चारा फसलों से दुग्ध उत्पादन तक: जौनपुर के किसानों की पोषण यात्रा

भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
11-10-2025 09:15 AM
चारा फसलों से दुग्ध उत्पादन तक: जौनपुर के किसानों की पोषण यात्रा

जौनपुरवासियो, जब आप सुबह की चाय में दूध डालते हैं या गर्मागर्म दाल-चावल के साथ घी का स्वाद लेते हैं, तो क्या आपने कभी सोचा है कि उस हर बूंद दूध के पीछे किसकी मेहनत छिपी है? वह सिर्फ़ किसान की नहीं, बल्कि उस पशु की भी है जिसे हर दिन सही और पोषक चारा खिलाया जाता है। और यही चारा फसलें, जो अक्सर हमारी बातचीत में नहीं आतीं, असल में हमारे स्वास्थ्य, हमारे किसानों की आजीविका और पर्यावरण - तीनों की कड़ी जोड़ती हैं। जौनपुर जैसे कृषि-प्रधान जिले में, जहाँ हज़ारों परिवार पशुपालन के ज़रिए अपना घर चलाते हैं, वहाँ चारा केवल घास नहीं बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक स्तंभ है। चाहे गाँव की किसी महिला का सुबह उठकर मवेशियों को खिलाना हो या किसान का खेत की मेड़ों पर चारे वाले वृक्ष लगाना - यह सारा प्रयास सिर्फ़ दूध के लिए नहीं, बल्कि एक संतुलित जीवन प्रणाली के लिए होता है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि आज यह क्षेत्र अनेक चुनौतियों से घिरा है - चरागाह कम हो रहे हैं, चारे की मांग बढ़ रही है, और पशुपालकों को सब्सिडी (subsidy) या तकनीकी जानकारी बहुत सीमित रूप में मिल रही है। आज जब हम जलवायु परिवर्तन, कुपोषण और ग्रामीण बेरोज़गारी की चर्चा करते हैं, तो चारा फसलों का महत्व और इनकी स्थायी आपूर्ति एक बेहद अहम मुद्दा बन जाता है। यह केवल डेयरी (dairy) किसानों का विषय नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति से जुड़ा है जो शुद्ध दूध, घी या दही का सेवन करता है। और इसलिए ज़रूरत है कि हम चारा फसलों को ‘हाशिए’ से निकालकर ‘केन्द्र’ में लाएँ - ताकि जौनपुर का हर किसान, हर पशु और हर परिवार एक स्वस्थ, समर्थ और आत्मनिर्भर जीवन की ओर बढ़ सके। 
इस लेख में हम जानेंगे कि चारा फसलें क्या हैं और दूध उत्पादन में इनकी भूमिका कैसी है। इसके बाद, भारत में इन फसलों की स्थिति और चुनौतियाँ समझेंगे। फिर, पेरी-अर्बन (Peri-Urban) क्षेत्रों में चारे की बढ़ती मांग और इसके पर्यावरणीय प्रभाव पर नजर डालेंगे। अंत में, हम सरकार की हरे चारे वाले वृक्षों की सब्सिडी योजनाओं और इससे किसानों को मिलने वाले लाभ पर चर्चा करेंगे।

चारा फसलें क्या होती हैं और दूध उत्पादन में इनकी भूमिका
चारा फसलें (Forage Crops) वे विशेष फसलें होती हैं जिन्हें सिर्फ़ पशुओं के भोजन के लिए उगाया जाता है, न कि मानवीय उपभोग के लिए। भारत में इन फसलों में ज्वार, बरसीम, मकई, नेपियर (Napier) घास और जई जैसी घासें प्रमुख हैं, जो गाय, भैंस और बकरी जैसे दुधारू जानवरों को हरे चारे के रूप में खिलाई जाती हैं। हरे चारे का पोषण सीधे पशुओं के स्वास्थ्य पर असर डालता है, जिससे दूध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों बेहतर होती हैं। यह बात अक्सर लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि जो जानवर जो खाता है, उसका असर दूध, दही और घी की पौष्टिकता पर पड़ता है - और अंततः हमारे शरीर पर भी। इसलिए चारा फसलें केवल खेत की उपज नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण पोषण-चक्र की शुरुआत हैं - खेत से चारा, चारे से जानवर, जानवर से दूध और फिर दूध से हमारे भोजन का पोषण। यदि हम दूध की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार चाहते हैं, तो सबसे पहला कदम बेहतर चारे की उपलब्धता और गुणवत्ता सुनिश्चित करना होगा।

भारत में चारा फसलों की वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ
आज भारत में लगभग 8.3 मिलियन हेक्टेयर (million hectare) भूमि पर चारा फसलें उगाई जाती हैं, जो कुल कृषि भूमि का बहुत छोटा हिस्सा है, जबकि देश में पशुधन की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। खरीफ मौसम में ज्वार और रबी मौसम में बरसीम जैसी फसलें प्रमुख हैं, लेकिन इनके लिए भूमि का विस्तार पिछले तीन-चार दशकों से लगभग स्थिर बना हुआ है। चरागाहों का क्षेत्र लगातार घट रहा है और अत्यधिक चराई के कारण उनकी उत्पादकता भी गिर रही है। इसके अलावा, भूमि कवर डेटा रिपोर्टिंग (Land Cover Data Reporting) की कमी के चलते न तो सही आंकड़े उपलब्ध हो पाते हैं और न ही नीतियाँ ज़मीनी हकीकत पर आधारित बन पाती हैं। नतीजा यह है कि पशुओं के लिए चारे की मांग और वास्तविक उत्पादन के बीच एक गहरी खाई बनती जा रही है। यह असंतुलन न केवल पशुपालकों के लिए समस्या है, बल्कि पूरे डेयरी उद्योग की स्थिरता के लिए एक गंभीर चुनौती है।

पेरी-अर्बन क्षेत्रों में चारे की मांग और पर्यावरणीय प्रभाव
पिछले कुछ वर्षों में शहरीकरण के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों - जिन्हें पेरी-अर्बन (Peri-Urban) क्षेत्र कहा जाता है - में डेयरी फार्मिंग (Dairy Farming) का तेज़ी से विकास हुआ है। इन क्षेत्रों में ‘मिल्क शेड’ (Milk Shade) बनाए गए हैं, जहाँ सघन डेयरी उत्पादन होता है और रोज़ाना हजारों लीटर दूध का संग्रह किया जाता है। इससे चारे की मांग अचानक बढ़ गई है, जिससे पारंपरिक चरागाह अब पर्याप्त नहीं रह गए। नतीजतन, आसपास के घास के मैदानों और प्राकृतिक रेंजलैंड (natural rangeland) पर अत्यधिक दबाव पड़ा है। इस अंधाधुंध उपयोग ने न केवल जैव विविधता को नुकसान पहुँचाया है, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन को भी प्रभावित किया है। साथ ही, बढ़ती पशुधन आबादी के कारण जैविक कचरे की मात्रा में भी वृद्धि हुई है। यदि इस कचरे का सही तरीके से उपयोग किया जाए, तो यह खाद और ऊर्जा के रूप में लाभदायक हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में चारा उत्पादन अब केवल पशुपालन की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह पर्यावरणीय नीति, भूमि योजना और सतत कृषि के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण विषय बन चुका है।

हरे चारे वाले वृक्ष: सरकार की नई सब्सिडी योजना
चारा संकट से निपटने और पर्यावरण के अनुकूल विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों ने हरे चारे वाले वृक्षों की खेती पर विशेष ध्यान देना शुरू किया है। विशेष रूप से पशुपालन विभाग ने एक योजना शुरू की है जिसमें डेयरी किसानों को सब्सिडी के तहत चारा देने वाले वृक्षों के पौधे उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इन पेड़ों की खासियत यह है कि इन्हें खेत की सीमाओं पर लगाया जा सकता है और ये वर्ष भर हरा चारा प्रदान कर सकते हैं। इससे न केवल पशुओं को स्थिर पोषण मिलेगा, बल्कि भूमि की गुणवत्ता भी सुधरेगी और पारिस्थितिकी को लाभ होगा। किसानों को सलाह दी जा रही है कि वे अपने खेतों की मेड़ पर इन पौधों को लगाकर अपने पशुओं के लिए चारे की आत्मनिर्भरता हासिल करें। इससे उनकी लागत भी घटेगी और उत्पादन की निरंतरता भी बनी रहेगी।

चारा उत्पादन और दूध उत्पादन की लागत का सम्बन्ध
डेयरी उद्योग में यह बात लगभग सर्वमान्य है कि कुल लागत का 65% से 70% हिस्सा केवल चारे पर खर्च होता है। यानी अगर चारा महंगा या अनुपलब्ध हो, तो दूध उत्पादन का पूरा गणित बिगड़ सकता है। आज की स्थिति में हरे चारे की मांग लगातार बढ़ रही है, लेकिन आपूर्ति उस दर से नहीं बढ़ रही। यह अंतर न केवल किसानों की आय को प्रभावित करता है, बल्कि दूध की कीमतों और गुणवत्ता पर भी असर डालता है। यही वजह है कि सरकार ने चारा फसलों और चारा वृक्षों पर सब्सिडी देने की नीति अपनाई है ताकि किसानों को राहत मिले। इससे न केवल उनकी लागत घटेगी, बल्कि वे अधिक टिकाऊ और लाभदायक डेयरी प्रणाली भी अपना सकेंगे। इसके अलावा, जब चारे की लागत नियंत्रण में होगी, तो छोटे और सीमांत किसान भी डेयरी व्यवसाय में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। सब्सिडी, बीज वितरण और तकनीकी जानकारी के सही समन्वय से यह अंतर भरना संभव है और यही भविष्य की दिशा भी है।

संदर्भ-
https://tinyurl.com/sjfe7ram 



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