जौनपुर की धड़कनों में बसा राग जौनपुरी: सुरों की एक अमर पहचान

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जौनपुर की धड़कनों में बसा राग जौनपुरी: सुरों की एक अमर पहचान

भारतीय शास्त्रीय संगीत में रागों की विविधता और उनकी भावप्रवणता उसे विश्वभर में अनूठा बनाती है। हर राग एक विशिष्ट समय, भाव और वातावरण से जुड़ा होता है। इन्हीं रागों में एक अत्यंत मधुर, कोमल और आत्मा को छूने वाला राग है — राग जौनपुरी। यह राग न केवल अपने स्वर विन्यास से मन को शांत करता है, बल्कि इतिहास, भक्ति, और लोकसंगीत में भी इसकी गहरी छाप दिखाई देती है। जौनपुर की सांगीतिक धरोहर के रूप में यह राग संगीतप्रेमियों और साधकों के हृदय में विशेष स्थान रखता है।

इस लेख में हम सबसे पहले राग जौनपुरी का परिचय और उसका भाव पक्ष देखेंगे। फिर हम इसके इतिहास और उत्पत्ति पर प्रकाश डालेंगे। इसके बाद आरोह, अवरोह और पकड़ को विस्तार से पढ़ेंगे। राग के भावों को समझते हुए, हम इसकी तुलना अन्य रागों से करेंगे। हम गुरु ग्रंथ साहिब में रागों की भूमिका पर चर्चा करेंगे और इसकी आध्यात्मिक महत्ता को जानेंगे। आगे चलकर, हम राग जौनपुरी के फिल्मी और लोकप्रिय प्रयोग को देखेंगे। अंत में, इसके सांगीतिक और शैक्षणिक महत्व को जानकर यह समझ पाएंगे कि यह राग भारतीय संगीत और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।

राग जौनपुरी का परिचय
भारतीय शास्त्रीय संगीत की विशाल परंपरा में राग जौनपुरी को विशेष स्थान प्राप्त है। यह राग आसावरी थाट पर आधारित है और इसका गायन समय दिन का दूसरा प्रहर अर्थात दोपहर पूर्व निर्धारित है। यह राग अपनी कोमलता, मधुरता, और भावनात्मक गहराई के लिए जाना जाता है। राग जौनपुरी में सातों स्वर (संपूर्ण जाति) प्रयुक्त होते हैं, जिनमें कोमल ग, ध, और नि प्रमुख हैं। 

इसकी प्रकृति कोमल, गंभीर और मन को शांति देने वाली होती है। इस राग में श्रृंगार और करुण रसों की प्रधानता देखी जाती है, जिससे यह राग आत्मचिंतन और भक्ति की भावना को भी सहज रूप से व्यक्त करता है।  यह राग सुनने वालों में आत्मिक सौंदर्य का अनुभव कराता है और श्रोताओं को मानसिक स्थिरता प्रदान करता है। इसकी स्वरलहरी मन में गंभीरता और गहराई का संचार करती है, जिससे यह राग भक्ति, करुणा और शांति के भावों का सशक्त माध्यम बन जाता है। 

इतिहास और उत्पत्ति
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से राग जौनपुरी की उत्पत्ति 15वीं शताब्दी में जौनपुर राज्य के सुल्तान हुसैन शर्की से जुड़ी मानी जाती है, जो संगीत के महान संरक्षक थे। कहा जाता है कि उन्होंने न केवल इस राग का विकास किया, बल्कि शास्त्रीय संगीत को अपने दरबार में विशेष महत्व दिया। उस समय जौनपुर को ‘शिराज-ए-हिंद’ कहा जाता था, जहां विद्वान और कलाकार एकत्रित होते थे।

इतिहासकारों और संगीतज्ञों के अनुसार, सुल्तान हुसैन शर्की, जो स्वयं एक विद्वान संगीत प्रेमी थे, ने इस राग को विकसित किया। जौनपुर उस समय बनारस के बाद संगीत का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ के दरबारी वातावरण ने रचनात्मकता को प्रोत्साहन दिया, और राग जौनपुरी उसी सांगीतिक समृद्धि का एक फलदायी परिणाम था। लोककथाओं के अनुसार, इस राग को मूल रूप से दरबारी शास्त्रीय परंपरा में विकसित किया गया और कालांतर में यह हिंदुस्तानी संगीत की मुख्यधारा का हिस्सा बन गया। राग जौनपुरी का उल्लेख कई संगीतशास्त्र ग्रंथों में भी मिलता है, जैसे 'संगीत रत्नाकर', 'रघुनाथ की रागमाला' और 'बृहदेश्वरी संगीत' आदि। इस राग की लोकप्रियता धीरे-धीरे उत्तर भारत में फैली और यह हिंदुस्तानी संगीत के साथ-साथ सूफी संगीत में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा।

आरोह, अवरोह, और पकड़

  • आरोह (Ascending):सा रे म प ध नी सां
  • अवरोह (Descending):सां नी ध प म ग रे सा
  • पकड़ (Signature Phrase): म प , नी ध प , ध म प ग - रे म प

इस राग में गंधार (ग), धैवत (ध), और निषाद (नी) कोमल होते हैं, जिससे इसकी स्वरलहरियाँ अत्यंत सौम्य और मोहक प्रतीत होती हैं। आरोह में गंधार वर्ज्य होता है, लेकिन अवरोह में इसका सटीक और संतुलित प्रयोग इसे अन्य रागों से अलग करता है। इसकी पकड़, अर्थात पहचान स्वर-पंक्ति, इस राग के व्यक्तित्व को स्पष्ट रूप से उभारती है। यह स्वर-व्यवस्था विद्यार्थियों को स्वर-भेद और श्रुति के सूक्ष्म अंतर को समझने का उत्तम अवसर प्रदान करती है।

राग जौनपुरी का भाव पक्ष
राग जौनपुरी का भाव पक्ष अत्यंत गम्भीर, आत्मनिष्ठ और करुणामयी होता है। यह राग विशेष रूप से मन की गहराइयों को स्पर्श करता है और आत्मचिंतन, विरह, भक्ति, और कभी-कभी सौम्यता और शांत भावनाओं को उजागर करता है। भाव की दृष्टि से राग जौनपुरी अत्यंत समृद्ध है। यह राग करुणा, भक्ति, शांति, और संजीदगी के भावों को संप्रेषित करने में समर्थ है। इसे "करुण रस" प्रधान राग भी कहा जाता है, क्योंकि इसके स्वर सीधे हृदय से संवाद करते हैं। यह ध्यान, साधना, और आत्मिक चिंतन के लिए अत्यंत उपयुक्त राग है। जब इस राग को शांत, गहरे स्वर में प्रस्तुत किया जाता है, तो यह श्रोता को एक गूढ़ आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है। इसके भाविक पक्ष का प्रभाव मनोविज्ञान में भी देखा गया है, जहां इसे मानसिक तनाव कम करने में सहायक बताया गया है।

राग जौनपुरी और अन्य रागों से तुलना
राग जौनपुरी का स्वर-संयोजन राग आसावरी, दरबारी कान्हड़ा, और अड़ाना से मिलता-जुलता है, लेकिन प्रयोग की पद्धति में महत्वपूर्ण अंतर हैं। दरबारी और अड़ाना रात्रि के राग हैं, और उनका आलाप तथा विस्तार अधिक गूढ़ और गहन होता है, जबकि जौनपुरी दिन के समय अपनी सहजता और मधुरता से मन को छूता है। आसावरी और जौनपुरी दोनों में कोमल स्वर हैं, लेकिन आसावरी में आरोह में निषाद का त्याग होता है, जबकि जौनपुरी में नहीं। यह तुलना यह दर्शाती है कि भले ही स्वर समान हों, लेकिन राग का भाव, समय, और प्रस्तुति उसे विशिष्ट बनाती है।

गुरु ग्रंथ साहिब में रागों का उपयोग
गुरु ग्रंथ साहिब में संगीत को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मा की साधना का माध्यम माना गया है। इस ग्रंथ में कुल 31 रागों का प्रयोग किया गया है, जिनमें राग जौनपुरी का भी समावेश है। प्रत्येक राग को उसके भाव, समय और गूढ़ अर्थ के अनुसार चुना गया है। गुरु ग्रंथ साहिब में रागों का वैज्ञानिक उपयोग इस बात को दर्शाता है कि संगीत और अध्यात्म में गहरा संबंध है। उदाहरण के लिए, राग माझ आत्मा की भगवान से मिलन की लालसा दर्शाता है, तो वहीं राग जौनपुरी करुणा और शांति के भाव को प्रकट करता है। यह राग आत्मिक उन्नति और ध्यान में सहायक माना जाता है।

राग जौनपुरी का फिल्म और लोकप्रिय संगीत में प्रयोग
राग जौनपुरी की मधुरता और भावप्रधानता ने हिंदी फिल्म संगीत को भी समृद्ध किया है। अनेक कालजयी गीत इस राग पर आधारित हैं:

  • "जाएं तो जाएं कहां"फिल्म: टैक्सी ड्राइवर (1954)
  • "घुंघट के पट खोल"फिल्म: जोगन (1950)
  • "दिल में हो तुम आंखों में तुम"फिल्म: सत्यमेव जयते (1985)
  • "चितनंदन आगे नाचूंगी"फिल्म: दो कलियां (1968)

इन गीतों में राग जौनपुरी की स्वर-छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यह दर्शाता है कि शास्त्रीय संगीत किस प्रकार से लोकप्रिय संगीत को गहराई और संवेदना प्रदान करता है। साथ ही, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि रागों की प्रस्तुति केवल मंच तक सीमित नहीं है, बल्कि जनमानस में भी इसकी गूंज है।

सांगीतिक महत्व और शिक्षण में उपयोग
राग जौनपुरी का शिक्षण पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह राग संगीत विद्यार्थियों के लिए स्वर-व्यवस्था और भाव के अभ्यास का सर्वोत्तम माध्यम है। कोमल स्वरों के प्रयोग, आरोह-अवरोह के संतुलन, और भाव की अभिव्यक्ति के कारण इसे मिड-लेवल छात्रों को सिखाया जाता है। इसके माध्यम से छात्र राग का सौंदर्य, आलाप, तान, और गत का अभ्यास करते हैं। वाद्य संगीत में भी यह राग अत्यंत प्रभावशाली होता है, विशेषकर बाँसुरी, सितार, और सरोद जैसे वाद्यों पर इसकी प्रस्तुति अत्यंत मधुर प्रतीत होती है। संगीत शिक्षण संस्थानों में इसे अनिवार्य पाठ्यक्रम में रखा जाता है।