लखनऊवासियों जानिए, मुंबई में तीखी गंध वाली यह अजीब मछली इतनी लोकप्रिय क्यों है?

मछलियाँ और उभयचर
06-12-2025 09:20 AM
लखनऊवासियों जानिए, मुंबई में तीखी गंध वाली यह अजीब मछली इतनी लोकप्रिय क्यों है?

लखनऊवासियों, आप जो नज़ाकत और ज़ायकों को बख़ूबी पहचानते हैं, शायद आपने बॉम्बे डक मछली का नाम किसी पारसी व्यंजन की चर्चा में, या मुंबई के मछुआरों से जुड़ी किसी पुरानी कहानी में सुना हो। यह मछली देखने में थोड़ी अलग, गंध में तीखी, और नाम के मामले में कुछ भ्रमित करने वाली ज़रूर है, मगर इसके पीछे छिपा इतिहास बेहद दिलचस्प है। कभी समुद्र किनारे सूखने वाली एक साधारण सी मछली, आज कई संस्कृतियों, समुदायों और शहरों की स्मृतियों में ज़िंदा है। मुंबई की पारसी थालियों से लेकर विदेशों की दुकानों तक, इसका सफर उतना ही विशिष्ट है जितना इसका स्वाद। आइए, आज लखनऊ से बैठकर एक ऐसी मछली की यात्रा पर चलते हैं, जिसने अपनी पहचान स्वाद से नहीं, बल्कि किस्सों, संघर्षों और सांस्कृतिक जुड़ावों से बनाई है।
इस लेख में हम जानेंगे कि बॉम्बे डक मछली आखिर इतनी विशेष क्यों है। पहले हम देखेंगे कि इस मछली की बनावट, रंग और नाम की उत्पत्ति में क्या अनोखापन है। फिर, हम समझेंगे कि पारसी संस्कृति ने इस मछली को कैसे अपने खान-पान का अहम हिस्सा बनाया। इसके बाद, हम जानेंगे कि पारंपरिक तरीक़ों से इसे कैसे सुखाया जाता है और लोग इसे कैसे पकाते हैं। फिर, हम यूरोपीय प्रतिबंधों और ‘बॉम्बे डक बचाओ’ जैसे अभियानों की रोचक जानकारी लेंगे। अंत में, हम वर्तमान समय में विदेशों में रहने वाले प्रवासी समाजों में इसकी लोकप्रियता को समझेंगे।

बॉम्बे डक: एक विचित्र गंध वाली मछली की पहचान और उत्पत्ति
बॉम्बे डक, एक ऐसी मछली है जिसे पहली नज़र में देखकर कोई भी इसे खाने की कल्पना नहीं कर सकता। यह मछली सामान्य मछलियों की तरह आकर्षक या सुंदर नहीं होती - बल्कि यह एक चिपचिपी, हल्के गुलाबी रंग की, अधखुले मुंह वाली और कभी-कभी डरावनी दिखने वाली मछली होती है। मगर यही उसकी पहचान है। महाराष्ट्र की तटीय पट्टी, विशेषकर मुंबई और आसपास के समुद्री इलाकों में यह मछली लोगों की रसोई में लंबे समय से मौजूद है। स्थानीय मराठी भाषा में इसे "बॉम्बिल" (Bombil) कहा जाता है, जो इस मछली का पारंपरिक नाम है। लेकिन "बॉम्बे डक" नाम कैसे पड़ा, यह बात अपने-आप में दिलचस्प है। एक मान्यता के अनुसार, जब अंग्रेजों ने इस क्षेत्र पर शासन किया, तो उन्होंने "बॉम्बिल" शब्द को अपने उच्चारण में "बॉम्बे डक" में बदल दिया। यह अंग्रेज़ीकरण कालांतर में इतना प्रचलित हो गया कि यही नाम इसकी वैश्विक पहचान बन गया। दूसरी ओर, ब्रिटिश-पारसी लेखक फारुख धोंडी की किताब बॉम्बे डक एक और दिलचस्प कहानी सामने रखती है। उनके अनुसार, ब्रिटिश काल में यह मछली सूखी अवस्था में बॉम्बे (अब मुंबई) से देश के अन्य हिस्सों में डाकगाड़ियों के ज़रिए भेजी जाती थी। डिब्बों में बंद इन मछलियों की तीव्र गंध पूरी डाकगाड़ी को अपनी चपेट में ले लेती थी। अंग्रेज़ इस डाकगाड़ी को मज़ाक में बॉम्बे डैक (Bombay Dak) कहने लगे - और यहीं से बॉम्बे डक नाम का जन्म हुआ। यानी यह मछली न सिर्फ़ स्वाद और गंध के कारण जानी जाती है, बल्कि इसके नाम के पीछे भी एक सांस्कृतिक कथा छिपी है।

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पारसी संस्कृति और बॉम्बे डक का ऐतिहासिक जुड़ाव
19वीं सदी का बॉम्बे (वर्तमान मुंबई) केवल व्यापार और जहाज़रानी का केंद्र नहीं था, बल्कि यह विविध संस्कृतियों के संगम का शहर भी बन चुका था। इसी दौर में जोरोस्ट्रियन (Zoroastrian) यानी पारसी समुदाय की उपस्थिति शहर में तेजी से बढ़ी। ये लोग मूल रूप से ईरान से आए थे, लेकिन भारत में आकर इन्होंने न केवल व्यापारिक दुनिया में एक मज़बूत पहचान बनाई, बल्कि समाज सुधार, शिक्षा और सांस्कृतिक संरचना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसी खानपान की बात करें तो यह भारतीय तटीय क्षेत्रों - विशेष रूप से गुजरात, गोवा और कोंकण - की स्वाद परंपराओं से काफी प्रभावित रहा है। पारसी भोजन में मछली एक विशेष स्थान रखती है, और बॉम्बे डक जैसे स्थानीय समुद्री व्यंजन पारसी व्यंजनों का हिस्सा बनते चले गए। इसे पारंपरिक तरीकों से पकाकर पारसी कैफे में परोसा जाता, और यह धीरे-धीरे आम लोगों के बीच भी लोकप्रिय होने लगी। बॉम्बे डक का पारसी संस्कृति से रिश्ता केवल थाली तक ही सीमित नहीं है। यह रिश्ते भावनात्मक और सांस्कृतिक भी हैं। पारसी संगीतकार मीना कावा द्वारा 1975 में इस मछली पर रचा गया गीत इस बात का प्रमाण है कि किस तरह यह व्यंजन एक समुदाय की स्मृति और अभिव्यक्ति का हिस्सा बन गया। पारसी कहानियों, नामों और रसोई की खुशबू में बॉम्बे डक की उपस्थिति एक प्रतीकात्मक जुड़ाव बन गई है - वह जुड़ाव जो स्वाद से शुरू होकर पहचान तक पहुँचता है।

बॉम्बे डक को सुखाने की पारंपरिक विधियाँ और इसके व्यंजन रूप
बॉम्बे डक का स्वाद जितना अनोखा है, उसकी तैयारी की प्रक्रिया भी उतनी ही विशेष है। यह मछली ताज़ा अवस्था में जल्दी खराब हो जाती है, इसलिए सदियों से मछुआरे इसे संरक्षित करने के लिए एक विशिष्ट प्रक्रिया अपनाते हैं। इस प्रक्रिया की शुरुआत होती है - मछली को अच्छी तरह साफ़ करने और उस पर नमक लगाकर समुद्री हवाओं में सुखाने से। इसके लिए विशेष बांस की बनी रैक का इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें वलैंडिस कहा जाता है। ये रैक समुद्र किनारे ऊँचाई पर लगाए जाते हैं ताकि मछलियाँ हवा में लटकती रहें और उनमें से पानी पूरी तरह निकल जाए। इस प्रक्रिया में 2 से 3 दिन लग सकते हैं, लेकिन परिणामस्वरूप तैयार होती है एक तीखी गंध वाली सूखी मछली - जो बॉम्बे डक की असली पहचान है। खाने के तरीके भी विविध हैं। सूखी बॉम्बे डक को तलकर दाल-चावल के साथ खाया जाता है - यह महाराष्ट्र और गुजरात के कुछ समुदायों का प्रिय संयोजन है। वहीं कुछ लोग इसे इमली और प्याज़ के तीखे मसालों में पकाकर भाजी की तरह खाते हैं। इसे करी में भी डाला जाता है या सब्ज़ियों के साथ मिलाकर परोसा जाता है। इन पारंपरिक तरीकों के पीछे स्वाद से ज़्यादा यादें जुड़ी होती हैं - मछुआरों की मेहनत, समुद्री नम हवाओं की गंध, और पीढ़ियों से चलती आ रही पाक कला की विरासत।

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यूरोपीय आयात प्रतिबंध और ‘बॉम्बे डक बचाओ’ अभियान
1996 एक ऐसा साल था जब बॉम्बे डक का अंतरराष्ट्रीय सफ़र अचानक रुक गया। यूरोपीय आयोग ने साल्मोनेला (Salmonella) बैक्टीरिया के खतरे को देखते हुए भारत से आने वाले समुद्री खाद्य पदार्थों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। इस निर्णय की चपेट में बॉम्बे डक भी आ गई, क्योंकि इसका उत्पादन पारंपरिक तरीकों से होता था और यह किसी आधुनिक डिब्बाबंदी कारखाने में तैयार नहीं होती थी। यह खबर ब्रिटेन, कनाडा और अन्य देशों में बसे उन प्रवासी भारतीयों के लिए सदमे जैसी थी, जो अपने देश के स्वाद को विदेश में जीते थे। लेकिन यहीं से जन्म हुआ - “बॉम्बे डक बचाओ” अभियान का। भारतीय उच्चायोग ने यूरोपीय आयोग से संपर्क किया, यह समझाया कि बॉम्बे डक पारंपरिक और सुरक्षित रूप से तैयार की जाती है, और यह भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा है। बातचीत के बाद यूरोपीय आयोग ने नियमों में बदलाव किया। अब बॉम्बे डक को पारंपरिक तरीके से सुखाकर, यूरोपीय आयोग द्वारा अनुमोदित पैकिंग स्टेशनों के माध्यम से निर्यात किया जाता है। इस तरह एक मछली ने न केवल स्वाद का सवाल उठाया, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और व्यापारिक नीति को भी प्रभावित किया - और विजेता बनकर उभरी।

आज की दुनिया में बॉम्बे डक की लोकप्रियता और प्रवासी समाजों में इसकी जगह
आज बॉम्बे डक केवल मुंबई की गलियों, पारसी रसोईघरों या तटीय भारत तक सीमित नहीं है। यह मछली एक वैश्विक व्यंजन बन चुकी है - खासकर उन देशों में जहाँ भारतीय, श्रीलंकाई और बांग्लादेशी समुदाय बड़ी संख्या में रहते हैं। ब्रिटेन के बर्मिंघम, कनाडा के टोरंटो (Toronto) और मॉन्ट्रियल (Montreal) जैसे शहरों में इसे “बुमला” नाम से जाना जाता है और स्थानीय भारतीय दुकानों में आसानी से उपलब्ध है। प्रवासी समाजों के लिए बॉम्बे डक केवल एक व्यंजन नहीं, बल्कि बचपन की यादों, पारिवारिक खाने की महक और अपनी मिट्टी की खुशबू का प्रतीक है। यह स्वाद उनकी जड़ों से जुड़ा है और यह उन्हें नए देश में भी अपनेपन का एहसास देता है। इसे त्योहारों में पकाया जाता है, दोस्तों के साथ साझा किया जाता है, और अक्सर इसे घर भेजे जाने वाले पार्सलों में सबसे ऊपर रखा जाता है। इन सांस्कृतिक संदर्भों ने बॉम्बे डक को एक “लोकल फूड” से “ग्लोबल आइडेंटिटी” (Global Identity) में बदल दिया है। यह मछली अब केवल समुद्र किनारे की हवा में सूखने वाला उत्पाद नहीं है - यह एक ज़िंदा स्मृति बन गई है, जो समय, जगह और सीमाओं से परे जाकर जुड़ाव रचती है।

संदर्भ- 
https://bbc.in/3iAyWJP 
https://bit.ly/3OU1pq0 
https://tinyurl.com/dx5t878m 



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