लखनऊवासियो, जब भी हम घर में कुत्ता पालने का सोचते हैं, तो ज़्यादातर हमारे ज़हन में विदेशी नस्लों के नाम ही सबसे पहले आते हैं। जर्मन शेफ़र्ड (German Shephard), लैब्राडोर (Labrador) या पग (Pug) जैसी नस्लें टीवी विज्ञापनों, फ़िल्मों और सोशल मीडिया (social media) पर इतनी दिखाई देती हैं कि हमें लगता है यही असली विकल्प हैं। लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि भारत की अपनी देसी नस्लें कितनी अद्भुत, बहादुर और वफ़ादार हैं? यह सच है कि विदेशी नस्लें देखने में आकर्षक लगती हैं, लेकिन अक्सर वे हमारे मौसम और वातावरण में पूरी तरह ढल नहीं पातीं और जल्दी बीमार पड़ जाती हैं। इसके उलट हमारी भारतीय नस्लें सदियों से यहां के घरों, खेतों, जंगलों और पहाड़ों की रक्षा करती आ रही हैं। इन्हीं में से एक है भोटिया या हिमालयन शीपडॉग (Himalayan Sheepdog)। पहाड़ों का यह बेमिसाल प्रहरी अपनी ताक़त, चपलता और निडर स्वभाव के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि यह तेंदुए जैसे ख़तरनाक शिकारी का भी सामना करने से पीछे नहीं हटता। यह नस्ल सिर्फ़ पहाड़ों के गांवों और मवेशियों की सुरक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और विरासत का एक जीवंत प्रतीक भी है। आज जब हम विदेशी नस्लों के आकर्षण में अपनी जड़ों को भूलते जा रहे हैं, तो भोटिया कुत्ता हमें याद दिलाता है कि सच्ची वफ़ादारी और साहस कहीं बाहर से आयात नहीं किए जाते - वे हमारी अपनी धरती से ही उपजते हैं।
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भारतीय नस्लों की उपेक्षा क्यों हुई और विदेशी नस्लों का आकर्षण कैसे बढ़ा। फिर, हम समझेंगे कि भोटिया या हिमालयन शीपडॉग की उत्पत्ति कहाँ से हुई और इसकी क्षेत्रीय पहचान कैसी है। इसके बाद, हम इस नस्ल की अद्भुत शारीरिक विशेषताओं जैसे ताक़त, फुर्ती और सुरक्षा क्षमता के बारे में चर्चा करेंगे। अंत में, हम देखेंगे कि स्थानीय जीवन और संस्कृति में इस नस्ल की क्या भूमिका रही है और आज इसके संरक्षण की आवश्यकता क्यों है।
भारतीय नस्लों की उपेक्षा और विदेशी नस्लों का आकर्षण
आजकल हमारे आस-पास जब भी किसी घर में कुत्ता दिखाई देता है, तो अक्सर वह किसी विदेशी नस्ल का होता है। लोग गर्व से कहते हैं - “यह जर्मन शेफर्ड है”, “यह साइबेरियन हस्की (Siberian Husky) है”, “यह पग है”। विदेशी नस्लों का आकर्षण इतना बढ़ चुका है कि आम लोग यह मान बैठे हैं कि केवल वही प्रीमियम या असली पालतू कुत्ते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि भारत के पास भी कई अद्भुत और साहसी नस्लें हैं, जिन्हें हम धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं। विदेशी नस्लों के प्रति आकर्षण की सबसे बड़ी वजह है उनका विज्ञापन और शोभनीय रूप। फिल्मों, विज्ञापनों और सोशल मीडिया पर इन नस्लों को लगातार दिखाया जाता है। वहीं, हमारे देशी कुत्तों के बारे में जागरूकता बहुत कम है। लेकिन विदेशी नस्लें भारतीय जलवायु और वातावरण में पूरी तरह से ढल नहीं पातीं। परिणामस्वरूप, उन्हें बार-बार बीमारियाँ घेर लेती हैं। उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती है, हड्डियाँ जल्दी जवाब दे देती हैं, और कई नस्लें गर्मी सहन ही नहीं कर पातीं। इसके विपरीत, भारतीय नस्लें हजारों वर्षों से इसी मिट्टी में पली-बढ़ी हैं। चाहे झुलसाने वाली गर्मी हो या बर्फ़ीली सर्दी - वे हर परिस्थिति में खुद को ढाल लेती हैं। इनकी देखभाल भी विदेशी नस्लों के मुकाबले कहीं आसान है। इन्हें न तो महंगे डॉग फूड (dog food) की उतनी ज़रूरत पड़ती है और न ही बार-बार अस्पताल भागना पड़ता है। यही वजह है कि आज कई लोग दोबारा भारतीय नस्लों की ओर लौट रहे हैं और उनमें सबसे खास स्थान रखती है - भोटिया या हिमालयन शीपडॉग।
भोटिया या हिमालयन शीपडॉग की उत्पत्ति और क्षेत्रीय पहचान
भोटिया नस्ल का संबंध उत्तराखंड और हिमालयी क्षेत्रों से माना जाता है। इसे हिमालयन शीपडॉग भी कहा जाता है। सदियों से यह नस्ल पहाड़ों के गांवों, बर्फ़ीले रास्तों और हरे-भरे मैदानों की साथी रही है। नेपाल और हिमाचल प्रदेश में भी इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कहीं इसे भोटे कुकुर कहा जाता है तो कहीं भूटिया गद्दी लेपर्डहुंड (Bhutia Gaddi Leopard Hound)। भोटिया नस्ल का इतिहास सिर्फ भौगोलिक पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का भी हिस्सा है। उत्तराखंड के लोग इसे अपने परिवार का अंग मानते हैं। पहाड़ों में रहने वाले चरवाहे और स्थानीय लोग अपने मवेशियों की सुरक्षा के लिए इन्हीं पर भरोसा करते हैं। यहां तक कि कई मान्यताओं के अनुसार यह नस्ल सदियों से गांवों और मंदिरों की रक्षा करती आई है। इस नस्ल की सबसे बड़ी खासियत है कि यह कठोर से कठोर इलाकों में भी टिक सकती है। जहां इंसानों का सांस लेना मुश्किल हो जाता है, वहां भी यह कुत्ता अपने मालिक के साथ खड़ा रहता है। यही कारण है कि इसे सिर्फ एक पालतू जानवर नहीं, बल्कि जीवित प्रहरी कहा जाता है।

हिमालयन शीपडॉग की अद्भुत शारीरिक विशेषताएँ
भोटिया कुत्ते की बनावट पहली नज़र में ही आपको प्रभावित कर देती है। इसका शरीर मज़बूत और फुर्तीला होता है। औसतन इसकी ऊँचाई 26-32 इंच और वजन 60-84 पाउंड (pound) तक होता है। यह रोज़ाना 20-25 किलोमीटर तक बिना थके चल सकता है, जो इसकी अद्भुत सहनशक्ति को दर्शाता है। इसके रंग भी बेहद आकर्षक होते हैं - गहरे काले, भूरे, लाल और कभी-कभी मटमैले सफेद। इसकी झबरीली पूंछ, गहरी छाती और घना फर इसे पहाड़ी ठंड में ढाल देता है। कान हल्के झुके हुए होते हैं और आंखों में हमेशा सतर्कता झलकती है। भोटिया की सबसे खास बात है इसकी ताकत और आक्रामकता। यह तेंदुए तक का सामना करने से पीछे नहीं हटता। इसकी गर्दन के चारों ओर घने बालों का घेरा प्राकृतिक कवच की तरह काम करता है। अक्सर गांव वाले इसे एक नुकीला कॉलर पहनाते हैं, ताकि जंगली जानवर गर्दन पर हमला न कर सकें। सिर्फ ताकत ही नहीं, यह कुत्ता बेहद सक्रिय और चौकन्ना भी होता है। हमेशा अपने क्षेत्र का निरीक्षण करता रहता है और ज़रा-सी आहट पर भौंककर खतरे का संकेत दे देता है। इसकी फुर्ती और तेज़ दाँत इसे एक आदर्श सुरक्षा प्रहरी बनाते हैं।
स्थानीय जीवन में भोटिया नस्ल की भूमिका
भोटिया नस्ल पहाड़ों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। चरवाहे जब अपने मवेशियों को ऊँचाई पर ले जाते हैं, तो इनकी सुरक्षा का भार भोटिया कुत्ते उठाते हैं। तेंदुए या भालू जैसे जंगली जानवरों का खतरा लगातार बना रहता है। लेकिन दो भोटिया कुत्तों की मौजूदगी ही पूरे झुंड को सुरक्षित रखने के लिए काफी होती है। गांवों में भी इन्हें घर और खेत की रखवाली के लिए रखा जाता है। कई लोग मानते हैं कि भोटिया कुत्ता न सिर्फ पहरेदार होता है, बल्कि परिवार का सदस्य भी होता है। यह अपने मालिक के लिए अपनी जान तक की बाज़ी लगाने को तैयार रहता है। सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोग भी इस पर भरोसा करते हैं। सेना और स्थानीय सुरक्षा बलों ने कई बार भोटिया नस्ल की मदद ली है क्योंकि यह पहाड़ी इलाकों से भली-भांति परिचित है और खतरे की आहट तुरंत पहचान लेता है।
महाभारत काल और भारतीय संस्कृति में कुत्तों का उल्लेख
भोटिया नस्ल का महत्व सिर्फ आधुनिक जीवन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका जिक्र हमारी पौराणिक कहानियों और महाभारत में भी मिलता है। माना जाता है कि यह नस्ल महाभारत काल से ही मौजूद है। महाभारत की शुरुआत एक कुत्ते की कहानी से होती है और अंत भी उसी के साथ। जनमेजय के यज्ञ प्रसंग में कुत्ते की उपस्थिति ने एक बड़ा मोड़ लाया। एकलव्य और कुत्ते की कथा तो हम सभी जानते हैं, जिसमें उसने अपने धनुषकौशल से कुत्ते का मुँह तीरों से भर दिया था। महाभारत के अंत में जब पांडव स्वर्ग की ओर जा रहे थे, तब युधिष्ठिर के साथ एक कुत्ता भी था। इंद्र ने उसे स्वर्ग में प्रवेश देने से मना कर दिया। लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि वह अपने वफादार साथी को छोड़कर स्वर्ग नहीं जाएंगे। इस भावना से प्रभावित होकर अंततः दोनों को प्रवेश दिया गया। यह प्रसंग दर्शाता है कि कुत्तों की वफादारी और इंसान के साथ उनके अटूट रिश्ते को हमारी संस्कृति ने कितनी गहराई से स्वीकार किया है।

भोटिया नस्ल का आज का महत्व और संरक्षण की आवश्यकता
आज जब हम विदेशी नस्लों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, तब भोटिया जैसी भारतीय नस्लों का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह नस्ल न केवल स्थानीय वातावरण के लिए उपयुक्त है, बल्कि वफादारी और बहादुरी का प्रतीक भी है। भोटिया नस्ल की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। अगर हम इसे महत्व नहीं देंगे, तो यह अमूल्य धरोहर आने वाली पीढ़ियों से छिन जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि लोग इन्हें अपनाएँ और इनके संरक्षण की दिशा में कदम उठाएँ। स्वदेशी नस्लों को अपनाना सिर्फ एक पालतू जानवर चुनने का मामला नहीं है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, परंपरा और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का प्रतीक है। भोटिया नस्ल हमें यह सिखाती है कि सच्चा साथी वही है जो हर परिस्थिति में आपके साथ खड़ा रहे - चाहे वह महाभारत का युग हो या आज का आधुनिक समय।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/bdw6xhsj
https://tinyurl.com/4mrnbj7k
https://tinyurl.com/46cb4dmw
https://tinyurl.com/5bjpdadd
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