ओडिशा के रामपुर की कुटिया कोंध जनजाति और उनकी लुप्त होती पहचान

सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
12-07-2025 09:24 AM
ओडिशा के रामपुर की कुटिया कोंध जनजाति और उनकी लुप्त होती पहचान

ओडिशा के कालाहांडी जिले में स्थित मदनपुर रामपुर और थुआमुल रामपुर जैसे नाम सुनते ही अधिकतर लोग इन्हें केवल आम गाँव समझ बैठते हैं, लेकिन वास्तव में यह भूभाग एक ऐसे समुदाय का निवास है जो आज भी प्रकृति के साथ गहरे संतुलन में जीवन जीता है — कुटिया कोंध जनजाति। हमारे उत्तर भारत के प्रसिद्ध रामपुर शहर की तरह, इस क्षेत्र का नाम भी ‘रामपुर’ है, किंतु यहाँ की सांस्कृतिक बनावट, बोली, जीवनशैली और पर्यावरणीय दृष्टिकोण पूरी तरह अलग और विशिष्ट हैं। यहाँ के लोग आधुनिकता की तेज़ दौड़ से दूर, जंगलों की गोद में, परंपरा और प्रकृति के सह-अस्तित्व को जीवित रखे हुए हैं। जबकि उनके चारों ओर विकास की आँधी चल रही है, ये लोग अब भी अपने मूल्यों और प्राकृतिक विरासत की रक्षा में अडिग हैं — और यही उन्हें अद्वितीय बनाता है। इनकी साँझ ढलती है जंगलों की छाया में और सुबहें शुरू होती हैं पक्षियों की चहचहाहट के साथ। जीवन की इस सरलता में एक ऐसा गूढ़ ज्ञान छिपा है जो हमारे तथाकथित 'सभ्य' समाज से कहीं अधिक संतुलित है। किंतु अब समय की रफ्तार इन्हें भी छूने लगी है — सड़कें पहुँचने लगी हैं, भाषाएँ खोने लगी हैं और पहचान धीरे-धीरे धुंधली हो रही है। ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि हम न सिर्फ इन्हें जानें, बल्कि इनके अस्तित्व की रक्षा को एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी समझें। यह लेख इसी उद्देश्य की एक विनम्र कोशिश है। भारत की सांस्कृतिक विविधता में जनजातीय समुदायों की भूमिका बेहद अहम रही है। ओडिशा के कालाहांडी जिले के रामपुर क्षेत्र में बसने वाली कुटिया कोंध जनजाति इसका एक जीवंत उदाहरण है। इस लेख में हम जानेंगे कि यह जनजाति कहाँ और कैसे निवास करती है, इनकी पारंपरिक जीवनशैली और सामाजिक संरचना कैसी है, और ये स्थानांतरित खेती जैसे पारंपरिक साधनों से आजीविका कैसे चलाते हैं। हम यह भी देखेंगे कि आधुनिक विकास की चुनौतियाँ इनकी जीवनशैली को कैसे प्रभावित कर रही हैं। अंत में, भाषाई विलुप्तीकरण के संकट को समझेंगे और सोचेंगे कि इसके समाधान के लिए राष्ट्र को कैसी चेतना विकसित करनी चाहिए।

इस लेख में हम कुटिया कोंध जनजाति की संस्कृति और चुनौतियों को पाँच भागों में समझेंगे। शुरुआत होगी उनके रहने के क्षेत्र और सामाजिक परिवेश से, फिर उनकी पारंपरिक जीवनशैली और समुदाय की संरचना पर नज़र डालेंगे। तीसरे हिस्से में जानेंगे उनके खास कृषि अभ्यास ‘पोडु चास’ के बारे में, जो उनके जीवन का आधार है। इसके बाद देखेंगे कि कैसे विकास योजनाएं और सरकारी हस्तक्षेप उनके जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। अंत में बात करेंगे उस संकट की, जिसमें उनकी भाषा और सांस्कृतिक पहचान धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।

ओडिशा के रामपुर क्षेत्र में कुटिया कोंध जनजाति की भौगोलिक और सामाजिक उपस्थिति

कुटिया कोंध जनजाति ओडिशा के कालाहांडी जिले के भवानीपटना उप-मंडल के मदनपुर रामपुर और थुआमुल रामपुर क्षेत्रों में पाई जाती है। यह क्षेत्र पहाड़ी, वनाच्छादित और अपेक्षाकृत दुर्गम है, जहाँ इस जनजाति का जीवन प्रकृति के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। कुटिया कोंध समुदाय के लोग जंगलों की रक्षा को अपना कर्तव्य मानते हैं और वृक्षों की अवैध कटाई का विरोध करते हैं। ये लोग अपने सीमित संसाधनों में भी पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। समुदाय के सदस्य पारंपरिक रूप से जंगलों और वन्यजीवों के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं, और बारी-बारी से उनकी सुरक्षा में लगे रहते हैं। लांजीगढ़ जैसे क्षेत्रों में तो कोंध समुदाय की जनसंख्या 90 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि आधुनिकता के प्रभाव ने धीरे-धीरे इनके पारंपरिक ढांचे को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। बाहरी दुनिया से इनका संपर्क अत्यंत सीमित होता है, जिससे यह समुदाय एक अलग सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने में सफल रहा है। किंतु अब यह पहचान संकट में है, और इनके अस्तित्व को बचाने के लिए ठोस प्रयास आवश्यक हैं।

कुटिया कोंध जनजाति की पारंपरिक जीवनशैली और सामाजिक संरचना

कुटिया कोंध समुदाय की जीवनशैली पूरी तरह प्रकृति और परंपरा पर आधारित है। इनकी बस्तियाँ आमतौर पर आयताकार भूखंडों पर स्थित होती हैं, जहाँ घर एक-दूसरे के आमने-सामने दो पंक्तियों में बनाए जाते हैं। ये घर मिट्टी, लकड़ी और पत्तों से बने होते हैं और जलवायु के अनुकूल होते हैं। इनकी सामाजिक संरचना सुसंगठित, सहयोगपूर्ण और सामूहिक होती है, जहाँ हर व्यक्ति की भूमिका तय होती है। परिवार सामान्यतः पितृसत्तात्मक होते हैं, लेकिन महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। महिलाएं जंगल से गैर-लकड़ी उत्पादों के संग्रहण, प्रसंस्करण और विपणन में सक्रिय रहती हैं। इसके अलावा, वे कृषि, बच्चों की देखभाल और पारंपरिक ज्ञान के संचरण में भी विशेष भूमिका निभाती हैं। किशोर युवतियों के लिए 'युवा शयनगृह' की प्रथा भी रही है, जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। ये शयनगृह सामाजिक अनुशासन और परंपरा के प्रतीक माने जाते थे। वर्तमान में सरकारी हस्तक्षेप के चलते प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना से शिक्षा की लौ धीमी गति से जल रही है, जो सामाजिक बदलाव की ओर संकेत करती है।

स्थानांतरित खेती (पोडु चास) और जीविकोपार्जन के पारंपरिक साधन

कुटिया कोंध जनजाति की आजीविका का प्रमुख आधार है — स्थानांतरित खेती, जिसे स्थानीय भाषा में "डोंगर चास" या "पोडु चास" कहा जाता है। इस पद्धति में जंगल की एक भूमि को साफ कर कुछ वर्षों तक वहाँ खेती की जाती है, फिर उसे छोड़कर भूमि को पुनर्जीवित होने दिया जाता है। यह एक प्रकार की जैविक कृषि पद्धति है जिसमें रासायनिक उर्वरकों का उपयोग नहीं होता। फसलें जैसे रागी, कोसल, कांगू, अरहर आदि यहाँ के प्रमुख उत्पादन हैं। इनके साथ-साथ पशुपालन और जंगल से प्राप्त उपज जैसे शहद, महुआ, औषधीय पौधे भी इनके जीवन यापन के साधन हैं। इन उत्पादों को स्थानीय बाजारों में बेचकर वे आवश्यक वस्तुएं प्राप्त करते हैं। इनका जंगलों से संबंध केवल दोहन का नहीं, बल्कि संरक्षण का भी है। वे जंगल को माँ की तरह मानते हैं और ईंधन के लिए पेड़ों की कटाई नहीं करते। इस तरह इनकी आजीविका प्रणाली प्रकृति के संरक्षण के साथ-साथ सांस्कृतिक स्थायित्व को भी दर्शाती है। हालांकि बदलते पर्यावरणीय कानूनों और वनों की सीमा निर्धारण के चलते उनकी खेती प्रणाली को अब कानूनी एवं प्रशासनिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यदि इन्हें स्थानांतरित खेती के आधुनिक विकल्पों की तकनीकी जानकारी और सहयोग मिले, तो ये समुदाय अपनी परंपरा को सुरक्षित रखते हुए आय बढ़ा सकते हैं। इसके साथ ही स्थानीय उत्पादों के लिए लघु उद्योगों का निर्माण इनकी आर्थिक स्वतंत्रता को भी मजबूत कर सकता है।

आधुनिक विकास की चुनौतियाँ और सरकारी हस्तक्षेप की वास्तविकता

हालांकि सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसी सुविधाओं के लिए योजनाएं बनाई हैं, फिर भी कुटिया कोंध समुदाय इन बुनियादी सेवाओं से आज भी काफी हद तक वंचित है। पहाड़ी और दूरदराज़ इलाकों में स्थित होने के कारण यहाँ तक सरकारी योजनाओं की पहुँच सीमित रहती है। स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, प्राथमिक विद्यालयों की अल्प संख्या, कुपोषण और बेरोज़गारी जैसे मुद्दे इस समुदाय की स्थिति को और गंभीर बनाते हैं। सरकारी प्रयासों के बावजूद वास्तविक बदलाव धीमी गति से हो रहा है। भूमि स्वामित्व की अस्पष्टता, संस्थागत ऋण की अनुपलब्धता और वन उपज तक सीमित पहुँच, इनके सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधा बनते हैं। बच्चों की शिक्षा का स्तर न्यूनतम है और किशोरों में स्कूल छोड़ने की दर अधिक है। महिलाओं और बच्चों की स्थिति विशेष रूप से चिंता का विषय बनी हुई है। इन सब कारणों से यह स्पष्ट होता है कि केवल योजनाएं बनाना पर्याप्त नहीं है, उन्हें जनसंवेदनशील तरीके से लागू करना ही वास्तविक विकास का मार्ग है। इसके लिए समुदाय के भीतर नेतृत्व विकसित करना आवश्यक है, जिससे वे स्वयं अपनी आवाज़ नीति-निर्माताओं तक पहुँचा सकें। साथ ही, स्वदेशी समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए पारदर्शी और समावेशी विकास मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। केवल बुनियादी ढांचे नहीं, बल्कि सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टिकोण से जुड़ी विकास योजनाएं ही दीर्घकालिक बदलाव ला सकती हैं।

भाषाई विलुप्तीकरण: एक सांस्कृतिक संकट और राष्ट्रीय चेतना की आवश्यकता

कुटिया कोंध जनजाति की अपनी भाषा और बोलियाँ हैं जो धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं। भारत में यह कहा जाता है कि हर 11 किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है, लेकिन यही विविधता अब संकट में है। 1971 के बाद भारत में 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को आधिकारिक मान्यता नहीं दी गई, जिससे अनेक भाषाएं धीरे-धीरे गुमनामी में चली गईं। यूनेस्को (UNESCO) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 42 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं, जिनमें से कई भाषाएं आदिवासी समुदायों की हैं। जब कोई भाषा खत्म होती है, तो उसके साथ उस समुदाय का पारंपरिक ज्ञान, जीवनदृष्टि और सांस्कृतिक विरासत भी समाप्त हो जाती है। यह केवल भाषायी नहीं, बल्कि बौद्धिक और सांस्कृतिक नुकसान होता है। भाषा के माध्यम से समुदाय अपनी आवश्यकताओं को सरकार तक पहुँचा सकता है, किंतु जब प्रशासन और नागरिकों के बीच भाषा की दीवार खड़ी हो जाती है, तो विकास असंभव हो जाता है। ऐसे में यह अत्यंत आवश्यक है कि भाषाई विविधता को केवल संरक्षित ही नहीं, बल्कि उसका संवर्धन भी किया जाए। यदि हम इस संकट को अभी नहीं समझेंगे, तो भविष्य में अनेक अद्वितीय संस्कृतियाँ केवल इतिहास बनकर रह जाएंगी।

संदर्भ-
https://tinyurl.com/38fb3vuu 

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