हरियाली की छाया में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की महत्ता और संरक्षण

जंगल
15-09-2025 09:22 AM
हरियाली की छाया में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की महत्ता और संरक्षण

मेरठवासियों, क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारे आसपास की हरियाली केवल आंखों को सुकून देने वाली सुंदरता नहीं, बल्कि हमारे जीवन के लिए एक मौन सुरक्षा कवच है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे मेरठ जैसे ऐतिहासिक और कृषि प्रधान क्षेत्र में पेड़ों और वनों की उपस्थिति न केवल पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है, बल्कि ये मिट्टी, जलवायु और स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए भी अत्यंत उपयोगी हैं। हालांकि आज मेरठ शहर तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है, फिर भी यह आवश्यक है कि हम अपने पर्यावरण से जुड़े उन विषयों को जानें, जिनका हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ता है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण विषय है, उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन, जिन्हें मानसूनी वन भी कहा जाता है। ये वे जंगल होते हैं जो बरसात में हरे-भरे हो जाते हैं और सूखे मौसम में अपने पत्ते गिरा देते हैं। साल, सागौन, शीशम और महुआ जैसे पेड़ों से समृद्ध ये वन, भारत की पारिस्थितिक विविधता की रीढ़ हैं।
इस लेख में हम उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की भूमिका को पाँच मुख्य पहलुओं के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि ये वन वास्तव में होते क्या हैं और भारत में इनका भौगोलिक विस्तार कहाँ-कहाँ तक फैला हुआ है। इसके बाद हम इन वनों में पाई जाने वाली प्रमुख वनस्पतियों की विविधता पर नज़र डालेंगे और यह समझेंगे कि ये किस प्रकार हमारे जीवन और अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी हैं। तीसरे भाग में, इन वनों में पाए जाने वाले प्रमुख जीव-जंतुओं की बात करेंगे जो इस पारिस्थितिकी का अभिन्न हिस्सा हैं। फिर हम इस बात पर ध्यान देंगे कि इन वनों की पारिस्थितिक विशेषताएँ क्या हैं और ये कैसे जलवायु के बदलावों से तालमेल बैठाते हैं। अंत में, हम मौजूदा पर्यावरणीय संकटों के बीच इन वनों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयासों और टिकाऊ विकास की रणनीतियों पर चर्चा करेंगे।

उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की परिभाषा और भौगोलिक विस्तार
भारत में जिन्हें मानसून वन कहा जाता है, वे ही वास्तव में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन हैं। इनका नाम उनके विशिष्ट मौसम चक्र से आता है, ये वन वर्षा ऋतु में हरे-भरे हो जाते हैं और जैसे ही शुष्क मौसम आता है, अपने पत्तों को गिरा देते हैं। यह प्रक्रिया पानी की कमी से निपटने का उनका प्राकृतिक तरीका है। ये वन मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहां सालाना वर्षा लगभग 70 से 200 सेंटीमीटर के बीच होती है। मेरठवासियों के लिए यह जानना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे वनों की उपस्थिति, विशेष रूप से तराई क्षेत्रों और आसपास के जंगलों में मिलती है, जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में बेहद मददगार हैं। इसके अलावा ये वन मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उत्तर-पूर्वी भारत के विस्तृत भूभागों में भी फैले हुए हैं। इनकी उपस्थिति न केवल वनस्पतियों और जीवों को आश्रय देती है, बल्कि मानव जीवन के लिए भी जल, हवा और मिट्टी की गुणवत्ता को बनाए रखने का आधार बनती है।

वनस्पतियों की विविधता और आर्थिक महत्त्व
उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन केवल पेड़ों का समूह नहीं हैं, बल्कि ये वनस्पति विविधता के ख़जाने हैं। साल, सागौन, शीशम, नीम, अर्जुन, आंवला, महुआ और बांस जैसे पेड़ इनमें प्रमुख हैं। इन पेड़ों की लकड़ियाँ न केवल मजबूत होती हैं बल्कि टिकाऊ भी होती हैं, जो इन्हें भवन निर्माण, फर्नीचर (furniture) निर्माण, रेलवे स्लीपर (Railway Sleeper) और हस्तशिल्प के लिए आदर्श बनाती हैं। महुआ जैसे पेड़ जहाँ खाद्य और औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं, वहीं आंवला ग्रामीण आहार और स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि इन्हीं आर्थिक लाभों के कारण इन पेड़ों का अत्यधिक दोहन हो रहा है। कई बार वनों को साफ़ कर कृषि भूमि या नगरीय विस्तार के लिए उपयोग में लाया जाता है, जिससे इन महत्वपूर्ण प्रजातियों पर संकट मंडराने लगता है।

इन वनों में पाई जाने वाली प्रमुख जीव प्रजातियाँ
इन वनों में जीवन की विविधता केवल पेड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीव-जंतुओं की एक समृद्ध दुनिया को भी अपने भीतर समेटे हुए है। बाघ, शेर, हाथी, भालू, हिरण, लंगूर और जंगली सूअर जैसे स्तनधारी इन जंगलों के राजा माने जाते हैं। इनके साथ ही, मोर, हॉर्नबिल (Hornbill), तोते और अनेक प्रवासी पक्षी इन वनों की फिजा को सुरों और रंगों से भर देते हैं। सरीसृप जैसे कोबरा और अजगर, उभयचर जैसे मेंढक, और अनेकों कीट प्रजातियाँ, जैसे तितलियाँ और परागण करने वाले भृंग, इन पारिस्थितिक तंत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे अपघटन, परागण और कीट नियंत्रण जैसी प्रकृति की जटिल प्रक्रियाओं का हिस्सा होते हैं। मेरठ और आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को समझना होगा कि इन जीवों का संरक्षण केवल प्रकृति प्रेम नहीं, बल्कि दीर्घकालीन पारिस्थितिक सुरक्षा का बुनियादी हिस्सा है।

उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की विशेष पारिस्थितिकी और जलवायु अनुकूलन
इन वनों की पारिस्थितिकी इतनी अनूठी है कि वे भारत के लगभग 65–66% वन क्षेत्र को ढकते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि ये वन भारत की जलवायु और पारिस्थितिक संरचना के अभिन्न अंग हैं। इन वनों के वृक्षों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनकी जड़ें बहुत गहराई तक जाती हैं, जिससे वे सूखे समय में भी भूजल तक पहुँच सकते हैं। यह उन्हें जलवायु परिवर्तन और सूखा जैसी परिस्थितियों से लड़ने में सक्षम बनाता है। पत्तियों का मौसमी झड़ना मिट्टी में जैविक पदार्थों को जोड़ता है, जिससे भूमि की उर्वरता बनी रहती है। इससे न केवल वन भूमि में नई वनस्पति विकसित होती है, बल्कि कृषि भूमि के समीप स्थित क्षेत्रों में भी मिट्टी की गुणवत्ता सुधरती है। मेरठ जैसे कृषि-प्रधान जिलों में यह गुण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जहाँ खेती मिट्टी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। इन वनों का पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में योगदान, जल स्रोतों को पुनर्भरण करने में उनकी भूमिका, और जलवायु की स्थिरता बनाए रखने में इनका प्रभाव अनमोल है।

संरक्षण प्रयास और सतत विकास की रणनीतियाँ
देश में इन वनों के संरक्षण हेतु कई सरकारी और सामाजिक पहलें चल रही हैं, लेकिन इनका प्रभाव तभी बढ़ेगा जब स्थानीय लोग, जैसे हम – मेरठवासी – सक्रिय रूप से इसमें भाग लें। भारत सरकार द्वारा चलाए गए प्रमुख प्रयासों में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ (Project Tiger) और ‘प्रोजेक्ट एलीफैंट’ (Project Elephant) जैसे वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रम शामिल हैं, जो न केवल जीवों को सुरक्षित करते हैं बल्कि उनके प्राकृतिक आवासों - यानी वनों - को भी संरक्षित करते हैं। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य और बायोस्फीयर रिज़र्व (biosphere reserve) जैसी संरचनाओं की स्थापना भी की गई है। वनरोपण और पुनर्वनीकरण जैसी पहलें ख़राब होती वन भूमि को फिर से जीवित करने का कार्य करती हैं। मेरठ जैसे अर्ध-शहरी क्षेत्रों में ‘सामुदायिक वानिकी’ की योजना, जहां स्थानीय लोग वन संरक्षण के साथ-साथ अपनी आजीविका भी सुनिश्चित करते हैं, एक अत्यंत सफल मॉडल (model) बन सकती है। स्कूलों, कॉलेजों और ग्राम पंचायतों में जागरूकता अभियान और पर्यावरण शिक्षा भी दीर्घकालिक परिणाम ला सकती है।

संदर्भ-

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