
ख़ुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग
ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध सूफ़ी कवि हजरत अमीर ख़ुसरो के द्वारा लिखी गई हैं। यह ब्रज भाषा में रचित एक दोहा है, जिसमें प्रेम और भक्ति की गहरी भावना प्रकट होती है। इन पंक्तियों के ज़रिए ख़ुसरो कहते हैं कि "मैं प्रेम का खेल अपने प्रियतम (ईश्वर) के साथ खेल रहा हूँ। अगर मैं जीत गया, तो प्रियतम मेरे हो जाएंगे; और अगर हार गया, तो मैं प्रियतम का हो जाऊंगा।" आज भी जौनपुर की गलियों में जब कोई सूफ़ी संगीत की मधुर धुन सुनता है, तो अमीर ख़ुसरो की इसी तरह की जादुई लेखनी याद आती है, जिसने प्रेम, भक्ति और ईश्वर से जुड़ाव को शब्दों की माला में पिरो दिया। उनकी कविताएँ केवल साहित्य का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिकता की गहरी झलक प्रस्तुत करती हैं। ख़ुसरो की सूफ़ी रचनाएँ भावनाओं की गहराई को छूती हैं, जहाँ हर शब्द में ईश्वरीय प्रेम की झलक मिलती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ख़ुसरो ने सिर्फ़ सूफ़ी काव्य तक खुद को सीमित नहीं रखा? उन्होंने ज्योतिष पर भी लिखा, जहाँ सितारों और ग्रहों के माध्यम से जीवन और भाग्य के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया। उनकी लेखनी में विविधता और गहराई थी, जिसने उनकी कविता को कालजयी बना दिया। आइए इन सभी विषयों को विस्तार से समझते हैं!
अमीर ख़ुसरो का जन्म 1253 में पटियाली (ज़िला कासगंज, उत्तर प्रदेश ) में हुआ था। उनके पिता दिल्ली सल्तनत में एक तुर्की अधिकारी थे, जिन्होंने ख़ुसरो को धर्मशास्त्र, फ़ारसी भाषा और कुरान की शिक्षा दिलाई। वहीं, उनकी माँ हिंदुस्तानी मूल की थीं, जिनकी वजह से उन्हें स्थानीय भाषाओं और परंपराओं के प्रति गहरा लगाव हुआ। इस मिश्रित सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ने उन्हें एक अनूठी साहित्यिक और कलात्मक दृष्टि प्रदान की। अमीर ख़ुसरो अपनी युवावस्था में ही दिल्ली के प्रसिद्ध संत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गए थे। हालाँकि, यह भी माना जाता है कि उन्होंने सिर्फ़ आठ साल की उम्र में पहली बार निज़ामुद्दीन औलिया के ख़ानक़ाह (सूफ़ी निवास) के दरवाज़े पर कदम रखा था। उस समय उनके पिता भी उनके साथ थे। ख़ानक़ाह एक ऐसा स्थान होता था, जहाँ शाही दरबार की चकाचौंध और अभिजात्य संस्कृति से अलग एक शांत माहौल में सूफ़ी कविता की रचना और प्रस्तुति होती थी। अमीर ख़ुसरो एक सूफ़ी कवि थे, जिनकी कविताएँ गहरे रहस्यवाद और आध्यात्मिकता से भरी होती थीं।
आइए अब जानते हैं कि ख़ुसरो और ज्योतिष का क्या संबंध था?
अपनी कविताओं में अमीर ख़ुसरो ने खगोल विज्ञान और ज्योतिष के तत्वों का सुंदरता के साथ प्रयोग किया है। उन्होंने ग्रहों, तारों और ज्योतिषीय प्रतीकों को रूपकों के रूप में इस्तेमाल करके अपनी ऐतिहासिक कविताओं को अलंकृत किया। उनके काव्य में संपूर्ण कुंडली का भी कलात्मक वर्णन मिलता है। अपनी पाँच प्रमुख मसनवियों—किरान-उस-सादैन, नूह सिपीहर, देवल रानी ख़िज्र ख़ान, तुग़लक़नामा और मिफ़्ता-उल-फुतूह में उन्होंने ज्योतिषीय सिद्धांतों का उल्लेख किया है। उनकी भविष्यवाणियाँ और ज्योतिषीय मान्यताएँ आज भी प्रासंगिक मानी जाती हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषी सैय्यद समद हुसैन रिज़वी ने उनके विचारों को आधुनिक ज्योतिष से सटीक और अद्यतन पाया है। ख़ुसरो ने अपनी कविताओं में ज्योतिषीय संकेतों, परंपराओं और संपूर्ण कुंडली को कला के रूप में प्रस्तुत किया। इस अनोखी शैली के जनक होने का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। उनकी रचनाएँ नूह सिपीहर और तुग़लक़नामा यह साबित करती हैं कि उन्हें खगोल विज्ञान और ज्योतिष का गहरा ज्ञान था। उनकी रुचि विज्ञान में भी थी, और वे प्राचीन हिंदू वैज्ञानिक उपलब्धियों से प्रभावित नज़र आते हैं। उन्होंने लिखा कि भौतिकी, गणित, खगोल विज्ञान और भविष्यवाणी की विद्या हिंदुओं को पहले से ही ज्ञात थी। ख़ुसरो स्वयं भी विज्ञान की बारीकियों से परिचित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें ‘एस्ट्रोलेब’ (Astrolabe) का तकनीकी ज्ञान था, जो सितारों और ग्रहों की स्थिति मापने का एक यंत्र है। उनकी कविताओं में यह ज्ञान झलकता है, जो उन्हें एक अद्वितीय कवि और विद्वान बनाता है।
आइए अब संगीत के क्षेत्र में अमीर ख़ुसरो के योगदान और विरासत से आपको रूबरू कराते हैं:
अमीर ख़ुसरो 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि और संगीतकार थे। उन्हें तूती-ए-हिंद यानी 'भारत का तोता' की उपाधि दी गई थी। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत, सूफ़ी क़व्वाली और फ़ारसी साहित्य में बहुत बड़ा योगदान दिया। उनकी रचनाओं ने भारतीय और फ़ारसी संस्कृतियों को जोड़ने का काम किया। अमीर ख़ुसरो सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्य थे। उन्हीं से उन्हें आध्यात्मिक प्रेरणा मिली, जिसने उनकी कविता और संगीत को गहराई दी। उनकी रचनाएँ प्रेम, भक्ति और ईश्वर से सीधे संबंध की भावना को दर्शाती हैं। जब उन्होंने निज़ामुद्दीन औलिया को अपना गुरु बनाया, तब वे सूफ़ीवाद के चिश्ती संप्रदाय से जुड़ गए। ख़ुसरो ने अपने आध्यात्मिक गुरु, जिन्हें "महबूब-ए-इलाही" (भगवान का प्रिय) कहा जाता था, की प्रशंसा में कई शैलियों में कविताएँ लिखीं। उनकी रचनाओं में ईश्वर के प्रति अत्यधिक भक्ति और समर्पण दिखाई देता है। सूफ़ीवाद का मुख्य उद्देश्य सिर्फ़ वास्तविकता का बौद्धिक ज्ञान प्राप्त करना नहीं, बल्कि ईश्वर की सेवा करना है।
सूफ़ीवाद क्या है?
सूफ़ीवाद इस्लाम का आध्यात्मिक और रहस्यमय पहलू है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मिक शुद्धि, प्रेम और ईश्वर से सीधा संबंध स्थापित करना है। यह 7वीं से 10वीं शताब्दी के बीच उभरा और इसने संस्थागत धर्म की कठोरता के विरुद्ध एक मार्ग प्रस्तुत किया। सूफ़ी संत भक्ति, आत्म-अनुशासन और भौतिकवाद के त्याग पर ज़ोर देते हैं। सूफ़ीवाद और भारतीय भक्ति आंदोलन में कई समानताएँ हैं। दोनों ने कर्मकांडों के बजाय प्रेम, भक्ति और आंतरिक अनुभूति को महत्व दिया। दोनों ने समाज में समरसता और आध्यात्मिकता को बढ़ावा दिया। अमीर ख़ुसरो का साहित्य और संगीत भारत की बहुलवादी और समन्वयवादी परंपराओं को दर्शाता है। उनकी रचनाओं ने फ़ारसी और भारतीय संस्कृतियों को जोड़ा। साथ ही, सूफ़ीवाद ने भक्ति आंदोलन और सामाजिक सद्भाव को मज़बूत किया। यह परंपराएँ भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने को आकार देने में अहम रही हैं। उनकी कविताएँ सूफ़ी विचारधारा से गहराई से जुड़ी हुई हैं। इनमें ईश्वरीय प्रेम, जीवन की नश्वरता और आत्मा की ईश्वर से मिलन की तड़प का उल्लेख मिलता है। चिश्ती सूफ़ी संप्रदाय से उनका गहरा नाता था। विशेष रूप से, उनके गुरु निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति उनकी अटूट भक्ति ने उनकी साहित्यिक रचनाओं को प्रभावित किया। ख़ुसरो की कविताओं में प्रियतम (माशूक़) को एक ईश्वरीय और दिव्य रूप में प्रस्तुत किया गया है।
आइए अब आपको ख़ुसरो के जीवन से जुड़े एक रोचक किस्से से रूबरू कराते हैं, जो आगे चलकर एक परंपरा बन गया:
एक समय की बात है, जब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अपने प्रिय भतीजे ख्वाजा तकीउद्दीन नूह की मृत्यु से अत्यधिक दुखी हो गए थे। वे लंबे समय तक शोक में डूबे रहे और एकांतवास में रहने लगे। हर दिन वे अपने भतीजे की कब्र "चिल्ला-ए-शरीफ" पर जाकर समय बिताते थे। उनके इस दुखी और एकाकी रूप को देखकर उनके शिष्य, विशेष रूप से अमीर ख़ुसरो, बहुत चिंतित हो गए। ख्वाजा को उनके पुराने रूप में वापस लाने के कई असफल प्रयासों के बाद, एक दिन ख़ुसरो ने देखा कि कई महिलाएँ पीले वस्त्र पहनकर, पीले फूल हाथों में लिए सड़कों पर नाचते-गाते हुए जा रही हैं। जब उन्होंने जाना कि वे महिलाएँ "बसंत" का उत्सव मना रही हैं और भगवान को फूल चढ़ा रही हैं, तब उनके मन में एक अनोखा विचार आया। ख़ुसरो ने तुरंत पीले रंग का घाघरा और चुन्नी पहन ली। कुछ कथाओं में उन्हें साड़ी में लिपटे हुए बताया गया है। उन्होंने अपने चेहरे को घूंघट से ढक लिया और गेंदे के फूलों से खुद को सजाया। साथ में उन्होंने एक ढोल भी उठाया, जिसमें सरसों के फूल रखे थे। इस तरह सजकर वे अपने प्रिय ख्वाजा के दरवाजे पर पहुँचे और ढोल की थाप पर ब्रज भाषा में गाने लगे—
"आज बसंत मनाए सुहागन,
आज बसंत मनाए सुहागन!"
ख़ुसरो की यह अनोखी श्रद्धा रंग लाई। जैसे ही निज़ामुद्दीन औलिया ने यह दृश्य देखा, उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और उनका शोक समाप्त हो गया। आज भी, इस परंपरा को सूफ़ी बसंत उत्सव के रूप में उसी प्रेम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। दरगाह पीले रंग से सराबोर होती है, कव्वालियां गूंजती हैं, और श्रद्धालु उत्सव में शामिल होते हैं। यह वही एकमात्र दिन होता है, जब कव्वाल मुख्य दरगाह के अंदर जाकर गाते हैं। चारों ओर पीले फूलों की खुशबू और कव्वालियों की मधुर ध्वनि फैल जाती है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2xvs4x4p
मुख्य चित्र में जौनपुर के शाही पुल और सूफ़ियों का स्रोत : Wikimedia, प्रारंग चित्र संग्रह
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