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बर्फीली चोटियों से लेकर रेतीले पठारों तक, उत्तर भारत के कई दुर्गम क्षेत्रों—जैसे लद्दाख की घाटियाँ, हिमाचल की ऊँचाईयाँ और उत्तराखंड के जंगली रास्ते—आज भी एक ऐसे अनमोल साधन पर निर्भर हैं, जो प्राचीन काल से मानव सभ्यता का अभिन्न अंग रहा है: भारवहन करने वाले जानवर। ये जानवर न केवल परिवहन का माध्यम रहे हैं, बल्कि उन्होंने सभ्यता के विकास में मौन किंतु महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कारगिल युद्ध जैसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में, जब मशीनें विफल हो गईं और हेलिकॉप्टर भी नहीं उड़ सके, तब यही जानवर भारतीय सेना के लिए अंतिम उम्मीद बनकर उभरे। खच्चर, याक, ऊँट, लामा और कई अन्य प्रजातियाँ सीमाओं पर रसद पहुँचाने से लेकर आदिवासी जीवन में आवश्यक वस्तुएँ ढोने तक की जिम्मेदारी आज भी निभा रही हैं। इनकी उपयोगिता केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि वर्तमान की अनिवार्यता है। ट्रेकिंग अभियानों, पर्यटन उद्योग, पर्वतीय आपदा प्रबंधन और सीमावर्ती चौकियों में आज भी इनका उपयोग जारी है। इतना ही नहीं, इन जानवरों के सहारे कई समुदायों की आजीविका जुड़ी है, जिनका पारंपरिक ज्ञान आधुनिक जरूरतों से मेल खाता है। यह स्पष्ट है कि विज्ञान और तकनीक के इस युग में भी, ये चार-पैर वाले साथी हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं।
इस लेख में हम भारवहन करने वाले जानवरों की पारंपरिक भूमिका और प्रकारों जैसे खच्चर, याक, ऊँट और लामा पर चर्चा करेंगे। हम देखेंगे कि कैसे ये जानवर आज भी विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग किए जाते हैं। इनके भार वहन की क्षमता और शारीरिक विशेषताओं को समझते हुए, हम भारतीय सेना में खच्चरों की भूमिका और पेडोंगी जैसे खच्चर की ऐतिहासिक सेवाओं पर भी नज़र डालेंगे। अंत में, खच्चरों की उत्पत्ति, गुण और उनकी उपयोगिता को भी विस्तार से जानेंगे।
भारवहन करने वाले जानवरों की पारंपरिक भूमिका और प्रकार
भारवहन करने वाले जानवरों को सामान्यतः "पैक जानवर" कहा जाता है। ये वे जीव होते हैं जिनका उपयोग इंसान अपने सामान या खाद्य सामग्री को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए करता है। ये जानवर मुख्यतः अपनी पीठ पर वजन उठाते हैं, जो उन्हें मसौदा जानवरों से अलग करता है। मसौदा जानवर जैसे बैल या भैंस गाड़ियाँ या हल खींचते हैं, जबकि पैक जानवर सामान को सीधा अपनी पीठ पर उठाते हैं। इतिहास में, ऊँटों ने रेगिस्तानी व्यापार मार्गों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। याक तिब्बत और लद्दाख जैसे ठंडे क्षेत्रों में काम आते हैं। लामाओं का उपयोग दक्षिण अमेरिकी पहाड़ियों में होता है जबकि खच्चर और गधे भारत, नेपाल और अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्रों में प्रचलित हैं। सोलहवीं शताब्दी तक यूरोप में पैकहॉर्स (packhorse) का उपयोग आम था, जिसे बाद में बैलगाड़ियों और गाड़ियों से प्रतिस्थापित कर दिया गया।
इन जानवरों ने व्यापार, सैन्य अभियानों और जनजातीय जीवन में इतनी गहराई से भाग लिया कि उनके बिना कई सभ्यताएँ आगे नहीं बढ़ सकती थीं। यह साझेदारी आज भी जीवित है—बस रूप बदल गया है।
इन जानवरों का उपयोग मानव इतिहास के हर युग में मौजूद रहा है—प्राचीन व्यापारिक कारवाँ से लेकर ग्रामीण मेलों और धार्मिक यात्राओं तक। कुछ समुदायों में ये जानवर सम्मान और श्रद्धा के पात्र माने जाते हैं, जैसे कि राजस्थान में ऊँट और लद्दाख में याक। इनके साथ एक सामाजिक-सांस्कृतिक जुड़ाव भी देखा जाता है, जो केवल उपयोग तक सीमित नहीं है। आज के यांत्रिक युग में भी जब संसाधन और तकनीक प्रबल हैं, इन जीवों की उपयोगिता एक भरोसेमंद, पर्यावरण–अनुकूल विकल्प के रूप में कायम है।
भौगोलिक क्षेत्रों में पैक जानवरों का समकालीन उपयोग
यद्यपि आधुनिकता और मोटर वाहनों ने कई स्थानों पर इन जानवरों के प्रयोग को घटा दिया है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में आज भी ये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। मोरक्को के हाई एटलस पर्वतों में पर्यटक ट्रैकिंग अभियानों के दौरान पैक जानवरों की सहायता से बैकपैकिंग (Backpacking) आसान होती है। इन जानवरों के बिना ऊँचाई वाले क्षेत्रों में यात्रा लगभग असंभव हो जाती है। अमेरिका के राष्ट्रीय उद्यानों में भी, सीमित क्षेत्रों में, पैक जानवरों का उपयोग एक वैध और पर्यावरण-सम्मत उपाय माना जाता है। भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में जहाँ न सड़क पहुँचती है, न वाहन, वहाँ याक, खच्चर और घोड़े अब भी ग्रामीण जीवन की धड़कन हैं। इसके अतिरिक्त, भूटान, नेपाल और अफ्रीकी हाइलैंड्स (African highlands) जैसे स्थानों पर स्कूल, अस्पताल और खाद्य सामग्री पहुँचाने में भी इनका प्रयोग होता है। आपदा की स्थिति में जब सड़कें ध्वस्त हो जाती हैं, तब यही जानवर राहत सामग्री ले जाने में सबसे उपयोगी सिद्ध होते हैं। भारत के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में, जैसे झारखंड और छत्तीसगढ़, अब भी बैल और खच्चर वन उत्पादों को बाजार तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। यह स्पष्ट करता है कि ये जानवर केवल अतीत का हिस्सा नहीं, बल्कि भविष्य की स्थिरता का आधार भी हैं।
पैक जानवरों की भार वहन क्षमता और शारीरिक विशेषताएँ
प्रत्येक पैक जानवर की भार उठाने की सीमा, उसके शरीर की बनावट, ऊँचाई, वातावरण और प्रजाति पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, एक ऊँट लगभग 300 किलोग्राम तक का भार उठा सकता है और रेगिस्तानी यात्रा के लिए उपयुक्त होता है। याक, जो ऊँचाई पर रहते हैं, सिचुआन में 75 किलो वजन को 6 घंटे तक 30 किमी दूर ले जा सकते हैं, जबकि किंघई में 4100 मीटर की ऊँचाई पर 300 किलो तक का भार उठाते हैं। लामा अपने शरीर का लगभग एक चौथाई वजन उठा सकता है, जो औसतन 50 किलो तक होता है। बारहसिंगा जैसे जानवर पहाड़ी क्षेत्रों में 40 किलो तक वजन उठा सकते हैं। खच्चरों की भार क्षमता विवादित है—अमेरिकी सेना के अनुसार वे अपने शरीर के वजन का लगभग 20% (लगभग 91 किलो) प्रतिदिन उठा सकते हैं, जबकि 1867 के एक रिकॉर्ड में 360 किलो का भार दर्ज किया गया है। भारत में पशु क्रूरता रोकथाम अधिनियम 1965 के अनुसार, खच्चरों को 200 किलोग्राम और टट्टुओं को 70 किलोग्राम से अधिक वजन ढोने की अनुमति नहीं है। यह संतुलन पशु के स्वास्थ्य और कार्यक्षमता के बीच बनाए रखने के लिए जरूरी है।
खच्चरों की उत्पत्ति, विशेषताएँ और उपयोगिता
खच्चर, नर गधा (जैक (jack) और मादा घोड़ी (मैयर (mare) की संतान होते हैं। ये संकर जीव होते हैं और स्वयं से संतान उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि घोड़े और गधे में गुणसूत्रों की संख्या अलग होती है। इस कारण खच्चर बाँझ होते हैं, लेकिन इनकी ताकत और बुद्धिमानी इन्हें अत्यंत उपयोगी बनाती है। खच्चरों में गधों की कठोरता और घोड़ों की गति का अद्भुत संयोजन होता है। वे उबड़-खाबड़ रास्तों में आसानी से चलते हैं, कम भोजन में काम कर लेते हैं, और अपेक्षाकृत अधिक धैर्यवान तथा मजबूत होते हैं। खच्चर हल्के, मध्यम और भारी—तीनों वजन वर्गों में होते हैं, जो उनकी माँ की नस्ल पर निर्भर करता है। इनकी उपयोगिता बहुआयामी है—ये सवारी के लिए भी उपयुक्त होते हैं, पैक ले जा सकते हैं, और गाड़ी खींचने में भी सक्षम हैं। कम हठी, अधिक बुद्धिमान और रखरखाव में सस्ते होने के कारण इन्हें सीमावर्ती क्षेत्रों में अत्यंत विश्वसनीय साथी माना जाता है। भारतीय सेना में खच्चर केवल पशु नहीं, बल्कि युद्ध साथी हैं। कारगिल युद्ध से पहले इनकी पशु परिवहन इकाइयों को बंद करने की योजना थी, लेकिन युद्ध ने इनके महत्व को फिर से साबित कर दिया। जब पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कारगिल और द्रास की ऊँचाईयों पर रास्ते रोक दिए और मौसम खराब होने के कारण हेलिकॉप्टर भी विफल हो गए, तब सेना की रसद प्रणाली को केवल खच्चरों के माध्यम से ही सक्रिय रखा जा सका।
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