जौनपुर की ज़मीन पर नीलगाय: एक पवित्र प्राणी से कृषि संकट तक

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जौनपुर की ज़मीन पर नीलगाय: एक पवित्र प्राणी से कृषि संकट तक

नीलगाय (Boselaphus tragocamelus), जिसे भारत में "नीली गाय" के नाम से जाना जाता है, एक विशाल एंटीलोप प्रजाति है जो भारतीय उपमहाद्वीप की मूल निवासी है। यह प्रजाति भारतीय पारिस्थितिकी तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा है और कृषि भूमि के आस-पास अक्सर देखी जाती है। धार्मिक मान्यताओं के कारण इसे पवित्र माना जाता रहा है, जिससे इसके शिकार या हत्या पर सामाजिक व धार्मिक रोक लगी रही। किंतु वर्तमान समय में यह प्रजाति विशेषकर उत्तर भारत के किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है क्योंकि यह व्यापक स्तर पर फसलों को नुकसान पहुंचा रही है। नीलगाय की उपस्थिति केवल भारत तक सीमित नहीं रही है। इसे 20वीं शताब्दी में अमेरिका जैसे देशों में शिकार व सजावटी उद्देश्यों के लिए आयात किया गया, जहां अब यह एक आक्रामक विदेशी प्रजाति (invasive species) के रूप में सामने आ रही है। नीलगाय के इस सफर ने इसे एक पवित्र प्रतीक से लेकर कृषि संकट के कारण तक बना दिया है।

इस लेख में हम पहले भारत में नीलगाय के ऐतिहासिक और भौगोलिक वितरण को समझेंगे, फिर इसकी जैविक संरचना और प्रजातिगत विशेषताओं का अवलोकन करेंगे। उसके बाद अमेरिका में इसके स्थानांतरण और वहां उत्पन्न संकट की चर्चा करेंगे। फिर हम इसके अत्यधिक प्रजनन और आबादी वृद्धि के कारणों को समझेंगे और कृषि पर इसके प्रभाव का विश्लेषण करेंगे। अंत में, इसके वैश्विक पारिस्थितिकीय प्रभावों की विवेचना करेंगे।

भारत में नीलगाय का पारंपरिक और ऐतिहासिक स्थान

नीलगाय को भारत में धार्मिक दृष्टि से गौवंश के समान माना जाता है। विशेषकर हिंदू समाज में इसे गाय की तरह पवित्र मान्यता प्राप्त है, जिस कारण इसे मारना या हानि पहुँचाना धार्मिक रूप से वर्जित माना जाता है। ऐतिहासिक दस्तावेजों और यात्रावृत्तों में भी नीलगायों का उल्लेख मिलता है। मुग़ल काल के शिकारी अभिलेखों में भी नीलगायों का शिकार एक विशिष्ट गतिविधि के रूप में वर्णित है, किंतु यह व्यापक स्तर पर नहीं था।

ग्राम्य भारत में नीलगाय को “गौ माता का रूप” मानकर किसानों ने सदियों तक इसके साथ सह-अस्तित्व की भावना अपनाई। यह धारणा भी प्रचलित रही कि यदि नीलगाय खेत में आ जाए तो उसे भगाना पाप होगा। इस धार्मिक और सांस्कृतिक संरक्षण ने इस प्रजाति की आबादी को शिकार और शोषण से बचाए रखा। लेकिन समय के साथ जब कृषि भूमि का विस्तार हुआ और नीलगायों के प्राकृतिक आवास घटने लगे, तो उनका भोजन और आवास क्षेत्र भी सिकुड़ गया। इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि नीलगायें मानव बस्तियों और खेतों की ओर आकर्षित होने लगीं।

भौगोलिक वितरण और निवास स्थान

नीलगाय भारत, नेपाल और पाकिस्तान में पाई जाती है, और यह भारतीय उपमहाद्वीप की एकमात्र जीवित बोसलाफिनी प्रजाति है। इसका मुख्य निवास क्षेत्र भारत का उत्तर एवं मध्य भाग है, विशेषकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली के आसपास। यह शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में अधिक पाई जाती है और घने जंगलों की तुलना में खुले मैदानों और झाड़ियों में निवास को प्राथमिकता देती है।

नीलगाय की सबसे अधिक संख्या कृषि क्षेत्रों के आस-पास देखी जाती है क्योंकि वहां उन्हें खाद्य स्रोत सरलता से मिल जाते हैं। इसके प्राकृतिक आवासों में घास के मैदान, खुली झाड़ियाँ, जंगली कृषि क्षेत्र, दलदली मैदानी क्षेत्र तथा झाड़ियों से ढके पठार आते हैं। जल स्रोतों के पास भी इनकी उपस्थिति देखी जाती है क्योंकि ये नियमित रूप से पानी पीने जाती हैं। ग्रामीण इलाकों में अब इनकी उपस्थिति इतनी अधिक हो चुकी है कि यह वन्यजीव नहीं, बल्कि एक आम "खेत में विचरने वाला पशु" बन गई है।

जैविक संरचना और प्रजातिगत विशेषताएं

नीलगाय बोविडे (Bovidae) परिवार की सदस्य है और इसका वैज्ञानिक नाम बोसेलाफस ट्रागोकेमेलस (Boselaphus tragocamelus) है। यह एंटीलोप वर्ग की सबसे बड़ी प्रजाति है। नर नीलगाय का वजन औसतन 200 से 240 किलोग्राम तथा कंधे की ऊंचाई लगभग 1.5 मीटर तक होती है, जबकि मादा का वजन 120 से 150 किलोग्राम तक होता है। नर का रंग स्लेटी नीला होता है जबकि मादाएं पीले-भूरे रंग की होती हैं। दोनों की गर्दन पर एक काली मूंछनुमा जूट होती है जो इनकी विशिष्ट पहचान है।

नरों में छोटे, सीधे और नुकीले सींग होते हैं जो लगभग 15–20 सेंटीमीटर तक लंबे हो सकते हैं। नीलगायें शाकाहारी होती हैं और मुख्यतः घास, झाड़ियाँ, पत्तियाँ, और अनाज पर निर्भर रहती हैं। इनका प्रजनन वर्ष भर चलता है लेकिन अधिकांश जन्म सर्दियों में होते हैं। एक मादा नीलगाय एक बार में आमतौर पर एक या दो शावकों को जन्म देती है और उनकी जीवन प्रत्याशा लगभग 20 वर्षों तक होती है। इनका व्यवहार प्रादेशिक (territorial) होता है और ये छोटे झुंडों में रहना पसंद करती हैं।

नीलगाय का अमेरिका में स्थानांतरण और प्रभाव

नीलगाय को 1930 के दशक में अमेरिका के टेक्सास राज्य में लाया गया था, जहाँ कुछ अमीर रैंच मालिकों ने इसे एक्सोटिक गेम हंटिंग के लिए अपने निजी फार्मों में पाला। प्रारंभ में मात्र 25-30 नीलगायों को आयात किया गया था, लेकिन इन्हें उपयुक्त जलवायु, पर्याप्त खाद्य और शिकारी के अभाव के कारण तेजी से प्रजनन का अवसर मिला। आज अमेरिका विशेषकर दक्षिण टेक्सास में इनकी संख्या 38,000 से अधिक हो चुकी है।

इनकी वृद्धि वहां की पारिस्थितिकी के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि यह स्थानीय पशु प्रजातियों के साथ संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। साथ ही, टेक्सास में पशुपालन उद्योग पर भी इनका नकारात्मक प्रभाव पड़ा है क्योंकि यह जानवर कई प्रकार की बीमारियों जैसे ‘Cattle Fever Tick’ और अन्य परजीवी रोगों के वाहक बन गए हैं। अब अमेरिकी अधिकारी इनकी संख्या नियंत्रित करने के लिए शिकार, ट्रैपिंग और एयर गन जैसे उपायों का उपयोग कर रहे हैं।

नीलगाय की अत्यधिक जनसंख्या और उसके कारण

भारत में नीलगायों की जनसंख्या नियंत्रण की स्पष्ट नीति नहीं होने के कारण यह समस्या विकराल होती जा रही है। कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:

  • प्राकृतिक शिकारी की कमी: बाघ, तेंदुआ और भेड़िया जैसे शिकारी अब कम हो गए हैं, जिससे नीलगायों की प्राकृतिक मृत्यु दर घटी है।
  • तेज़ प्रजनन दर: मादाएं वर्षभर प्रजनन में सक्षम होती हैं और उनके शावकों की मृत्यु दर भी कम है।
  • धार्मिक आस्था: धार्मिक भावना के कारण इनका शिकार वर्जित है।
  • कृषि क्षेत्रों की समीपता: खेतों के पास खाद्य उपलब्धता अधिक होने से यह बार-बार लौटती हैं।
  • वन क्षेत्रों का क्षरण: प्राकृतिक आवासों का नाश इनके मानव क्षेत्रों की ओर प्रवास का कारण है।

इस सबका परिणाम यह हुआ कि एक अकेली मादा नीलगाय कुछ वर्षों में ही कई संतानों को जन्म देती है, और जब ये शावक भी प्रजनन करने योग्य हो जाते हैं, तो यह आबादी तेजी से फैलती है।

नीलगाय और कृषि पर प्रभाव

नीलगायों द्वारा फसल नष्ट किया जाना ग्रामीण भारत में एक गंभीर समस्या है। ये प्राणी गेहूं, चना, मक्का, मूंग, अरहर, बाजरा, आलू, टमाटर और सरसों जैसी फसलों को विशेष रूप से नुकसान पहुंचाते हैं। फसलें न केवल खाई जाती हैं बल्कि पैरों से रौंद भी दी जाती हैं, जिससे खेत पूरी तरह बर्बाद हो जाते हैं।

कई किसानों को रात-भर खेतों में रुककर लाठी, ढोल, पटाखे आदि से नीलगायों को भगाना पड़ता है, जिससे उनकी नींद, ऊर्जा और मानसिक शांति प्रभावित होती है। उत्तर भारत में कुछ क्षेत्रों में किसानों ने कांटेदार तार, खाई और बिजली के झटकों वाली बाड़ जैसे उपाय किए हैं, लेकिन ये महंगे और सीमित क्षेत्र में ही कारगर हैं। इस संघर्ष का सीधा असर किसानों की आय, मनोबल और कृषि उत्पादन पर पड़ता है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वैश्विक और पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से परिणाम

नीलगाय की समस्या केवल भारत की नहीं रही है, बल्कि इसका वैश्विक पारिस्थितिकीय प्रभाव अब स्पष्ट रूप से सामने आ रहा है। जब कोई प्रजाति अपने मूल निवास स्थान से हटाकर दूसरे पारिस्थितिक तंत्र में पहुंचाई जाती है, तो वह वहां की पारिस्थितिकी को असंतुलित कर सकती है। अमेरिका में नीलगायों का यही उदाहरण है। इसके अतिरिक्त, भारत में नीलगायों की अत्यधिक उपस्थिति ने पारिस्थितिक प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है। यह अन्य शाकाहारी प्रजातियों जैसे चीतल, सांभर और ब्लैकबक के लिए भोजन और जल स्रोतों की प्रतिस्पर्धा पैदा करती है, जिससे उनकी संख्या प्रभावित होती है। साथ ही, नीलगायों का अधिक दबाव स्थानीय वनस्पति पर पड़ता है, जिससे जैव विविधता पर खतरा मंडराने लगता है। यह पूरी खाद्य श्रृंखला को असंतुलित कर सकता है।