रामपुरवासियो, जानिए पुनर्जन्म पर हिंदू, बौद्ध और यहूदी दृष्टिकोण

विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
13-08-2025 09:26 AM
रामपुरवासियो, जानिए पुनर्जन्म पर हिंदू, बौद्ध और यहूदी दृष्टिकोण

रामपुरवासियो, आइए आज एक दिलचस्प और गूढ़ विषय पर बात करते हैं, क्या मौत वाक़ई सब कुछ का अंत होती है, या फिर यह किसी नई यात्रा की शुरुआत है? हमारे अपने रामपुर में भी बहुत से लोग इस सवाल का जवाब 'पुनर्जन्म' की अवधारणा में ढूंढते हैं। यह एक ऐसा विश्वास है, जिसमें माना जाता है कि जब हमारा शरीर मरता है, तब भी हमारी आत्मा नहीं मरती, बल्कि वह किसी और शरीर में फिर से जन्म लेती है। यही विचार ‘पुनर्जन्म’ या ‘पुनरुत्थान’ कहलाता है। यह सिर्फ़ कोई धार्मिक सोच नहीं है, बल्कि हमारी ज़िंदगी के कर्म, सोच और उद्देश्य को भी प्रभावित करता है। चलिए, आज हम साथ मिलकर यह समझने की कोशिश करते हैं कि हिंदू, बौद्ध और यहूदी धर्म, तीनों इस रहस्यमयी यात्रा को कैसे देखते हैं। 
इस लेख में सबसे पहले हम जानेंगे कि पुनर्जन्म और पुनरुत्थान में क्या अंतर होता है। फिर हम हिंदू धर्म की उस गूढ़ अवधारणा को समझेंगे, जिसमें पुनर्जन्म को संसार चक्र से जोड़ा गया है। इसके बाद हम मोक्ष की ओर दृष्टि डालेंगे, वह अंतिम लक्ष्य जो जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्ति दिलाता है। फिर हम बौद्ध धर्म की दृष्टि से पुनर्जन्म को जानेंगे, जहाँ आत्मा नहीं बल्कि चेतना और कर्म का स्थानांतरण होता है। अंत में, हम यहूदी धर्म के उस विशेष दृष्टिकोण को जानेंगे जिसमें पुनर्जन्म आत्मा की व्यक्तिगत यात्रा नहीं, बल्कि संपूर्ण आत्मा-संघ की मरम्मत की प्रक्रिया है।

पुनर्जन्म और पुनरुत्थान में क्या अंतर है?
पुनर्जन्म और पुनरुत्थान, ये दोनों शब्द सुनने में मिलते-जुलते लग सकते हैं, परंतु इनकी धार्मिक और दार्शनिक व्याख्याएं एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। पुनरुत्थान की अवधारणा यह मानती है कि मरने के बाद व्यक्ति की वही आत्मा फिर से उसी या किसी विशेष शरीर में जीवन पाती है। जबकि पुनर्जन्म का सिद्धांत इस विश्वास पर आधारित है कि आत्मा एक शरीर को छोड़कर, किसी नए शरीर में प्रवेश करती है, यह नया जीवन पूर्व जन्म के कर्मों पर आधारित होता है। हिंदू धर्म पुनर्जन्म को आत्मा की अमरता से जोड़ता है। यहां आत्मा को शाश्वत और अजर-अमर माना गया है, जो मृत्यु के बाद केवल अपना शरीर बदलती है। दूसरी ओर, बौद्ध धर्म आत्मा की अवधारणा को अस्वीकार करता है। उनके अनुसार, कुछ भी स्थायी नहीं होता, न शरीर, न आत्मा। पुनर्जन्म केवल कर्म और चेतना की निरंतरता पर आधारित होता है। इस अंतर को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह हमारे जीवन, आचरण और मोक्ष के लक्ष्य को प्रभावित करता है।

हिंदू धर्म में पुनर्जन्म और संसार चक्र की अवधारणा
हिंदू धर्म में जीवन को एक अंतहीन चक्र के रूप में देखा जाता है, जिसे संसार चक्र कहा जाता है। यह चक्र जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म की निरंतर प्रक्रिया है। इस मान्यता के अनुसार, प्रत्येक जीवित प्राणी में आत्मा होती है जो ब्रह्म (परम सत्ता) का अंश है। यह आत्मा न तो जन्म लेती है और न मरती है, बल्कि शरीर बदलती है, जैसे हम पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए पहनते हैं। यह पुनर्जन्म केवल शारीरिक नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक परिणामों से जुड़ा होता है। यानी, आत्मा का अगला जीवन इस जीवन के कर्मों पर निर्भर करता है। यदि किसी व्यक्ति के कर्म पुण्यपूर्ण हैं, तो वह किसी बेहतर जीवन रूप में जन्म लेता है, जैसे मनुष्य या देव योनि में। वहीं यदि कर्म पापमय हैं, तो आत्मा निम्नतर रूपों में जन्म ले सकती है, जैसे पशु या कीट के रूप में। इस प्रकार, जीवन की गुणवत्ता कर्मों से निर्धारित होती है और यही पुनर्जन्म की केंद्रीय अवधारणा है।

मोक्ष की अवधारणा और पुनर्जन्म से मुक्ति का मार्ग
हिंदू धर्म में जीवन का परम उद्देश्य है, मोक्ष की प्राप्ति। मोक्ष का तात्पर्य है संसार चक्र से मुक्ति पाना और ब्रह्म के साथ आत्मा का पुनः एकत्व स्थापित करना। यह मुक्ति केवल सत्कर्म, ज्ञान और आत्मसंयम के मार्ग से प्राप्त की जा सकती है। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपने जीवन के कई चक्रों में नैतिकता, भक्ति और आत्मबोध का अभ्यास करना होता है। यह साधना एक जन्म में पूरी नहीं होती, कई जन्मों के संचित पुण्य, संयमित जीवन और आंतरिक ज्ञान ही आत्मा को उस अवस्था तक ले जाते हैं जहाँ वह पुनर्जन्म की आवश्यकता से मुक्त हो जाती है। जब यह होता है, तो आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है और वह अनंत शांति प्राप्त करती है। इस अवस्था में व्यक्ति के लिए जन्म और मृत्यु का कोई अर्थ नहीं रह जाता, केवल आत्मिक पूर्णता ही शेष रह जाती है।

बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म का सिद्धांत और कर्म का प्रभाव
बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म का अर्थ आत्मा के पुनः अवतरित होने से नहीं है, बल्कि चेतना की निरंतरता और कर्म की ऊर्जा के आगे बढ़ने से है। इस धर्म में "अनिक्का" यानी अस्थायित्व का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार कोई भी वस्तु, भावना या स्थिति स्थायी नहीं होती। यही कारण है कि बौद्ध दर्शन में आत्मा जैसी कोई अचल इकाई नहीं मानी जाती। बौद्ध मान्यता के अनुसार, जीवों का पुनर्जन्म छह लोकों में होता है, देवता, अर्ध-देवता, मनुष्य, पशु, भूत और नरक। कौन-सा प्राणी किस लोक में जन्म लेगा, यह उसके कर्मों पर निर्भर करता है। अच्छे कर्म (कुसल कर्म) मनुष्य या देवता के रूप में जन्म दिलाते हैं, जबकि बुरे कर्म (अकुसल) पशु या नरक जैसे लोकों में ले जाते हैं। यह पुनर्जन्म एक सतत प्रक्रिया है जिसमें चेतना का प्रवाह बना रहता है, पर कोई निश्चित ‘स्व’ नहीं होता। यह विचार गूढ़ अवश्य है, लेकिन बौद्ध परंपराओं में इसकी गहराई से व्याख्या की गई है, जो जीवन को एक कर्म-आधारित यात्रा के रूप में देखती है।

File:Bhavachakra Samsara, Buddhist Wheel of Life, Dhamma Nagajjuna, Nagarjuna Sagar Telangana, India.jpg
भावचक्र, बौद्ध जीवन चक्र

यहूदी धर्म में पुनर्जन्म की अवधारणा: आत्मा–संघ और टिक्कुन ओलम
यहूदी धर्म, विशेषतः ल्यूरियानिक कबाला परंपरा, पुनर्जन्म को एक सामूहिक आत्मिक प्रक्रिया के रूप में देखती है। यहाँ यह माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा कोई अलग इकाई नहीं है, बल्कि वह एक व्यापक आत्मा-संघ का हिस्सा है, जिसे निश्मत एडम हारिशोन (Adam HaRishon) (पहले मानव की आत्मा) कहा जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, प्रत्येक जीवन में आत्मा-संघ के कुछ टुकड़े हमारे भीतर होते हैं और हमारा कार्य इन टुकड़ों को संतुलित करना होता है। इस आत्मिक संतुलन की प्रक्रिया को टिक्कुन ओलम कहा जाता है, यानी संसार की आत्मिक मरम्मत। हम जो भी आध्यात्मिक कार्य करते हैं, उसका उद्देश्य केवल हमारा उद्धार नहीं होता, बल्कि उस मूल आत्मा को सुधारना होता है जिससे सभी आत्माएँ निकली हैं। यह अवधारणा पुनर्जन्म को एक निजी अनुभव नहीं, बल्कि एक साझा, सामूहिक दायित्व के रूप में प्रस्तुत करती है, जहाँ जीवन का उद्देश्य है: सम्पूर्ण आत्मिक ब्रह्मांड का उपचार।

संदर्भ-
https://shorturl.at/8Muka 

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