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सिंधु लिपि, जिसे हड़प्पा लिपि के नाम से भी जाना जाता है, दुनिया की सबसे प्राचीन और रहस्यपूर्ण लेखन प्रणालियों में से एक मानी जाती है। इसका सीधा संबंध सिंधु घाटी सभ्यता से है—एक ऐसी सभ्यता जो लगभग 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक अपने उत्कर्ष पर थी। इस लिपि के चिन्ह मुहरों, बर्तनों, औजारों और अन्य पुरातात्विक वस्तुओं पर पाए गए हैं। हालांकि इसके कई प्रतीक और संकेत चिन्ह मिले हैं, फिर भी यह लिपि अब तक पूर्णतः पढ़ी या समझी नहीं जा सकी है, जिससे इसके प्रयोजन और अर्थ को लेकर अब भी कई रहस्य बने हुए हैं।
इस लेख में हम सिंधु लिपि का परिचय, पुरातात्विक साक्ष्य, व्याख्या की कठिनाइयाँ, इसके प्रशासनिक-व्यापारिक उपयोग और भारतीय लिपियों से इसके संभावित संबंध पर चर्चा करेंगे। यह अध्ययन इतिहास, पुरातत्व और भाषाशास्त्र के क्षेत्र में विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यदि इस लिपि को पढ़ा जा सके, तो यह भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन इतिहास को गहराई से समझने का मार्ग प्रशस्त करेगा।
सिंधु लिपि का परिचय और प्राचीनता
सिंधु लिपि, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता के लेखन स्वरूप के रूप में जाना जाता है, लगभग 3300 से 1300 ईसा पूर्व तक प्रचलन में रही, जिसका प्रमुख उपयोग काल 2600 से 1900 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। यह लिपि जटिल लेकिन सुनियोजित प्रतीकों की प्रणाली पर आधारित थी, जिसमें अब तक 400 से अधिक विशिष्ट संकेत पहचाने गए हैं। इनमें से करीब 60 संकेत बार-बार उपयोग में लाए गए प्रतीत होते हैं, जो इसके एक संरचित और व्यवस्थित लेखन प्रणाली होने का संकेत देते हैं।
लिपि के विश्लेषण से विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि यह संभवतः लोगो-सिलेबिक (logographic + syllabic) प्रकृति की थी, यानी कुछ चिन्ह शब्दों को तो कुछ ध्वनियों को दर्शाते थे। अधिकतर अभिलेख दाएँ से बाएँ लिखे गए प्रतीत होते हैं, जबकि कुछ स्थानों पर बाउस्ट्रोफेडॉन शैली (Boustrophedon)—जहाँ एक पंक्ति दाएँ से बाएँ और अगली पंक्ति बाएँ से दाएँ होती है—का भी प्रयोग दिखता है।
सिंधु लिपि को सुमेर, मिस्र और चीन की प्राचीन लिपियों का समकालीन माना जाता है, जो इसे विश्व सभ्यता के विकास में एक महत्वपूर्ण स्थान देता है। हालांकि इसकी भाषा को लेकर अभी तक कोई सर्वसम्मति नहीं बनी है। कुछ विशेषज्ञ इसे द्रविड़ भाषाओं से जोड़ते हैं, तो कुछ मुण्डा या ऑस्ट्रो-एशियाटिक मूल की भाषा मानते हैं। स्पष्ट भाषाई प्रमाणों के अभाव में यह रहस्य आज भी शोध और बहस का विषय बना हुआ है।
सिंधु लिपि के पुरातात्विक साक्ष्य और खुदाई के उदाहरण
सिंधु लिपि से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक प्रमाण पहली बार 1920 के दशक में हड़प्पा (अब पाकिस्तान के पंजाब में) और मोहनजोदड़ो (सिंध प्रांत) की खुदाई में सामने आए। इसके बाद भारत में भी कई प्रमुख स्थलों जैसे धोलावीरा (गुजरात), लोथल (गुजरात), कालीबंगा (राजस्थान), राखीगढ़ी और बनवाली (हरियाणा) से इस रहस्यमय लिपि के संकेत और प्रतीक मिले हैं।
इन खोजों में सबसे रोचक और प्रभावशाली हैं मिट्टी की मुहरें, तांबे की पट्टिकाएँ, पत्थरों पर खुदे अभिलेख, हाथी-दांत की नक्काशीदार वस्तुएँ और मिट्टी की गोलियाँ—इन सभी पर बेहद बारीकी से उकेरे गए संकेत हमें उस युग की अद्भुत शिल्पकला और दस्तकारी की झलक देते हैं। इन प्रतीकों की रेखाएँ इतनी स्पष्ट और सधे हुए ढंग से खुदी होती हैं कि उन्हें देखकर उस काल की सृजनात्मक ऊँचाइयों का अनुमान लगाना आसान हो जाता है।
धोलावीरा में खोजी गई एक विशाल पट्टी, जिसे आज सिंधु लिपि का सबसे बड़ा ज्ञात लेख माना जाता है, उसमें नौ बड़े प्रतीक चिन्ह अंकित हैं। यह खोज इस ओर इशारा करती है कि सिंधु लिपि का इस्तेमाल न सिर्फ व्यापारिक लेनदेन या प्रशासनिक कामों में बल्कि सार्वजनिक घोषणाओं और इमारतों की पहचान में भी किया जाता था।
सिंधु लिपि की व्याख्या और अध्ययन की चुनौतियाँ
आज तक सिंधु लिपि को पूरी तरह पढ़ा या समझा नहीं जा सका है, और यही बात इसे दुनिया की सबसे रहस्यमयी लेखन प्रणालियों में से एक बनाती है। मिस्र की रोसेटा स्टोन जैसी कोई भी द्विभाषी शिलालेख अब तक नहीं मिला है, जिससे इसकी व्याख्या और अनुवाद का रास्ता और भी जटिल हो गया है। हमें यह नहीं पता कि ये संकेत किस भाषा से संबंधित हैं या उनके पीछे ध्वनियाँ हैं या विचार—यह अब तक अनसुलझी पहेली बनी हुई है।
इस लिपि को समझने में कई चुनौतियाँ सामने आती हैं:
हालाँकि, विज्ञान और तकनीक की प्रगति ने नई उम्मीदें जगाई हैं। कंप्यूटर मॉडलिंग (computer modelling), आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (artificial intelligence), डीप लर्निंग (deep learning) और सांख्यिकीय विश्लेषण जैसी उन्नत विधियों की मदद से अब शोधकर्ता सिंधु लिपि में कुछ दोहराए जाने वाले पैटर्न पहचान पा रहे हैं।
सिन्धु सभ्यता की लिपि का प्रशासनिक और व्यापारिक उपयोग
सिंधु लिपि का उपयोग केवल धार्मिक प्रतीकों या संस्कारों तक सीमित नहीं था—यह प्राचीन सभ्यता की प्रशासनिक और आर्थिक जीवनरेखा के रूप में काम करती थी। खुदाई में मिली दर्जनों मुहरें इस बात की गवाही देती हैं कि इन पर व्यक्तियों के नाम, पद, स्थान या सामान से जुड़े संकेत अंकित होते थे। इन मुहरों का प्रयोग संभवतः प्रामाणिकता की पुष्टि के लिए किया जाता था, जैसे आज की दुनिया में हस्ताक्षर या आधिकारिक सील।
लोथल के प्राचीन बंदरगाह से प्राप्त वस्तुएँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि सिंधु लिपि का इस्तेमाल निर्यात किए गए माल के वर्गीकरण और पहचान के लिए भी होता था। कुछ मुहरों पर ऐसे प्रतीक और अंक मिले हैं, जो वस्तुओं की मात्रा, श्रेणी या मूल्य का संकेत देते प्रतीत होते हैं—जैसे कोई प्राचीन बिलिंग सिस्टम।
इसके अतिरिक्त, सिंधु घाटी की नगर योजनाएँ, जल निकासी की अद्भुत प्रणाली और अन्न भंडारण भवन (ग्रैनरी) यह स्पष्ट करते हैं कि वहाँ उन्नत प्रशासनिक व्यवस्था मौजूद थी। ऐसी प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने के लिए किसी व्यवस्थित लेखन प्रणाली की आवश्यकता होती थी—और यही कार्य सिंधु लिपि निभा रही थी। संभव है कि इसका प्रयोग कर वसूली, जनगणना, माल की सूची या भंडारण पंजीकरण जैसे कार्यों में होता हो।
इन पुरातात्विक साक्ष्यों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिंधु लिपि उस समय के प्रशासनिक और व्यावसायिक संवाद का मूल माध्यम रही होगी—एक ऐसा संवाद, जो आज भी अपनी भाषा में हमसे कुछ कहने को आतुर है।
सिन्धु सभ्यता की लिपि और बाद की भारतीय लिपियों का संबंध
सिंधु लिपि और भारत की बाद की लिपियों—विशेषकर ब्राह्मी—के बीच संबंधों की संभावना एक रहस्यमय लेकिन बेहद दिलचस्प विषय है। कई विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि ब्राह्मी लिपि (जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में उभरती है) के कुछ अक्षर या प्रतीक, कहीं न कहीं सिंधु लिपि से प्रेरणा ले सकते हैं। यद्यपि इन दोनों लिपियों के बीच करीब 1300 वर्षों का अंतर है, फिर भी कुछ चिन्हों की आकृति में समानताएँ विद्यमान हैं, जो इस विचार को और रोचक बना देती हैं।
हालाँकि, ज़्यादातर भाषाविद और इतिहासकार यह मानते हैं कि ब्राह्मी, खरोष्ठी और नागरी जैसी लिपियाँ स्वतंत्र रूप से अलग संदर्भों और आवश्यकताओं के चलते विकसित हुईं। ब्राह्मी लिपि, ऐसा माना जाता है, मौर्यकालीन प्रशासनिक और शासकीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अस्तित्व में आई। इसके विपरीत, सिंधु लिपि संभवतः व्यापार, सामाजिक व्यवस्थाओं और स्थानीय उपयोगों के लिए विकसित हुई थी।
कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि भले ही इन दोनों लिपियों के बीच कोई प्रत्यक्ष व्याकरणिक या ध्वन्यात्मक संबंध नहीं है, लेकिन संभावना है कि सिंधु सभ्यता की कुछ लेखन-संबंधी अवधारणाएँ—जैसे प्रतीकात्मक सोच, लेखन की दिशा, या संक्षिप्तता—संस्कृति और मौखिक परंपराओं के माध्यम से उत्तरवर्ती लिपियों तक पहुंची हों।
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