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भारत के गाँवों में आज भी नदियाँ, तालाब और जलाशय ग्रामीण जीवन के केंद्रबिंदु हैं। ये जलस्रोत न केवल पीने और सिंचाई का माध्यम हैं, बल्कि आजीविका के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन जलस्रोतों में पाई जाने वाली मछलियाँ, विशेषकर रोहू मछली (Labeo rohita), भारत के मत्स्य उद्योग की रीढ़ हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में, विशेष रूप से जौनपुर ज़िले में, रोहू मछली न केवल आजीविका का प्रमुख साधन बन चुकी है, बल्कि ग्रामीण आर्थिकी का भी एक अनिवार्य हिस्सा है।
इस लेख में सबसे पहले हम जानेंगे कि जौनपुर में रोहू मछली पालन कैसे परंपरा से एक लाभकारी व्यवसाय के रूप में उभरा है। इसके बाद हम रोहू मछली के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पोषण संबंधी महत्व पर प्रकाश डालेंगे। फिर हम गोमती नदी में बढ़ते प्रदूषण और उससे मछलियों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को समझेंगे, और अंत में समाधान तथा भविष्य की दिशा पर चर्चा करेंगे।

जौनपुर में रोहू मछली पालन: परंपरा से व्यावसायिकता तक
जौनपुर का भूगोल और जलवायु रोहू मछली पालन के लिए अत्यंत अनुकूल माने जाते हैं। जिले की गोमती, सई, वरुणा, बसुही और पीली नदियों के अतिरिक्त यहाँ हज़ारों की संख्या में छोटे-बड़े तालाब हैं, जो सदियों से ग्रामीणों के मछली पालन के केंद्र रहे हैं। पहले यह केवल घरेलू खपत और सांस्कृतिक परंपरा के तहत होता था, लेकिन अब यह बड़े पैमाने पर व्यावसायिक रूप ले चुका है।
आधुनिक मत्स्य पालन में किसानों को वैज्ञानिक तरीके से प्रशिक्षण, बीज (फिश स्पॉन), खाद्य सामग्री और बाजार से जोड़ने का सहयोग राज्य सरकार और मत्स्य विभाग द्वारा दिया जा रहा है। इसके तहत एक औसत 1 हेक्टेयर तालाब में प्रति वर्ष 6–8 टन रोहू मछली पैदा की जा सकती है। उत्पादन की लागत ₹2.66 लाख आती है और कुल आमदनी ₹4 लाख से अधिक हो जाती है, जिससे ₹1.34 लाख तक का शुद्ध लाभ प्राप्त होता है। यह लाभांश किसानों को धान या गेहूँ की पारंपरिक खेती की तुलना में अधिक आकर्षक लगता है। इसके अतिरिक्त, सरकार की प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना (PMMSY) और ब्लू रिवोल्यूशन जैसे अभियानों के अंतर्गत इस व्यवसाय को तकनीकी सहायता और वित्तीय प्रोत्साहन भी मिल रहा है।

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व
रोहू मछली भारतीय संस्कृति में केवल भोजन तक सीमित नहीं रही है, बल्कि इसका ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व भी उल्लेखनीय है। भारत के 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध ग्रंथ मानसोलासा में रोहू मछली का उल्लेख मिलता है, जिसमें इसे तल कर परोसे जाने वाले व्यंजन के रूप में दर्शाया गया है। यह ग्रंथ चालुक्य शासक सोमेश्वर द्वारा लिखा गया था, जिससे पता चलता है कि उस समय भी रोहू की खपत राजमहलों तक में होती थी।
मुगल काल में रोहू का एक विशेष सांस्कृतिक रूप में उपयोग होता था — माही-ओ-मरातिब, जो एक सम्मान सूचक पद था। इसे किसी योद्धा, अफसर या दरबारी को उनकी बहादुरी, सेवा या निष्ठा के लिए दिया जाता था। यह उपाधि उस समय की एक तरह की "भारत रत्न" की तरह मानी जाती थी, जो रोहू मछली को प्रतीक रूप में इस्तेमाल कर दी जाती थी।
दक्षिण भारत में भी रोहू मछली को भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार से जोड़ा जाता है, जो दर्शाता है कि यह मछली न केवल आर्थिक या व्यावसायिक बल्कि धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर भी है।
रोहू मछली का वैज्ञानिक और पोषणात्मक पक्ष
रोहू मछली का वैज्ञानिक नाम लेबियो रोहिता (Labeo rohita) है, और यह साइप्रिनिडी परिवार की सदस्य है। यह मुख्य रूप से गंगा-ब्रह्मपुत्र नदियों के बेसिन क्षेत्र में पाई जाती है, लेकिन अब कृत्रिम रूप से पूरे भारत में पाली जाती है। इसका शरीर लंबा, चपटा और चमकीला होता है। इसका मांस सफेद, मुलायम और स्वादिष्ट होता है, जो इसे उपभोक्ताओं के बीच लोकप्रिय बनाता है।
पोषण की दृष्टि से रोहू मछली अत्यंत लाभकारी है। इसमें 17–20% तक उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन पाया जाता है। साथ ही यह ओमेगा-3 फैटी एसिड, विटामिन A, D और B12, कैल्शियम, फास्फोरस और आयरन से भरपूर होती है। इसका नियमित सेवन हृदय स्वास्थ्य, मस्तिष्क विकास, और प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए लाभकारी माना जाता है।
आज की जीवनशैली में जहाँ प्रोटीन की कमी आम बात हो गई है, वहाँ रोहू जैसी मछली एक सुलभ, स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक विकल्प प्रदान करती है।

प्रदूषण का संकट: गोमती नदी में मछलियों की घटती संख्या
हालांकि रोहू मछली पालन में संभावनाएँ हैं, लेकिन प्रदूषण एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। विशेष रूप से गोमती नदी, जो जौनपुर सहित कई जिलों की जीवनरेखा रही है, अब तीव्र प्रदूषण की चपेट में आ चुकी है। नगरपालिकाओं का सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट, खेतों से बहकर आने वाले कीटनाशक, प्लास्टिक कचरा और धार्मिक कचरे ने नदी के जल को जहरीला बना दिया है।
प्रदूषण के कारण मछलियों में कई प्रकार की गंभीर बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं। जैसे—गिल रॉट (Gill rot) (गलफड़ों में संक्रमण), फिन रोट (Fin rot) (पूंछ और परों का गलना), लिवर डैमेज (Liver Damage), और हाइपरप्लासिया (Hyperplasia)(कोशिकीय वृद्धि)। इसके अलावा प्रदूषकों से मछलियों का व्यवहार भी प्रभावित हो रहा है—वे भोजन नहीं करतीं, प्रजनन नहीं करतीं, और उनका जीवनचक्र असमय समाप्त हो रहा है।
वैज्ञानिक अध्ययनों में पाया गया है कि कार्बोफ्यूरान (Carbofuran), फ्लुओक्सेटीन (Fluoxetine) और एंटीबायोटिक्स (Antibiotics) जैसे प्रदूषक मछलियों की न्यूरोलॉजिकल प्रणाली को प्रभावित करते हैं। इससे उनकी दिशा ज्ञान, खतरे की पहचान और सामाजिक व्यवहार क्षीण हो जाते हैं, जिससे मछलियों की जनसंख्या में तेज़ गिरावट आ रही है।
समाधान और भविष्य की राह
रोहू मछली पालन को भविष्य में एक स्थायी और सुरक्षित व्यवसाय बनाए रखने के लिए कई रणनीतिक प्रयासों की आवश्यकता है—