जौनपुरवासियों, क्या आप जानते हैं पास के आज़मगढ़ की मिट्टी में रची बसी इस कला को?

म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण
01-07-2025 09:23 AM
जौनपुरवासियों, क्या आप जानते हैं पास के आज़मगढ़ की मिट्टी में रची बसी इस कला को?

जौनपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर, आज़मगढ़ का एक छोटा-सा कस्बा है — निज़ामाबाद। देखने में भले ही यह जगह सामान्य लगे, लेकिन इसकी मिट्टी में एक खास बात है — यहाँ के काले मिट्टी के बर्तन भारत ही नहीं, दुनिया भर में अपनी अलग पहचान रखते हैं। ये बर्तन सिर्फ खाना पकाने या परोसने के लिए नहीं हैं, बल्कि हर एक में पीढ़ियों से बहती एक परंपरा, एक कहानी और एक आत्मा बसती है। जब बाकी दुनिया मशीनों और प्लास्टिक से बनी चीज़ों की चमक में पुरानी कलाओं को भुला रही है, तब भी निज़ामाबाद के कारीगर अब भी उसी मिट्टी को हाथों से गूंथ रहे हैं, उसी चाक पर घुमा रहे हैं, और उसी आग में पकाकर उसे एक नया जीवन दे रहे हैं। धूप में सूखते बर्तन, उंगलियों की छाप, और काले रंग की वह खास चमक — सब कुछ मिलकर एक ऐसी विरासत बनाते हैं जो समय की कसौटी पर हमेशा खरी उतरती है। यह सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि पहचान का जरिया है — अपने पूर्वजों की याद, अपने हाथों का सम्मान और मिट्टी से जुड़ी उस जड़ का प्रतीक जिसे समय भी मिटा नहीं सका। निज़ामाबाद आज भी यही बताता है — कि असली चमक कभी-कभी कालेपन में भी छिपी होती है।

इस लेख में सबसे पहले हम जानेंगे कि काले मिट्टी के बर्तनों की ऐतिहासिक उत्पत्ति कब और कैसे हुई। फिर हम आपको बताएंगे कि निज़ामाबाद में यह परंपरा कैसे शुरू हुई और मुगलकालीन प्रभाव ने इसे कैसे संवारा। इसके बाद हम बात करेंगे इन बर्तनों को बनाने की अनोखी तकनीक, सामग्री और सजावटी शैलियों की। इसके बाद जानेंगे GI टैग मिलने की प्रक्रिया और इसके अंतरराष्ट्रीय महत्व के बारे में। अंत में आपको मिलेगा इन बर्तनों के व्यापार, आधुनिक उपयोग और ग्रामीण विकास में भूमिका का विस्तृत विवरण।

काले मिट्टी के बर्तनों की ऐतिहासिक उत्पत्ति और पुरातात्त्विक प्रमाण

भारत में बर्तनों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना स्वयं सभ्यता का। नवपाषाण और ताम्रपाषाण काल के दौरान जब मानव ने एक स्थान पर बसना शुरू किया, तब भोजन और जल के भंडारण की आवश्यकता ने बर्तन निर्माण की नींव रखी। प्रारंभ में ये बर्तन हाथों से गढ़े जाते थे और बाद में चाक के आविष्कार ने इनकी गुणवत्ता और आकार में क्रांति ला दी।
पुरातात्त्विक स्थलों जैसे नावदाटोली, चिचली, रायपुरा, और लतीफ शाह में खुदाई से प्राप्त काले मृद्भांड इस बात के प्रमाण हैं कि यह परंपरा हज़ारों वर्षों से चली आ रही है। यह परंपरा हड़प्पा और वैदिक सभ्यताओं से होते हुए लौह युग तक पहुँचती है, और 1000 ईसा पूर्व के आसपास विकसित "उत्तरी काला लेपित मृद्भांड" (NBPW) संस्कृति इसका उच्चतम बिंदु थी। यह संस्कृति गंगा के मैदानी भागों में 300 ईसा पूर्व तक फैली रही और इतिहास में अपनी छाप छोड़ गई।
इन पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह भी स्पष्ट होता है कि उस समय के लोगों की जीवनशैली में काले बर्तनों का विशेष स्थान था। मिट्टी के ये बर्तन केवल उपयोग के साधन नहीं थे, बल्कि उनमें धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी निहित था। कुछ खुदाई में मिले बर्तन अत्यंत सुंदर अलंकरण से युक्त थे, जिससे यह संकेत मिलता है कि शिल्पकला तब भी विकसित अवस्था में थी। इससे यह भी समझा जा सकता है कि भारतीय समाज में कलात्मकता और उपयोगिता का समन्वय कितनी पुरानी परंपरा है।

निजामाबाद (आजमगढ़) में काले मृद्भांड की परंपरा और मुगलकालीन प्रभाव

निज़ामाबाद की यह कला केवल पारंपरिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी विशेष महत्व रखती है। कहा जाता है कि यह तकनीक मूल रूप से गुजरात के कच्छ क्षेत्र में विकसित हुई थी और मुग़लकाल में वहां से आजमगढ़ लाई गई। ऐसा माना जाता है कि औरंगज़ेब के शासनकाल में यह कला गुजरात से लाकर आजमगढ़ के निज़ामाबाद क्षेत्र में स्थापित की गई।
यहाँ मुस्लिम शाही परिवारों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कुम्हारों को बुलाया गया, और शहर चारों तरफ झील से घिरे होने के कारण महिलाओं के स्नान के लिए भूमिगत रास्ते बनाए गए जिनमें मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होता था। यही से इस कला का विकास हुआ और इसमें बिड्रिवेयर (Bidriware) जैसी मुगल शैली की सजावट का समावेश भी हुआ। मुगल प्रभाव के चलते इन बर्तनों की बनावट और सजावट में शाही सौंदर्य झलकने लगा, जो आज भी इनमें दिखता है।
इस काल में इन बर्तनों का प्रयोग केवल घरेलू नहीं, बल्कि शाही दरबारों में भी होने लगा। ये बर्तन धार्मिक आयोजनों, इत्र संग्रहण और औषधि संरक्षण जैसे कार्यों में उपयोग किए जाते थे। मुगल दरबार की कलात्मक रुचि ने इन बर्तनों के स्वरूप में बारीकी और लालित्य का समावेश किया। स्थानीय कुम्हारों को संरक्षण मिलने से यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होती चली गई और आज तक जीवित है।

काली मिट्टी के बर्तनों की तकनीक: निर्माण, सामग्री और सजावट

निजामाबाद के काले बर्तन केवल कला का नमूना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी रोचक हैं। इन बर्तनों के निर्माण में विशेष किस्म की चिकनी मिट्टी का प्रयोग किया जाता है, जिसे तालाबों से निकाला जाता है। यह मिट्टी प्लास्टिक क्ले की तरह व्यवहार करती है, जिससे बर्तन अधिक लचीले और टिकाऊ बनते हैं।
बर्तनों को करीब 850 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पकाया जाता है, जिससे यह अपनी विशिष्ट काली चमक प्राप्त करते हैं। पकाने में चावल की भूसी की भट्टी का प्रयोग होता है, जिसका धुआं इन बर्तनों को खास रूप से रंगता है।
सजावट के लिए इन पर अर्ध-शुष्क अवस्था में बांस की टहनियों से फूल-पत्तियों के डिज़ाइन उकेरे जाते हैं। फिर सरसों का तेल रगड़कर इनकी चमक को और बढ़ाया जाता है। इनमें जिंक और मर्करी पाउडर से डिज़ाइन बनते हैं, जिससे यह चांदी जैसी आभा देते हैं। कभी-कभी इन्हें लाह से भी सजाया जाता है, जिससे गर्म करने पर इनकी चमक और निखरती है।
इस प्रक्रिया में कारीगरों की मेहनत, तकनीकी जानकारी और अनुभव का बड़ा योगदान होता है। प्रत्येक चरण में सटीक तापमान और समय का ध्यान रखना होता है, अन्यथा बर्तन फट सकते हैं या रंग फीका पड़ सकता है। यह तकनीक पूरी तरह पारंपरिक होते हुए भी अत्यंत वैज्ञानिक है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिखाई जाती है और आधुनिक युग में भी टिकाऊ बनी हुई है।

भौगोलिक संकेतक (GI Tag) और अंतरराष्ट्रीय मान्यता

इतनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संपदा को पहचान दिलाने के लिए वर्ष 2015 में निज़ामाबाद के काले मिट्टी के बर्तनों को भौगोलिक संकेत (GI Tag) प्रदान किया गया। GI टैग एक कानूनी मान्यता है, जो किसी खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी कला, वस्तु या उत्पाद को विशेष अधिकार देती है।
भारत में यह टैग "भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999" के तहत दिया जाता है। भारत में सबसे पहले दार्जिलिंग की चाय को 2004-05 में GI टैग दिया गया था। इस टैग से स्थानीय कारीगरों को संरक्षण मिलता है और उनकी कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और बाज़ार मिलता है।
GI टैग के साथ काले मृद्भांड अब केवल एक घरेलू वस्तु नहीं बल्कि ब्रांड बन चुके हैं, जिनकी विश्वभर में मांग है और जो भारत की सांस्कृतिक पहचान को दर्शाते हैं।
इस मान्यता ने कारीगरों को कानूनी सुरक्षा दी है और नकली उत्पादों से उन्हें बचाया है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में अब ये बर्तन 'निज़ामाबाद ब्लैक पॉटरी' के नाम से पहचाने जाते हैं, जिससे भारत की पारंपरिक शिल्पकला को नया मंच मिला है। इसके बाद कई अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में इन्हें शामिल किया गया, जिससे स्थानीय कारीगरों को सम्मान और रोजगार के नए अवसर मिले।

आधुनिक उपयोग, व्यापार और ग्रामीण विकास में भूमिका

आज निजामाबाद में लगभग 200 से अधिक शिल्प परिवार इस परंपरा से जुड़े हुए हैं। इनके बनाए काले मिट्टी के बर्तन आज घरेलू उपयोग से लेकर सजावटी सामग्रियों और धार्मिक मूर्तियों तक में काम आते हैं। इस कला को बढ़ावा देने के लिए 2014 में ‘ग्रामीण धरोहर विकास के लिए भारतीय ट्रस्ट’ द्वारा "ब्लैक पॉटरी फेस्टिवल" आयोजित किया गया।
बर्तनों का निर्यात अब अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों तक होने लगा है, जिससे यहां के शिल्पकारों की आमदनी में वृद्धि हो रही है। यह केवल एक शिल्प नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र के ग्रामीण विकास, आर्थिक मजबूती और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बन गया है।
इस क्षेत्र में युवाओं की रुचि बढ़ाने के लिए डिजिटल मार्केटिंग, सरकारी योजनाओं और शिल्प प्रशिक्षण शिविरों की आवश्यकता है ताकि यह परंपरा भविष्य में और भी अधिक प्रासंगिक बन सके।
इसके साथ-साथ स्थानीय महिलाओं को भी इस शिल्प से जोड़ा जा रहा है, जिससे उन्हें आत्मनिर्भरता की दिशा में सशक्त किया जा सके। अनेक स्वयं सहायता समूह अब इन बर्तनों के विपणन, डिज़ाइन और वितरण में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। यदि सरकारी सहयोग और निजी निवेश लगातार बना रहे, तो यह कला ग्रामीण भारत के लिए आर्थिक पुनर्जागरण का कारण बन सकती है।

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