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विश्व की बदलती खाद्य प्रणाली और पोषण संबंधी आवश्यकताओं के बीच, मछलियाँ और जलीय खाद्य पदार्थ एक बहुआयामी समाधान के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं। ये न केवल मानव स्वास्थ्य के लिए आवश्यक पोषक तत्वों का प्रमुख स्रोत हैं, बल्कि वैश्विक खाद्य सुरक्षा, आजीविका, जैव विविधता और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह क्षेत्र कृषि, मत्स्य पालन, पोषण विज्ञान, और पर्यावरण संरक्षण जैसे अनेक आयामों से जुड़ा हुआ है।
इस लेख में सबसे पहले हम जानेंगे कि मछली और जलीय खाद्य पदार्थ वैश्विक खाद्य प्रणाली में क्यों अत्यंत आवश्यक हैं और कैसे यह पोषण और आजीविका का एक महत्वपूर्ण साधन बनते जा रहे हैं। इसके बाद भारत में मछली पालन की वर्तमान स्थिति और प्रमुख नदियों की भूमिका पर चर्चा की जाएगी। आगे, बाँध, बैराज और जलविद्युत परियोजनाओं के कारण जलीय जीवन पर पड़ रहे गंभीर प्रभावों को समझाया जाएगा। इसके पश्चात मीठे पानी की मछलियों में आई गिरावट और उससे जैव विविधता पर उत्पन्न संकट को विस्तार से प्रस्तुत किया जाएगा। लेख के अंतिम भाग में हम जलीय जैवविविधता के संरक्षण हेतु आवश्यक ठोस कदमों की चर्चा करेंगे और भविष्य के लिए एक सुरक्षित, सुलभ और सतत मछली खाद्य प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित करेंगे।
मछली और जलीय खाद्य पदार्थों का वैश्विक खाद्य प्रणाली में महत्व
विश्व की खाद्य प्रणाली में मछली और अन्य जलीय उत्पादों की भूमिका दिन-ब-दिन महत्वपूर्ण होती जा रही है। मछलियाँ ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड, उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन, ज़िंक, विटामिन डी और आयरन जैसे आवश्यक पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं, जो विशेषकर बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुज़ुर्गों के लिए अत्यंत लाभकारी हैं।
FAO (Food and Agriculture Organization) की रिपोर्टों के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 3 अरब लोग अपनी प्रोटीन की ज़रूरतों का कम-से-कम 20% हिस्सा मछली से प्राप्त करते हैं। जलीय खाद्य उत्पादन अब कृषि उत्पादन का सबसे तेज़ी से बढ़ता हुआ क्षेत्र बन चुका है। इसके अलावा, समुद्री और मीठे पानी के मछली पालन (एक्वाकल्चर) से करोड़ों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आजीविका प्राप्त होती है।
समुद्री मछलियाँ जैसे टूना, सैल्मन, और झींगा वैश्विक वाणिज्यिक बाज़ार में बहुमूल्य उत्पाद माने जाते हैं। वहीं, स्थायी मत्स्य पालन को बढ़ावा देकर पारिस्थितिक संतुलन भी बनाए रखा जा सकता है।
भारत में मछली पालन की स्थिति और प्रमुख नदियाँ
भारत विश्व में मछली उत्पादन के क्षेत्र में दूसरे स्थान पर है, और देश की अर्थव्यवस्था में मत्स्य पालन क्षेत्र का योगदान निरंतर बढ़ रहा है। यह क्षेत्र भारत के ग्रामीण और तटीय समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण आजीविका स्रोत भी है।
देश के लगभग 14 मिलियन लोग प्रत्यक्ष रूप से मत्स्य पालन से जुड़े हैं, और यह संख्या अप्रत्यक्ष रूप से इससे भी अधिक है। भारत की प्रमुख नदियाँ—गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, महानदी और कावेरी—अंतर्देशीय मत्स्य संसाधनों का आधार बनाती हैं। इन नदियों में पाई जाने वाली पारंपरिक मछलियाँ जैसे रोहू, कतला, मृगल, सिल्वर कार्प और महाशीर स्थानीय भोजन, संस्कृति और अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं।
सरकार द्वारा चलाई गई 'नीली क्रांति' (Blue Revolution) और 'प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना' जैसे कार्यक्रम इस क्षेत्र में उत्पादन और निर्यात को प्रोत्साहित कर रहे हैं। फिर भी, अनेक चुनौतियाँ जैसे जल प्रदूषण, अत्यधिक दोहन और पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा आज भी मौजूद हैं।
बाँध, बैराज और जलविद्युत परियोजनाओं का जलीय जीवन पर प्रभाव
हाल के दशकों में भारत में जल संसाधनों के दोहन हेतु हज़ारों की संख्या में बाँध, बैराज और जलविद्युत परियोजनाएँ स्थापित की गई हैं। इन संरचनाओं का उद्देश्य सिंचाई, पीने का पानी और बिजली उत्पादन करना है, लेकिन इनके कारण नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बाधित हो गया है, जिससे जलीय पारिस्थितिकी पर गंभीर असर पड़ा है।
प्रवासी मछलियाँ (Migratory Fish Species), जैसे कि महाशीर और ईल, प्रजनन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती हैं, लेकिन बाँधों और बैराजों की दीवारें उनके मार्ग को अवरुद्ध कर देती हैं। इसका सीधा असर उनकी जनसंख्या और प्रजनन दर पर पड़ता है।
जलाशयों में ऑक्सीजन की कमी, जल का ठहराव, तापमान में परिवर्तन और अवसादन (Silting) की समस्याएँ भी जलीय जीवन को प्रभावित करती हैं। टिहरी बाँध (उत्तराखंड), हीराकुंड बाँध (ओडिशा) और फरक्का बैराज (पश्चिम बंगाल) जैसे बड़े जलसंरचनात्मक प्रोजेक्ट इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, जहाँ मछलियों की विविधता और संख्या में गिरावट देखी गई है।
मीठे पानी की मछलियों में गिरावट और ज़ैव विविधता पर संकट
मीठे पानी की मछलियाँ वैश्विक जैव विविधता का एक अत्यंत संवेदनशील भाग हैं। Living Planet Index की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, मीठे पानी की मछलियों की जनसंख्या में औसतन 76% की गिरावट दर्ज की गई है। भारत में भी यह समस्या लगातार बढ़ रही है।
गंगा बेसिन जैसी नदियों में कभी सैकड़ों प्रजातियाँ पाई जाती थीं, लेकिन आज इनमें से कई विलुप्ति की कगार पर हैं। प्रमुख कारणों में शामिल हैं: औद्योगिक प्रदूषण, शहरी अपशिष्ट का निस्तारण, कीटनाशकों और उर्वरकों का जल में बहाव, और अवैध रेत खनन।
इसके अतिरिक्त, विदेशी प्रजातियों (Invasive Species) जैसे थाईनॉट और तिलापिया का अनियंत्रित प्रसार स्थानीय प्रजातियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। जैव विविधता में कमी का प्रभाव केवल पारिस्थितिक तंत्र पर नहीं, बल्कि मछुआरों की आजीविका और स्थानीय खाद्य सुरक्षा पर भी पड़ता है।
जलीय जैवविविधता के संरक्षण की दिशा में आवश्यक कदम
इस गंभीर संकट से निपटने के लिए बहुस्तरीय प्रयासों की आवश्यकता है। संरक्षण की दिशा में कुछ आवश्यक कदम निम्नलिखित हैं:
ये कदम केवल पारिस्थितिक लाभ नहीं देंगे, बल्कि खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास को भी सशक्त बनाएँगे।
भविष्य के लिए सुरक्षित और सुलभ मछली खाद्य प्रणाली की आवश्यकता
भविष्य की वैश्विक खाद्य प्रणाली में जलीय खाद्य पदार्थों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण होने वाली है। बढ़ती जनसंख्या, पोषण संबंधी संकट, और पारंपरिक कृषि पर बढ़ता दबाव, इन सभी का समाधान एक सतत, समावेशी और सुलभ जलीय खाद्य प्रणाली से निकल सकता है।
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