीं अधिक आर्थिक लाभ मिल रहा है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2011-12 में लखनऊ के किसानों ने 0.5 हेक्टेयर ज़मीन पर विदेशी सब्जियाँ उगाकर लगभग ₹3.36 लाख का सकल लाभ अर्जित किया, जिसमें शुद्ध लाभ ₹3.10 लाख रहा। इससे स्पष्ट होता है कि यह खेती न केवल फायदे की है, बल्कि किसानों के जीवन स्तर को भी ऊंचा उठा सकती है। इसके अतिरिक्त, निर्यात की संभावनाओं, ऑनलाइन बिक्री और प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना से भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं। इस बदलाव से लखनऊ के आसपास के गांवों में युवाओं की खेती में रुचि बढ़ी है।

कई युवा अब पारंपरिक नौकरी के स्थान पर आधुनिक खेती को विकल्प के रूप में चुन रहे हैं। फार्म-टू-टेबल मॉडल के चलते छोटे पैमाने के किसानों को भी सीधे उपभोक्ताओं तक पहुँचने का अवसर मिला है। शहरी क्षेत्रों में बढ़ती जैविक और विदेशी उत्पादों की माँग के कारण किसानों को प्रीमियम मूल्य मिल रहा है। महिलाओं और स्वयं सहायता समूहों की भागीदारी भी इस क्षेत्र में बढ़ रही है, जिससे सामाजिक समावेशन को बल मिल रहा है। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में कच्चे माल की प्रोसेसिंग इकाइयाँ खुल रही हैं, जो रोजगार सृजन में सहायक सिद्ध हो रही हैं।

विदेशी खाद्य पदार्थों का आयात बनाम घरेलू उत्पादन: आत्मनिर्भर भारत की दिशा में एक कदम

वर्ष 2018 में भारत ने लगभग 3 बिलियन डॉलर के फलों और सब्जियों का आयात किया था, लेकिन 2019 में यह घटकर 1.2 बिलियन डॉलर रह गया। यह बदलाव घरेलू उत्पादन में वृद्धि और आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़ा कदम है। अब देश भर में विदेशी फसलों की खेती की जा रही है और इनकी मांग को भारतीय किसान ही पूरा कर रहे हैं। सरकार द्वारा बीज वितरण, तकनीकी प्रशिक्षण और समर्थन मूल्य जैसी योजनाएँ इस प्रक्रिया को और मजबूत कर रही हैं। इससे न केवल विदेशी मुद्रा की बचत हो रही है, बल्कि यह 'मेक इन इंडिया' और 'वोकल फॉर लोकल' जैसे अभियानों को भी बल दे रहा है। यह रुझान भारत को वैश्विक खाद्य बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है।

इन प्रयासों का असर यह है कि अब भारत अपने उपभोग के लिए आवश्यक विदेशी खाद्य उत्पादों की पूर्ति आंतरिक रूप से करने में सक्षम हो रहा है। इससे सप्लाई चेन अधिक मज़बूत और लचीली बन रही है। नीति आयोग, कृषि मंत्रालय और राज्य सरकारें भी इस दिशा में सामंजस्यपूर्ण नीति बना रही हैं। निर्यात में भी भारत की भागीदारी धीरे-धीरे बढ़ रही है, जिससे हमारा वैश्विक खाद्य व्यापार में योगदान सशक्त हो रहा है। ये सभी प्रयास भारत को कृषि में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ठोस आधार प्रदान कर रहे हैं।

 

संदर्भ-
https://www.prarang.in/lucknow/posts/6887/Growing-in-Luckno-the-popularity-and-cultivation-of-foreign-vegetables 

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