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प्राचीन भारत के इतिहास में कई ऐसे साम्राज्य रहे हैं जिन्होंने न केवल राजनीतिक स्थायित्व प्रदान किया, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक रूप से भी समाज को समृद्ध किया। इन्हीं में से एक प्रमुख साम्राज्य था कुषाण साम्राज्य, जिसने भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों से लेकर गंगा के मैदानी भागों तक अपनी सत्ता स्थापित की। यह साम्राज्य लगभग पहली से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक अपने चरम पर था और इसने भारतीय उपमहाद्वीप के धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया। कुषाण साम्राज्य को विशेष ख्याति शासक कनिष्क महान के कारण प्राप्त हुई, जिन्होंने बौद्ध धर्म को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस साम्राज्य के शासनकाल में बौद्ध, हिंदू, यूनानी, ईरानी और मध्य एशियाई संस्कृतियों का समावेश हुआ, जिससे भारतीय समाज बहुसांस्कृतिक और सहिष्णु बना।
इस लेख में हम कुषाण साम्राज्य के इतिहास, उसकी आर्थिक एवं व्यापारिक व्यवस्था, सिक्कों की ऐतिहासिक महत्ता, धार्मिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक मिश्रण और कला के क्षेत्र में उसके योगदान का विस्तृत अध्ययन करेंगे। यह लेख इतिहास के उस दौर की झलक देगा जब भारत वैश्विक सांस्कृतिक और व्यापारिक केंद्र बनने की दिशा में अग्रसर था।

कुषाण साम्राज्य का इतिहास और सांस्कृतिक योगदान
कुषाणों की उत्पत्ति युएझ़ी (Yuezhi) नामक मध्य एशियाई जनजाति से हुई थी, जो पहले बक्त्रिया (आधुनिक अफगानिस्तान) में आकर बस गई थी। युएझ़ियों में से एक प्रमुख शाखा ‘कुषाण’ थी, जिसने कालांतर में स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना की। प्रारंभ में ये शासक बृहत्तर बक्त्रिया पर शासन करते थे, परंतु धीरे-धीरे इन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों—गंधार, पंजाब और अंततः गंगा घाटी तक विस्तार कर लिया।
शासक विम कडफिसेस (Vima Kadphises) ने कुषाण साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ किया, परंतु कनिष्क के शासनकाल में इसने राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अपूर्व उन्नति की। कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर (आज का पेशावर) और सहायक राजधानी मथुरा थी। उन्होंने 78 ईस्वी में शक संवत की शुरुआत की, जो आज भी भारतीय पंचांगों में प्रयुक्त होती है।
कनिष्क के संरक्षण में महायान बौद्ध धर्म का विकास हुआ और यह चीन, तिब्बत, मध्य एशिया, जापान और कोरिया तक पहुँचा। इसके अतिरिक्त, संस्कृत भाषा का शाही स्तर पर प्रयोग बढ़ा, जिससे यह भारत की बौद्धिक भाषा बनी। साहित्य, दर्शन और धार्मिक ग्रंथों की रचना में वृद्धि हुई, जिनमें अश्वघोष, नागरजुन, और चरक जैसे विद्वान सामने आए।
कुषाण साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि और व्यापार
कुषाण साम्राज्य की एक प्रमुख विशेषता इसकी मजबूत आर्थिक और व्यापारिक व्यवस्था थी। साम्राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसे स्थान पर थी जहाँ से पूर्व और पश्चिम के देशों के बीच व्यापारिक मार्ग गुजरते थे। यह क्षेत्र रेशम मार्ग (Silk Route) और उत्तर-पश्चिम व्यापार मार्ग का प्रमुख केंद्र था, जिससे चीन, भारत, रोम, और फारस को जोड़ने वाला व्यापार संभव हुआ।
कुषाण व्यापारी भारत से रेशमी वस्त्र, मसाले, हाथीदांत, कीमती पत्थर, शिल्पकला की वस्तुएँ और औषधियाँ निर्यात करते थे, जबकि चीन से रेशम और रोम से सोने के सिक्के आयात करते थे। यह व्यापार न केवल आर्थिक दृष्टि से समृद्धि लाया, बल्कि विचारों, कला शैलियों, और धार्मिक मान्यताओं का भी आदान-प्रदान हुआ।
कुषाणों ने व्यापार को सुगम बनाने के लिए ढांचागत विकास में निवेश किया—सड़कें, सरायें, बंदरगाह और शहरीकरण को बढ़ावा मिला। मथुरा, तक्षशिला, काबुल, बेग्राम, और श्रीनगर जैसे नगर व्यापार, धर्म और संस्कृति के केंद्र बने। गंगा-यमुना दोआब का कृषि उत्पादन भी व्यापारिक समृद्धि में योगदान देता था।

कुषाण साम्राज्य के सिक्कों का ऐतिहासिक महत्व
कुषाण काल के सिक्के इतिहासकारों के लिए अद्भुत स्रोत हैं, जो उस काल की राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जटिलताओं को उजागर करते हैं। कुषाणों ने पहली बार भारत में सोने के सिक्कों को प्रचलन में लाया, जिन्हें दीनार कहा जाता था। इसके अतिरिक्त चांदी और तांबे के सिक्के भी व्यापक रूप से चलन में थे।
इन सिक्कों पर कई प्रकार के चित्र मिलते हैं—ग्रीक देवता जैसे हेराक्लीस, सेरपेन्ट, और अपोलो, ईरानी देवता मिथ्र, भारतीय देवता शिव, स्कंद और बौद्ध प्रतीक जैसे धर्मचक्र और बुद्ध की प्रतिमाएं। इनसे पता चलता है कि कुषाण शासन ने धार्मिक सहिष्णुता और समावेशी दृष्टिकोण को अपनाया था।
लिपियों की दृष्टि से इन सिक्कों पर खरोष्ठी, ग्रीक और बाद में ब्राह्मी लिपि में अभिलेख मिलते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि साम्राज्य बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक था। कनिष्क के सोने के सिक्के, जिन पर ‘शाहनशाह कनिष्क’ लिखा होता था, शाही शक्ति और वैभव का प्रतीक माने जाते हैं।

कुषाण शासक कडफिसेस का धार्मिक दृष्टिकोण
विम कडफिसेस, कनिष्क के पूर्वज, कुषाण साम्राज्य के प्रारंभिक और महत्वपूर्ण शासक माने जाते हैं। उन्होंने हिंदू धर्म के प्रति झुकाव दिखाया, विशेष रूप से शिव उपासना में। उनके अनेक सिक्कों पर त्रिशूलधारी शिव और नंदी का चित्रण मिलता है, जो दर्शाता है कि वह वैदिक परंपराओं को स्वीकारते थे।
कडफिसेस ने बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दिया, जिससे यह धर्म व्यापार मार्गों के माध्यम से चीन और मध्य एशिया में पहुँचा। उनकी नीतियाँ धार्मिक सहिष्णुता की मिसाल हैं—वे न तो किसी एक मत को थोपते थे, न ही धार्मिक भिन्नता को राज्य का खतरा मानते थे।
धर्म के प्रति यह समन्वयी दृष्टिकोण केवल शासन की स्थिरता में ही नहीं, बल्कि बहुसांस्कृतिक समाज की स्थापना में भी सहायक हुआ। उनके द्वारा समर्थित धार्मिक नीति ने भविष्य में कनिष्क जैसे शासकों को भी इसी समन्वय की परंपरा को आगे बढ़ाने का आधार दिया।
कुषाण साम्राज्य का सांस्कृतिक और धार्मिक मिश्रण
कुषाण युग को भारत में सांस्कृतिक संक्रमण और धार्मिक समावेश का स्वर्ण काल माना जाता है। इस काल में बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय का जन्म हुआ, जिसने बुद्ध को ईश्वरतुल्य मानते हुए मूर्ति पूजा की अनुमति दी। यही कारण है कि इस युग में बुद्ध की विशाल मूर्तियाँ बननी शुरू हुईं, विशेषकर गंधार और मथुरा कला में।
वहीं दूसरी ओर, ब्राह्मण धर्म (हिंदू धर्म) में शिव, विष्णु, स्कंद, गणेश आदि देवताओं की पूजा का विस्तार हुआ। साथ ही ईरानी और यूनानी धार्मिक प्रतीकों और दर्शन का भी भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ा। ग्रीक मिथकों और बौद्ध जातक कथाओं के चित्रण एक ही शिल्पकला में दिखने लगे।
इस मिश्रण ने भारतीय संस्कृति को वैश्विक संदर्भ में मजबूत किया। धार्मिक बहुलता और समन्वय की भावना से न केवल आंतरिक सामाजिक संतुलन बना, बल्कि भारत बाह्य आक्रमणों और प्रभावों के बावजूद अपनी सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने में सफल रहा।

कुषाण साम्राज्य और भारतीय कला
कुषाण युग भारतीय कला के विकास का एक उज्ज्वल अध्याय है। इस काल में गंधार शैली और मथुरा शैली का विकास हुआ, जिनमें पूर्वी और पश्चिमी कला शैलियों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। गंधार कला में यूनानी प्रभाव दिखता है—यथार्थवादी चेहरे, अंगविन्यास, वस्त्रों की सिलवटें, आदि। वहीं मथुरा कला पूरी तरह भारतीय रूप और धार्मिक प्रतीकों से भरपूर है।
गंधार में बनी बुद्ध की मूर्तियाँ बाद में चीन, जापान और कोरिया की बौद्ध कलाओं के लिए आधार बनीं। कनिष्क के आदेश पर बनाए गए स्तूपों, विहारों और मूर्तियों ने धार्मिक कला को नई दिशा दी। साथ ही मथुरा में बनी यक्षिणी, बुद्ध, महावीर और हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी कला के उत्कर्ष को दर्शाती हैं। स्थापत्य कला में भी इस युग ने स्तूप निर्माण, चैत्य गृहों और मठों के निर्माण में नवाचार किए। वास्तुकला और मूर्तिकला के इस उत्कर्ष काल को बाद के गुप्त युग की कलात्मक विरासत ने और विस्तार दिया।