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जौनपुरवासियों, हमारा शहर गोमती नदी के किनारे बसा है और आसपास कई नहरें भी मौजूद हैं, जिससे यहां अभी तक ताजे पानी की भारी कमी जैसी स्थिति नहीं बनी है। लेकिन जिले में भूमिगत जलस्तर लगातार गिर रहा है — भूगर्भ विभाग के अनुसार हर साल औसतन 5 मीटर की गिरावट दर्ज हो रही है। जिले के कई तालाब और कुएं या तो सूख चुके हैं या उपेक्षा के कारण बेकार हो गए हैं। कई इलाकों में गर्मियों में हैंडपंपों से पानी आना बंद हो जाता है। जिले में मौजूद लगभग 13,676 तालाब और 5,000 कुएं कभी ग्रामीण जीवन के जल स्रोत थे, लेकिन अब इनका बड़ा हिस्सा सूख चुका है या उपेक्षा की भेंट चढ़ चुका है। अमृत सरोवर योजना के तहत तालाबों के सौंदर्यीकरण की पहल की गई, लेकिन ज़मीनी स्तर पर प्रशासनिक उदासीनता और देखरेख की कमी के चलते कई तालाब केवल धूल उड़ाने की जगह बनकर रह गए हैं। केराकत, सिरकोनी, राजाबाजार और सिंगरामऊ जैसे क्षेत्रों में तालाब और कुएं पूरी तरह सूख चुके हैं, जिससे न केवल इंसानों को, बल्कि पशु-पक्षियों को भी जल संकट झेलना पड़ रहा है। जल जीवन मिशन जैसे प्रयास चल रहे हैं, लेकिन ये योजनाएं तभी सफल होंगी जब पुराने जल स्रोतों का पुनर्जीवन—जैसे कुओं का जीर्णोद्धार, चेकडैम निर्माण, पौधरोपण और रूफटॉप रेनवाटर हार्वेस्टिंग—स्थानीय सहभागिता और प्रशासनिक संजीदगी के साथ हों। जौनपुर जैसे जिले, जहां नदियां और नहरें हैं, वहां जल संकट का उभरना यह दर्शाता है कि यदि हम समय रहते नहीं चेते, तो यह संकट और भी विकराल रूप ले सकता है।
देश के दूसरे हिस्सों में यह स्थिति और भी गंभीर है, जहां लोग पीने के पानी के लिए मीलों दूर जाते हैं। ऐसे में जौनपुर को लेकर भी हमें पहले से तैयारी करनी होगी। तालाबों का संरक्षण, वर्षा जल संचयन और पुराने जल स्रोतों का पुनरुद्धार ऐसे कदम हैं जिन्हें हमें अभी से अपनाना चाहिए, ताकि भविष्य में पानी की कमी की स्थिति से बचा जा सके। इस लेख में हम सबसे पहले भारत में स्वच्छ जल संकट की वर्तमान स्थिति को देखेंगे और यह समझेंगे कि गर्मियों में गिरता भूजल स्तर कैसे जल आपूर्ति को प्रभावित करेगा। इसके बाद हम दूषित जल से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को जानेंगे और पाइप से जलापूर्ति की स्थिति पर भी दृष्टि डालेंगे। हम यह भी देखेंगे कि भूजल प्रदूषण के प्रमुख कारण कौन से हैं और अंत में सरकारी प्रयासों व योजनाओं की सफलताओं और सीमाओं का मूल्यांकन करेंगे।
भारत में स्वच्छ जल संकट की वर्तमान स्थिति
भारत की विशाल जनसंख्या होने के बावजूद आज भी करोड़ों लोगों के लिए स्वच्छ पेयजल एक दुर्गम सपना बना हुआ है। सरकारी आँकड़ों में भले ही कुछ सुधार दिखे, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि देश की लगभग 63.4% आबादी आज भी सुरक्षित और शुद्ध जल से वंचित है। यह केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि उन करोड़ों ज़िंदगियों की त्रासदी है जो हर दिन गंदे पानी पर निर्भर रहने को मजबूर हैं।
ग्रामीण भारत में स्थिति और भी गंभीर है, जहाँ अब भी अधिकांश लोग कुओं, तालाबों, नालों और असुरक्षित जल स्रोतों से पानी प्राप्त करते हैं। इनका जल स्तर न केवल नीचे गिरता जा रहा है, बल्कि वह अधिकतर रासायनिक अपशिष्ट, बैक्टीरिया और जलजनित रोगों से भी प्रदूषित है। वहीं, शहरी क्षेत्रों में पाइपलाइनें जर्जर हैं, जल शोधन संयंत्र अधूरे या असक्षम हैं, और वितरण प्रणाली में भारी असमानता है। इसका सबसे बड़ा खामियाजा गरीब और वंचित तबकों को उठाना पड़ता है, जिनके पास बोतलबंद पानी खरीदने या टैंकर मँगाने की सुविधा नहीं होती। जल संकट अब केवल एक पर्यावरणीय या स्वास्थ्य मुद्दा नहीं रहा — यह एक सामाजिक न्याय और गरिमामयी जीवन का प्रश्न बन गया है। जब किसी महिला को हर सुबह दो किलोमीटर चलकर गंदा पानी भरना पड़ता है, जब किसी स्कूल में पीने का साफ पानी नहीं होता, या जब कोई बच्चा दूषित पानी से बीमार होकर अपनी पढ़ाई छोड़ देता है — तब हम समझ सकते हैं कि यह संकट इंसानी गरिमा को कैसे ठेस पहुँचाता है।

गर्मियों में गिरता भूजल स्तर और जल आपूर्ति की चुनौतियाँ
हर साल गर्मी बढ़ने के साथ ही कई इलाकों में भूजल का स्तर तेजी से गिरने लगता है। कई जगहों पर हैंडपंप सूख जाते हैं और पुराने कुएं बेकार हो जाते हैं। कई बार नलों से पानी आना बंद हो जाता है या बहुत कम मात्रा में आता है। जो पानी मिलता है, वह कभी पर्याप्त नहीं होता और कई बार इतना अशुद्ध होता है कि बीमारियों का कारण बन जाता है। पानी की आपूर्ति कई जगहों पर अनियमित हो गई है — लोगों को हफ्ते में कुछ ही दिन ठीक से पानी मिल पाता है।
ऐसी स्थिति में अब हमें केवल चिंता नहीं, बल्कि ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। वर्षा जल संग्रहण, माइक्रो इरिगेशन जैसी तकनीकों का उपयोग, और पुराने तालाबों व कुओं को फिर से उपयोगी बनाना अब जरूरी हो गया है। इसके साथ ही जल संरक्षण को घर-घर और समुदाय के स्तर पर समझाना होगा। अगर आज से ही सही तरीके से पानी का उपयोग और बचाव नहीं किया गया, तो आगे चलकर समस्या और गंभीर हो सकती है।
ग्रामीणों की प्यास और सिस्टम की खामोशी
उत्तर प्रदेश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्या अब एक गंभीर संकट का रूप ले चुकी है। जौनपुर ज़िले के मुफ्तीगंज क्षेत्र के पटखौली गांव और खुटहन ब्लॉक के सैकड़ों गांव इस समय जल संकट से बुरी तरह प्रभावित हैं। पटखौली में सरकारी योजनाओं के तहत लगाए गए कई हैंडपंप सालों से खराब पड़े हैं। ग्रामीणों ने कई बार अपनी जेब से पैसे जुटाकर मरम्मत कराई, लेकिन हर बार यह उपाय अस्थायी साबित हुआ।
खुटहन ब्लॉक की स्थिति और भी चिंताजनक है। वहां मौजूद 5036 हैंडपंपों में से करीब 200 बंद पड़े हैं—जिनमें से 165 को मरम्मत की ज़रूरत है और 35 हैंडपंप पूरी तरह रिबोर के इंतज़ार में हैं। लोग लगातार ग्राम प्रधानों, पंचायत सचिवों और ब्लॉक दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन समाधान की कोई ठोस कोशिश नहीं की जा रही। कुछ जगहों पर तो यह भी आरोप लगे हैं कि राजनीतिक भेदभाव के चलते कुछ परिवारों के हैंडपंपों को जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
तेज़ गर्मी और बढ़ती प्यास के बीच ग्रामीणों की हालत दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। पानी जैसी बुनियादी ज़रूरत के लिए लोगों का ऐसे संघर्ष करना न केवल अफ़सोसनाक है, बल्कि सिस्टम की गंभीर असफलता को भी उजागर करता है। अब ग्रामीणों की मांग है कि प्रशासन तत्काल हस्तक्षेप करे, हैंडपंपों की मरम्मत कराए और ज़िम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करे—ताकि हर घर तक साफ़ पानी पहुंच सके, जो उनका हक़ है, कोई सौगात नहीं।
दूषित जल का स्वास्थ्य पर प्रभाव
दूषित जल से जुड़ी बीमारियाँ न सिर्फ आम हैं, बल्कि लाखों लोगों के जीवन के लिए घातक भी बन चुकी हैं। हैजा, टाइफाइड, पेचिश, डायरिया और हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ तो आम हैं ही — कई मामलों में लंबे समय तक प्रदूषित जल के सेवन से कैंसर जैसी गंभीर बीमारियाँ भी सामने आई हैं। सबसे ज्यादा असर बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ता है, जिनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही कमजोर होती है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की मानें तो हर साल भारत में लाखों लोग सिर्फ गंदा पानी पीने की वजह से बीमार पड़ते हैं, और इनमें से हजारों की जान चली जाती है। गाँवों में तो हालात और भी खराब हैं, जहाँ इलाज की सुविधाएँ सीमित हैं और अस्पताल तक पहुँचना भी कई बार संभव नहीं हो पाता। ऐसी जगहों पर एक साधारण डायरिया भी जानलेवा बन सकता है।
कई बार लोग यह तक नहीं समझ पाते कि जो बुखार या पेट की समस्या उन्हें बार-बार हो रही है, उसका असली कारण गंदा पानी है। जल जनित रोगों को लेकर जागरूकता की भारी कमी है — न जानकारी होती है, न विकल्प। पीने का पानी वहीं से आता है जहाँ मवेशी नहाते हैं, नालियाँ बहती हैं या खुले में लोग शौच करते हैं। शहरी झुग्गी बस्तियाँ और गाँव के पिछड़े इलाके आज भी ऐसे असुरक्षित जल स्रोतों पर निर्भर हैं जो रोज़ नए संक्रमण को जन्म दे सकते हैं। ऐसे में सिर्फ पानी की आपूर्ति कर देना काफी नहीं है। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि वह पानी वाकई पीने लायक है या नहीं।

भारत में पाइप से जलापूर्ति की स्थिति
भले ही भारत सरकार ने जल जीवन मिशन जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएँ शुरू की हों, लेकिन ज़मीनी हकीकत अभी भी कड़वी ही है। आज भी देश की कुल ग्रामीण आबादी का केवल 26.9% हिस्सा ही पाइप जलापूर्ति से जुड़ा है — यानी करोड़ों लोग अब भी ऐसे स्रोतों से पानी पीने को मजबूर हैं, जो न तो सुरक्षित हैं और न ही स्वच्छ। पाइप से जलापूर्ति की योजनाएं अक्सर अपने लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही रुक जाती हैं — कभी फंड की कमी, कभी तकनीकी खामियाँ और कभी निर्माण कार्य में अनियमितताएं। कई जगहों पर पाइपलाइनें महीनों तक टूटी पड़ी रहती हैं, जिससे ग्रामीणों को मजबूरी में तालाब, कुएं या खुले बोरवेल से दूषित पानी लेना पड़ता है।
शहरी क्षेत्रों में भले ही तस्वीर थोड़ी बेहतर हो, लेकिन वहां भी पाइप जल में लीकेज, गंदगी की मिलावट और अनियमित सप्लाई जैसी समस्याएं आम हैं। जल की आपूर्ति के नाम पर घंटों इंतजार और बार-बार शिकायत करना एक सामान्य दिनचर्या बन चुका है। इस समस्या के पीछे कई जटिल प्रशासनिक चुनौतियाँ भी हैं — जैसे भूमि अधिग्रहण में देरी, बजट मंज़ूरी की उलझनें, और निर्माण में ठेकेदारों की लापरवाही। कई बार भ्रष्टाचार और निगरानी की कमी के चलते ये योजनाएँ कागज़ों में तो पूरी हो जाती हैं, लेकिन ज़मीन पर अधूरी ही रह जाती हैं।
भूजल प्रदूषण के प्रमुख कारण
भारत में भूजल प्रदूषण अब एक खामोश लेकिन बेहद गंभीर पर्यावरणीय संकट बन चुका है। हमारे घरों की सोखता टंकियाँ, कीटनाशकों और रासायनिक खादों का अंधाधुंध उपयोग, खुले में शौच, और फैक्ट्रियों से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्ट — ये सभी धीरे-धीरे ज़मीन के नीचे समा रहे हैं और उस जल को ज़हरीला बना रहे हैं जिसे हम पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं। गाँवों और शहरों में कचरे और प्लास्टिक के खुले ढेर, अनियोजित जल निकासी, और बढ़ते निर्माण कार्य भूजल को सीधे-सीधे नुकसान पहुँचा रहे हैं। ये ज़हर धीरे-धीरे हमारी ज़मीन में उतरता है और फिर हमारी नल की टोंटियों से होकर हमारे शरीर में प्रवेश करता है — बिना हमें इसका अंदाज़ा दिए। भूजल केवल एक संसाधन नहीं है — यह जीवन की बुनियाद है। जब यही पानी दूषित हो जाएगा, तो खेती, स्वास्थ्य, और खाद्य सुरक्षा — सब कुछ खतरे में पड़ जाएगा। यह समस्या सिर्फ सरकार की नहीं, हम सभी की जिम्मेदारी है। जब तक हर नागरिक और हर संस्था इस संकट को व्यक्तिगत समझकर ठोस कदम नहीं उठाएगी, तब तक समाधान संभव नहीं।

सरकारी प्रयास और योजनाएँ: सफलताएँ और सीमाएँ
भारत सरकार ने जल संकट से निपटने के लिए कई महत्त्वपूर्ण योजनाएँ शुरू की हैं — जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम (NRDWP), जल जीवन मिशन, अटल भूजल योजना, और हर घर जल जैसी पहलें। इनका मूल उद्देश्य है: हर घर तक स्वच्छ जल पहुँचाना, भूजल स्तर की निगरानी करना और देश में जल संरक्षण की भावना को बढ़ावा देना। लेकिन इन योजनाओं का ज़मीनी असर अब तक सीमित ही रहा है। कई परियोजनाएँ कागज़ों में तो बेहद प्रभावशाली दिखती हैं, लेकिन उनके कार्यान्वयन में अक्सर देरी, बजट की कमी, या प्रशासनिक ढीलापन आड़े आ जाता है। कहीं पाइपलाइन अधूरी रह जाती है, तो कहीं नल तो लगते हैं लेकिन पानी वर्षों तक नहीं आता।
स्थानीय निकायों की उदासीनता, तकनीकी दक्षता की कमी और आम नागरिकों में जल संरक्षण को लेकर जागरूकता का अभाव इन प्रयासों की सफलता को बाधित कर रहा है। जब तक लोग स्वयं जल को एक साझा उत्तरदायित्व नहीं मानते, तब तक कोई भी योजना स्थायी परिणाम नहीं दे सकती। इसके अतिरिक्त, कई बार इन योजनाओं के आँकड़ों में पारदर्शिता नहीं होती — और निगरानी की उचित व्यवस्था न होने के कारण योजनाएँ वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुँचने से पहले ही थम जाती हैं। यदि प्रशासनिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ सामुदायिक भागीदारी को मज़बूती दी जाए, तो यही योजनाएँ जल संकट के खिलाफ एक ठोस ढाल बन सकती हैं।