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मंदिरों का इतिहास सदैव ही अत्यंत महत्वपूर्ण और मज़ेदार रहता है और ऐसा ही एक प्राचीन मंदिर हमारे मेरठ में भी स्थित है। यह मंदिर इतिहास में काली पलटन के नाम से भी प्रचलित था और यहाँ पर आज भी लोग बड़ी संख्या में शीश नावाने आते हैं। आइये जानते हैं इस मंदिर के इतिहास और उसके रोचक पहलुओं को।
काली पलटन मन्दिर क्यों कहते है ?
जब हमारा देश भारत स्वतंत्र नहीं हुआ था तब अंग्रेज अधिकारी भारतीय सिपाहियों को “काली पलटन” ब्लैक आर्मी के नाम से बुलाते थे क्योकि भारतीय सिपाही व अन्य इस जगह शिवलिंग की पूजा के लिए आते थे इसके साथ ही भारतीय सिपाहियों की टुकडियो के निकट होने के कारण मन्दिर के कुए के पानी से प्यास भी भुझाते थे,यहाँ ,जहा आज मन्दिर है अक्सर अपने विचारो,सुझावों और रहस्यों का आदान प्रदान करने के लिए मिलते थे क्योकि अंग्रेजी शासन के समय यह सुरक्षित स्थान माना जाता था इस लिए यह मन्दिर काली पलटन के नाम से अधिक प्रसिद्ध है ।
ऐतिहासिक महत्व
1857 का वह दौर था जब भारत दमनकारी शक्तियों के खिलाफ आवाज़ उठा रहा था। सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजों ने अत्याचार फैला रखा था विभिन्न स्थानों से उनके जुर्म के कई दस्तावेज़ उपलब्ध हो रहे थे। झाँसी में सत्ता के वारिs के लिए एक अलग ही जंग लड़ी जा रही थी। ऐसे में मेरठ से एक अत्यंत ही तीव्र चिंगारी फैली जिसने भारत के एक बड़े हिस्से में विरोध की आग को फैला दिया था। 1857 की बात इसलिए की जा रही है क्यूंकि काली पलटन या औघड़नाथ मंदिर इस क्रान्ति का प्रत्यक्षदर्शी रहा था। मेरठ में स्थित औघड़नाथ मंदिर एक प्राचीन सिद्धपीठ के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर का नाम औघड़नाथ इस लिए पड़ा क्यूंकि यहाँ पर मन्नत मानने वालों को उनकी इच्छा की पूर्ती होती है। इसी तर्ज पर औघड़दानी से प्रेरित होकर इस मंदिर का नाम पड़ा। इस मंदिर को स्वयंभू मंदिर माना जाता है। इस मंदिर के उद्भव और इसके निर्माण के विषय में किसी भी प्रकार की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। और यदि वास्तुकला के रूप में इस मंदिर के इतिहास को देखें तो भी कोई जानकारी नहीं प्राप्त हो पाती है क्यूंकि वर्तमान मंदिर बहुत ही नए काल में निर्मित किया गया था।
अध्यात्म और एतिहासिकता का संगम
किसी भी मंदिर के समय काल को समझने में उसके अन्दर की मूर्तियाँ एक महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं परन्तु इस मंदिर में मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा बहुत ही नए काल में की गयी थी। हालांकि जनश्रुतियों की मानें तो यह मंदिर पेशवाओं द्वारा पूजित था। विजय यात्रा के पहले पेशवा मराठा यहाँ पर इकट्ठा हो शिव की आराधना किया करते थे। यह मंदिर मुख्य रूप से सन 1857 में प्रचलित हुआ था। जैसा कि उस काल में यह मंदिर अत्यंत ही शांत और जंगली परिवेश में स्थित था तो अंग्रेजों ने यहाँ पर सेना प्रशिक्षण केंद्र खोल कर रखा था और इस मंदिर में स्वतंत्रता सेनानी भारतीय पलटन के अधिकारियों से गुप्त मंत्रणा किया करते थे। जैसा कि हम जानते हैं कि 1857 की क्रांति की शुरुआत में गाय और सुअर की चर्बी का एक अहम् योगदान था। सैनिक इस मंदिर के प्रांगण में स्थित कुएं से पानी पीया करते थे। परन्तु जब कारतूस में चर्बी की बात उठी तो इस मंदिर के पुजारी ने पानी पिलाने से मना कर दिया और जिसका परिणाम यह आया कि 10 मई 1857 को सेना का विद्रोह शुरू हुआ।
इस मंदिर के प्रांगण में मेजर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के कर कमलों द्वारा स्थापित शहीद स्मारक भी स्थित है। आज भी इस मंदिर में 10 मई को सेना द्वारा शहीदों को पुष्पांजलि अर्पित की जाती है। वर्तमान मंदिर की स्थापना सन 1968 में हुयी थी। वर्तमान काल में यह मंदिर अपने अध्यात्म ही नहीं बल्कि इतिहास की वजह से भी अत्यंत ही प्रचलित है।
संदर्भ:
1. http://www.augharnathmandir.org/about_us.html
2. patrika.com/meerut-news/history-of-baba-augharnath-temple-1516232/
3. http://www.augharnathmandir.org/programmes.html
4. https://www.indianmirror.com/temples/augurnath-temple.html