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मेरठ, एक ऐतिहासिक शहर होने के साथ-साथ कृषि और अब जलीय कृषि के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बना रहा है। भारत, जिसकी एक विशाल तटीय रेखा है, में मत्स्य पालन एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। हालाँकि, अंतर्देशीय मत्स्य पालन भी देश की अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देता है। मेरठ में सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित मछली प्रदर्शन एवं अनुसंधान इकाई इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसका उद्देश्य स्थानीय किसानों को नई तकनीकों से परिचित कराना और जलीय जीवन के संरक्षण को बढ़ावा देना है।
इस लेख में, हम पृथ्वी पर मछलियों के विकास और उनके ऐतिहासिक आगमन पर एक संक्षिप्त नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम देश की सभी नदियों में मछली पालन संभव न हो पाने के कारणों का विश्लेषण करेंगे, जिसमें यमुना नदी का विशेष संदर्भ होगा। फिर, हम डीप सी फिशिंग (गहरे समुद्र में मछली पकड़ने) की तकनीकों और जलीय पारिस्थितिकी पर इसके संभावित प्रभावों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम मेरठ में मछली प्रदर्शन एवं अनुसंधान इकाई जैसे प्रयासों के महत्व को समझेंगे जो जलीय जीवन के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कब और कहाँ से आयीं मछलियाँ पृथ्वी पर?
मछलियाँ पृथ्वी पर जीवन के शुरुआती रूपों में से एक हैं, जिनका विकास करोड़ों वर्षों में हुआ है। माना जाता है कि लगभग 50 करोड़ साल पहले मछलियाँ पहली ऐसी जीव थीं जिनमें रीढ़ की हड्डी विकसित हुई थी। डेवोनीयन काल (Devonian Period) (41-34 करोड़ साल पहले) को 'मछलियों का काल' कहा जाता है, जब विभिन्न प्रकार की मछलियों का विकास हुआ। शुरुआती मछलियाँ जबड़े रहित थीं, लेकिन धीरे-धीरे जबड़े वाली मछलियों का विकास हुआ, जिनमें स्पाइनी शार्क (Spiny Shark) एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। शार्क, जो आज भी एक निडर शिकारी मछली के रूप में जानी जाती है, के सबसे पुराने जीवाश्म लगभग 39 करोड़ साल पुराने हैं। आधुनिक बोनी मछलियों का विकास मेसोज़ोइक युग (Mesozoic Era) (लगभग 22.5 करोड़ साल पहले) में हुआ था, और इसी काल में मेरठ और आसपास पाई जाने वाली मछलियों के पूर्वजों का भी विकास हुआ माना जाता है।
किस कारण नहीं हो पाता देश की सभी नदियों में मछली पालन?
जबकि भारत में मत्स्य पालन एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, देश की सभी नदियों में इसका विकास समान रूप से नहीं हो पाया है। इसका एक प्रमुख कारण नदियों में प्रदूषण का उच्च स्तर है। दिल्ली में यमुना नदी इसका एक दुखद उदाहरण है, जहाँ औद्योगिक अपशिष्ट, अनुपचारित घरेलू सीवेज और फॉस्फेट युक्त डिटर्जेंट के कारण जल की गुणवत्ता अत्यधिक खराब हो गई है। घुलित ऑक्सीजन का स्तर बहुत कम या शून्य तक पहुँच गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (Biological Oxygen Demand - BOD) बहुत अधिक है, जिससे जलीय जीवन के लिए खतरा पैदा हो गया है।
सरकार और मत्स्य पालन विभाग द्वारा नदियों में मछली के बीज छोड़ने के प्रयास किए गए हैं, जैसे कि बिजनौर में गंगा नदी में किया गया था, जिसका उद्देश्य विलुप्त हो रही प्रजातियों का संरक्षण और संवर्धन करना है। टिलेपिया और गैंबूस्या जैसी कुछ प्रजातियाँ प्रदूषित जल में भी जीवित रह सकती हैं और पानी को साफ करने में मदद कर सकती हैं। हालाँकि, यमुना नदी के मामले में प्रदूषण का स्तर इतना अधिक है कि मत्स्य पालन के प्रयासों को सफलता नहीं मिल पाई है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की 2020 की एक रिपोर्ट से पता चला है कि यमुना नदी के पानी में घुलित ऑक्सीजन का स्तर, दिल्ली में आने वाले यमुना के सात घाटों में ‘शून्य’ था। नदियों में स्वस्थ मत्स्य पालन के लिए जल की गुणवत्ता में सुधार और अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों की स्थापना आवश्यक है।
डीप सी फिशिंग: तकनीकें और जलीय पारिस्थितिकी पर प्रभाव
भारत की एक लंबी समुद्री तटरेखा है, और तटीय राज्यों की अर्थव्यवस्था में समुद्री मत्स्य पालन का महत्वपूर्ण योगदान है। डीप सी फिशिंग (गहरे समुद्र में मछली पकड़ने), जो तट से दूर गहरे पानी में की जाती है, आर्थिक रूप से लाभदायक हो सकती है और देश के 'ब्लू रिवोल्यूशन' का एक हिस्सा है। इसमें ट्रॉलिंग, चुमिंग, जिगिंग, पॉपिंग, बॉटम फिशिंग और डीप ड्रॉपिंग जैसी विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया जाता है। ज्यादातर मछुआरे गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की अपनी यात्राओं के लिए एक गाइडिंग कंपनी को नियुक्त करते हैं।
हालांकि, कुछ डीप सी फिशिंग तकनीकें जलीय पारिस्थितिकी के लिए विनाशकारी हो सकती हैं। बॉटम ट्रॉलिंग (समुद्र तल पर मछली पकड़ना), जिसमें समुद्र तल पर भारी जाल घसीटे जाते हैं, समुद्री आवासों को नष्ट कर सकते हैं और बड़ी मात्रा में अवांछित मछलियाँ (बायकैच) पकड़ सकते हैं, जिन्हें अक्सर फेंक दिया जाता है। मेक्सिको की खाड़ी में, पकड़े गए हर पाउंड झींगे के लिए, चार से दस पाउंड अन्य समुद्री संसाधन फेंक दिए जाते हैं। इसलिए, स्थायी मत्स्य पालन प्रथाओं को बढ़ावा देना और पारिस्थितिकी के अनुकूल तकनीकों का उपयोग करना महत्वपूर्ण है।
मेरठ में मछली प्रदर्शन एवं अनुसंधान इकाई: जलीय जीवन की ढाल
जलीय जीवन में रूचि रखने वाले हमारे मेरठ वासियों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मेरठ में सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय द्वारा अंतर्देशीय मत्स्य पालन क्षेत्र को सहायता प्रदान करने के लिए एक मछली प्रदर्शन एवं अनुसंधान इकाई की स्थापना की गई है। यह विशेष इकाई मछली पालन तकनीकों में किसानों को प्रशिक्षित करने और क्षेत्र में मछली पालकों और उद्यमियों को प्रासंगिक तकनीकों को हस्तांतरित करने पर ध्यान केंद्रित करती है। व्यावहारिक प्रदर्शन और कौशल विकास कार्यक्रम प्रदान करके, विश्वविद्यालय का उद्देश्य स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना और मछली पालन में उद्यमिता को बढ़ावा देना है। इस अनुसंधान परियोजना की निरंतरता की मदद से, कई किसानों ने अपने खेतों में मछली पालन शुरू किया है।
यह इकाई न केवल मछली उत्पादन बढ़ाने में मदद करेगी, बल्कि जलीय जीवन के संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूकता भी फैलाएगी। स्थायी मत्स्य पालन प्रथाओं को बढ़ावा देकर और किसानों को पर्यावरण के अनुकूल तकनीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करके, मेरठ में यह अनुसंधान इकाई जलीय पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। यह प्रयास अन्य क्षेत्रों के लिए भी एक मॉडल बन सकता है, जहाँ मत्स्य पालन और जलीय जीवन के संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
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