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लखनऊवासियों, हमारे शहर को सिर्फ नवाबी तहज़ीब, चिकनकारी और मुंशी प्रेमचंद की साहित्यिक महक ही ख़ास नहीं बनाती, बल्कि यहाँ की मिट्टी में रची-बसी लोक-संस्कृति और लोक-नृत्य परंपराएँ भी उतनी ही जीवंत और गहरी हैं। गोमती किनारे बसे इस शहर में संगीत की स्वर-लहरियाँ, कथक के मनभावन घुमाव और सावन की फुहारों के बीच गूँजने वाली कजरी की धुनें आज भी दिल को मोह लेती हैं। जहाँ दरबारों में कथक अपनी शालीनता और मुद्रा का सौंदर्य बिखेरता रहा, वहीं गाँव-देहात की चौपालों, लोक-त्योहारों और स्त्रियों के सामूहिक गीतों में कजरी, दादरा और रास-लीला भाव, प्रेम और विरह की सजीव अभिव्यक्ति बनकर आज भी धड़कती हैं। लेकिन दुख की बात है कि समय के साथ आधुनिकीकरण, मंचीय भव्यता और तेज़ जीवनशैली के बीच कई लोक नृत्य धीरे-धीरे पहचान खोते जा रहे हैं। इस लेख का उद्देश्य इन्हीं लोक नृत्य परंपराओं को समझना, उनका महत्व जानना और उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजकर रखना है - क्योंकि लोक-नृत्य सिर्फ नृत्य नहीं होते, वे हमारी लोक-आत्मा होते हैं।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले उत्तर प्रदेश के प्रमुख लोक नृत्यों जैसे रास-लीला, चरकुला, करमा और दादरा के सांस्कृतिक महत्व को समझेंगे। इसके बाद हम कजरी नृत्य की उत्पत्ति, राजकुमारी कजली की कथा, इसकी प्रस्तुति शैली और इससे जुड़ी गहन भावनाओं को जानेंगे। फिर हम देखेंगे कि कजरी और कथक नृत्य के बीच क्या पारंपरिक संबंध है और किस प्रकार दोनों में भाव, ताल और अभिव्यक्ति की समानता दिखाई देती है। उसके बाद हम मिर्ज़ापुर, बनारस और प्रयागराज जैसे क्षेत्रों से जुड़े उन महान कलाकारों का उल्लेख करेंगे, जिन्होंने कजरी को राष्ट्रीय पहचान दिलाई। अंत में, हम भारत के उन कम-प्रसिद्ध और विलुप्तप्राय लोक नृत्यों के बारे में चर्चा करेंगे, जिन्हें आज संरक्षण और जागरूकता की सबसे अधिक आवश्यकता है।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख लोक नृत्य और उनका सांस्कृतिक महत्व
उत्तर प्रदेश में लोक नृत्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन, आस्था, ऋतु, प्रेम और उत्सव की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। रास-लीला में श्रीकृष्ण और राधा के दिव्य प्रेम को मधुर संगीत, अभिनय और लयबद्ध नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है, जिससे भक्ति और सौंदर्य एक साथ झलकते हैं। ब्रज क्षेत्र का चरकुला नृत्य राधा के जन्मोत्सव का उल्लासपूर्ण उत्सव है, जहाँ महिलाएँ सिर पर दीपों से सजे हुए लकड़ी के विशाल पात्र रखकर नृत्य करती हैं - यह दृश्य भक्ति के साथ-साथ स्त्री शक्ति की सुंदरता और संतुलन का प्रतीक है। बुंदेलखंड और आदिवासी इलाकों में करमा नृत्य प्रकृति, फसल और सामूहिकता की भावना का उत्सव है, जिसमें लोग ताल की थाप पर प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। वहीं दादरा नृत्य प्रेम, विवाह और जीवन की सहज खुशियों को गीत और नृत्य की बोल्ड, जीवंत और मधुर शैली में प्रस्तुत करता है। ये सभी नृत्य मिलकर उत्तर प्रदेश के लोक-जीवन की भावनाओं, विविधताओं और सांस्कृतिक आत्मा को सहेजते हैं।

कजरी नृत्य: उत्पत्ति, कथा और प्रदर्शन शैली
कजरी नृत्य का उद्भव मिर्ज़ापुर की मिट्टी में हुआ, लेकिन इसकी मूल भावना मनुष्य के विरह, प्रेम और प्रतीक्षा की सार्वभौमिक अनुभूति से जुड़ी है। कथा के अनुसार राजकुमारी कजली अपने पति के वियोग में सावन के हर बादल में उसका संदेश खोजती रहीं, उसकी प्रतीक्षा करती रहीं, लेकिन प्रेम अधूरा ही रहा। यही विरह, पीड़ा और आशा धीरे-धीरे गीतों और फिर नृत्य में ढल गई, जो आज कजरी के रूप में गाई और नाची जाती है। सावन की उमस भरी हवा, हरी डालों पर झूले, स्त्रियों का समूह और कोमल लय-यही कजरी का मंच है। नर्तकियाँ चनिया-चोली और सुनहरी कढ़ाई वाले दुपट्टे धारण करती हैं, घुंघरू बाँधती हैं, और आँखों के संकेतों, हाथों की मुद्राओं और धीमे, भावपूर्ण कदमों से मन की गहराइयों को व्यक्त करती हैं। कजरी केवल नृत्य नहीं-यह स्मृति, प्रेम और मौसम का संगीत है।
कजरी नृत्य और कथक नृत्य का पारंपरिक संबंध
कजरी और कथक दोनों ही नृत्य भाव और अभिव्यक्ति के आधार पर निर्मित हैं। कथक जहाँ शाही दरबारों में विकसित हुआ और मंचीय प्रस्तुति, ताल, घूमर और पैर-चालन की तकनीक पर केंद्रित है, वहीं कजरी गाँवों और आंगनों में यथार्थ भावनाओं और जीवन अनुभवों की अभिव्यक्ति से उत्पन्न होता है। दोनों में घुंघरुओं की लय, नयनों से भाव-विस्तार, हाथों की सूक्ष्म मुद्राएँ और संगीत के साथ गहरा तालमेल देखने को मिलता है। अंतर केवल इतना है कि कथक सौंदर्य को संरचना देता है, जबकि कजरी सौंदर्य को सरल और लोकसुलभ भाषा में व्यक्त करता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है - कथक मन को प्रशिक्षित करता है, और कजरी मन को महसूस कराती है।

कजरी नृत्य के प्रमुख क्षेत्र और प्रसिद्ध कलाकार
कजरी की सबसे गहरी जड़ें मिर्ज़ापुर, बनारस (काशी) और प्रयागराज की सांस्कृतिक परंपरा में मिलती हैं। इन क्षेत्रों में सावन आते ही पूरे वातावरण में झूला-गीत, मृदंग, हारमोनियम और घुंघरू की ध्वनि गूंजने लगती है। कजरी को स्थानीय संस्कृति से राष्ट्रीय और वैश्विक मंचों तक पहुँचाने का श्रेय कई महान कलाकारों को जाता है। पंडित छन्नूलाल मिश्रा ने कजरी को शास्त्रीय संगीत के स्वरूप में प्रतिष्ठा दिलाई, जबकि सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी ने इसे लोक गायकी की भावप्रधान विरासत के रूप में आगे बढ़ाया। राजन-साजन मिश्रा जैसे कलाकारों ने कजरी को विश्व स्तर पर सुना और सराहा जाने वाला रूप दिया। ये कलाकार सिर्फ गायक नहीं-वे परंपरा के वाहक और लोक-संस्कृति के संरक्षक हैं।

भारत के कम प्रसिद्ध और लुप्तप्राय लोक नृत्य
भारत में जितनी भाषाएँ और प्रदेश, उतने ही विविध नृत्य-रूप हैं। पर दुर्भाग्य से, आधुनिक मनोरंजन और जीवनशैली के बदलाव के चलते कई लोक नृत्य लुप्त होने की कगार पर हैं। छाऊ नृत्य ओडिशा और झारखंड का युद्ध-नृत्य है, जिसमें मुखौटे और वीरता का प्रदर्शन होता है। गोटीपुआ में किशोर बालक स्त्रियों का श्रृंगार कर भगवान कृष्ण की लीलाओं का नृत्य प्रस्तुत करते हैं। गोवा का घोड़े मोदिनी नृत्य, मध्य प्रदेश का गौर मारिया नृत्य, और छत्तीसगढ़ के फाग व सैला नृत्य फसल, शिकार और सामुदायिक उत्सवों की परंपरा को दर्शाते हैं। डोलू कुनिथा, थिडाम्बु नृत्यम, यक्षगान और उत्तराखंड का छोलिया नृत्य आध्यात्मिकता, वीरता और लोक-नाट्य अभिव्यक्ति के अद्भुत स्वरूप हैं। इन नृत्यों को बचाना केवल सांस्कृतिक कर्तव्य नहीं - यह हमारी पहचान, स्मृति और इतिहास को बचाने का प्रयास है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/ucj2v26u
https://tinyurl.com/ycy9pdyt
https://tinyurl.com/4css5397
https://tinyurl.com/s6jzptj9
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