गंगा का पारिस्थितिक संतुलन: जलचर, पक्षी और सूक्ष्मजीवों का आश्रय स्थल

नदियाँ
11-07-2025 09:22 AM
गंगा का पारिस्थितिक संतुलन: जलचर, पक्षी और सूक्ष्मजीवों का आश्रय स्थल

उत्तर भारत के लोगों के लिए गंगा सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि जीवनदायिनी और सांस्कृतिक चेतना की प्रतीक रही है। इसकी जलधारा में न केवल करोड़ों लोगों की आजीविका समाई है, बल्कि असंख्य वन्यजीवों और जलीय जीवों का जीवन भी इसी पर आधारित है। जैव विविधता के क्षेत्र में गंगा को एक अद्वितीय स्थान प्राप्त है, जहाँ डॉल्फिन से लेकर कछुए, और सारस क्रेन से लेकर दुर्लभ मछलियाँ – सभी इसका हिस्सा हैं। यह लेख गंगा की इसी पारिस्थितिकी और जैव विविधता पर केंद्रित है, जो न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि संस्कृति और संरक्षण के लिहाज से भी प्रेरणास्रोत है।
गंगा के जल में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों से लेकर इसके तटों पर बसे आर्द्रभूमि पारिस्थितिक तंत्र तक, हर तत्व पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में योगदान करता है। इसकी धारा में घुले पोषक तत्व हजारों वर्षों से कृषि और मत्स्य व्यवसाय को जीवित रखते आए हैं। साथ ही, गंगा से जुड़े धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्य भी इसे एक अद्वितीय पर्यावरणीय विरासत बनाते हैं। यह न केवल एक नदी है, बल्कि एक समग्र जीवन प्रणाली है, जिसकी रक्षा करना हमारी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी है। इस लेख में हम गंगा नदी की जैव विविधता पर प्रकाश डालेंगे। सबसे पहले, जानेंगे कि यह नदी कैसे अनेक जलजीवों का आश्रय स्थल है। इसके बाद गंगा डॉल्फिन, सारस क्रेन, और घड़ियाल जैसे प्रमुख जीवों के जीवन और संरक्षण प्रयासों पर चर्चा करेंगे। फिर गंगा जल में पाए जाने वाले रहस्यमयी बैक्टीरियोफेज और उनके वैज्ञानिक महत्व को समझेंगे। अंत में, रोहू मछली की जैविक और आर्थिक भूमिका पर विचार करेंगे, जो गंगा की प्रमुख स्वदेशी प्रजाति है।

गंगा नदी: जैव विविधता का आश्रय स्थल

गंगा नदी लगभग 2,500 किलोमीटर की लंबाई के साथ केवल भारत की सबसे बड़ी नदी नहीं, बल्कि जैव विविधता का एक विस्तृत केंद्र भी है। यह नदी करोड़ों लोगों को जल और जीवन देती है, लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण है इसका पारिस्थितिकी तंत्र, जिसमें असंख्य जल और स्थलजीव आश्रय पाते हैं। गंगा नदी प्रणाली में डॉल्फिन, घड़ियाल, कछुए, ऊदबिलाव, रोहू और कैटला जैसी मछलियाँ, सारस क्रेन जैसे पक्षी और सूक्ष्म जीवों की असंख्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इसके किनारे पर अनेक आर्द्रभूमियाँ हैं जो प्रवासी पक्षियों के लिए आदर्श ठिकाना हैं। यह नदी केवल एक जल स्रोत नहीं बल्कि एक जीवित पारिस्थितिकी है, जो पूरे उत्तर भारत की जैविक संपदा का आधार है। गंगा की पारिस्थितिक समृद्धि हमें यह सिखाती है कि नदी की शुद्धता केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि पारिस्थितिकीय जिम्मेदारी भी है।
गंगा नदी के सहायक जल स्रोत और उपनदियाँ भी इस जैव विविधता को बनाए रखने में मदद करती हैं। इन तटीय क्षेत्रों में न केवल स्थानीय वन्य जीवन पनपता है, बल्कि प्रवासी पक्षी भी मौसम के अनुसार यहां आश्रय लेते हैं। गंगा डेल्टा क्षेत्र दुनिया के सबसे उपजाऊ और जैविक रूप से सक्रिय डेल्टाओं में से एक है। यहाँ की आर्द्रभूमियाँ जैव विविधता के साथ-साथ कार्बन अवशोषण में भी सहायक हैं। इस क्षेत्र की पारिस्थितिक समृद्धि पारंपरिक मछुआरा समुदायों और स्थानीय किसानों के लिए भी आजीविका का स्रोत है। इन कारणों से गंगा को जैविक धरोहर के रूप में देखना जरूरी है।

गंगा डॉल्फिन: भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव

गंगा डॉल्फिन, जिसे "सुसु" के नाम से भी जाना जाता है, भारत की नदियों में पाई जाने वाली एक दांतेदार व्हेल प्रजाति है। यह जीव भारत, नेपाल और बांग्लादेश की गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में निवास करता है। इसकी खासियत है इसका लंबा, पतला थूथन, जिसमें कई तीखे दांत होते हैं, और इसका शरीर भूरे से लेकर हल्के नीले रंग तक के विभिन्न शेड्स में होता है। यह डॉल्फिन अत्यंत संवेदनशील होती है और जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण से प्रभावित होती है। भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया है ताकि इसके संरक्षण को बढ़ावा मिल सके। इसका संरक्षण, गंगा की पारिस्थितिकी संतुलन का सीधा संकेतक है, क्योंकि यह केवल स्वच्छ जल में ही जीवित रह सकती है। WWF और अन्य संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे संरक्षण कार्यक्रमों ने गंगा डॉल्फिन को पुनः जीवित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
गंगा डॉल्फिन की दृष्टि बहुत कमजोर होती है और यह इकोलोकेशन का उपयोग करके शिकार और दिशा तय करती है। यह प्रजाति धीमी गति से चलने वाले पानी को पसंद करती है और मछलियों तथा अन्य छोटे जलीय जीवों का शिकार करती है। इसकी संख्या में आई गिरावट जैव विविधता के लिए खतरे का संकेत है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि गंगा में औद्योगिक और घरेलू कचरे का बढ़ता स्तर डॉल्फिन के प्रजनन को प्रभावित कर रहा है। संरक्षण की दृष्टि से इसके निवास क्षेत्रों को संरक्षित जलमार्ग के रूप में घोषित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है। इसके जीवन चक्र और व्यवहार को समझने के लिए वैज्ञानिक शोध लगातार जारी हैं।

सारस क्रेन

सारस क्रेन (Sarus crane): उत्तर भारत के बाढ़ क्षेत्रों की शान

सारस क्रेन, भारत का सबसे ऊँचा उड़ने वाला पक्षी, अपने लाल सिर और लंबी टाँगों के कारण दूर से ही पहचाना जा सकता है। यह एक गैर-प्रवासी पक्षी है जो मुख्यतः उत्तर और मध्य भारत के बाढ़ क्षेत्रों में पाया जाता है। उत्तर प्रदेश ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया है, और इसके संरक्षण में सरसई नावर वेटलैंड जैसे रामसर स्थल प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। यह आर्द्रभूमि 161.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली है और यहाँ 400 से अधिक सारस क्रेन नियमित रूप से देखे जा सकते हैं। कीचड़युक्त भूमि और उथला पानी इस पक्षी के घोंसले और प्रजनन के लिए आदर्श है। सारस क्रेन सामाजिक पक्षी है और जीवन भर अपने एक ही साथी के साथ रहते हैं। यह पक्षी गंगा की बाढ़ भूमि की पारिस्थितिकी स्थिरता का भी संकेतक माना जाता है।
सारस क्रेन की उपस्थिति स्थानीय जैव विविधता की सेहत का संकेत देती है, क्योंकि यह केवल शांत और स्वच्छ क्षेत्रों में ही अंडे देता है। यह पक्षी अत्यधिक संवेदनशील होता है और मानव गतिविधियों जैसे खेती, निर्माण, और जलस्रोतों के अतिक्रमण से परेशान हो सकता है। इसके संरक्षण के लिए स्थानीय समुदायों को भी शामिल किया गया है, जिनकी भूमिका जागरूकता और निगरानी में महत्वपूर्ण रही है। पारंपरिक लोककथाओं और रीति-रिवाजों में भी सारस का उल्लेख एक शुभ और एकनिष्ठ प्राणी के रूप में होता रहा है। इसे बचाने की मुहिम में कृषि वैज्ञानिक, पक्षी प्रेमी और वन विभाग एक साथ मिलकर कार्य कर रहे हैं।

गंगा नदी घड़ियाल

गंगा नदी घड़ियाल: मछली खाने वाला मगरमच्छ

गंगा नदी में पाया जाने वाला घड़ियाल, जिसे मछली खाने वाले मगरमच्छ के रूप में जाना जाता है, भारत की दुर्लभ और संकटग्रस्त प्रजातियों में से एक है। इसका थूथन लंबा और पतला होता है, जो इसे अन्य मगरमच्छों से भिन्न बनाता है। वयस्क नर के थूथन पर एक विशेष गोल उभार होता है जिसे ‘घड़ा’ कहा जाता है, और यही इसका नाम घड़ियाल पड़ा। गंगा, चंबल और उनकी सहायक नदियाँ इस जीव का प्राकृतिक निवास स्थान हैं। हिंदू धर्म में इसे माँ गंगा और वरुण देवता का वाहन माना गया है। संरक्षण की दृष्टि से भारत सरकार ने हस्तिनापुर वन्यजीव अभयारण्य जैसे स्थलों में घड़ियालों को पुनः बसाने की कोशिश की है। इसके ऐतिहासिक चित्र सिंधु घाटी सभ्यता से मिले हैं, जो इसकी सांस्कृतिक प्रासंगिकता भी दर्शाते हैं। वर्तमान में, इसका अस्तित्व जल प्रदूषण और बालू खनन से खतरे में है।
घड़ियाल का प्रमुख भोजन मछली होती है, जिससे यह पारिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखता है और मत्स्य प्रजनन को नियंत्रित करता है। यह प्रजाति अंडों को रेत में देती है, जो जल स्तर में परिवर्तन के प्रति अति संवेदनशील होती है। नदियों की धारा में परिवर्तन, अवैध रेत खनन और बांध निर्माण जैसे मानवीय हस्तक्षेप इसके प्रजनन में बाधा डालते हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार, घड़ियाल की संख्या बढ़ाने के लिए विशेष पुनर्वास कार्यक्रमों की आवश्यकता है, जिनमें इनके अंडों की सुरक्षा और युवा घड़ियालों को संरक्षित वातावरण में बड़ा करना शामिल है। भारत सरकार के ‘प्रोजेक्ट क्रोकोडाइल’ जैसी पहलें इसे विलुप्ति से बचाने में कारगर हो सकती हैं।

रोहू मछली

रोहू: गंगा प्रणाली की प्रमुख स्वदेशी मछली

रोहू मछली (Labeo rohita), गंगा नदी की एक प्रमुख स्वदेशी मछली प्रजाति है, जो कार्प कुल से संबंधित है। यह मछली भारत, नेपाल और बांग्लादेश के मीठे जल स्रोतों में पाई जाती है और मछली पालन उद्योग के लिए अत्यंत लाभकारी मानी जाती है। इसकी लंबाई 2 फीट तक हो सकती है और यह औसतन 6-8 किलोग्राम वजनी होती है। रोहू का मांस स्वादिष्ट और पोषण से भरपूर होता है, जिससे यह भारत में अत्यधिक लोकप्रिय है। इसकी उच्च प्रजनन क्षमता और परिवेश के प्रति सहनशीलता इसे एक आदर्श व्यावसायिक प्रजाति बनाती है। यह मछली गंगा की पारिस्थितिकी संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि यह जल में पौधों और सूक्ष्म जीवों को खाकर खाद्य श्रृंखला को नियंत्रित करती है। भारत में मछली पालन के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में रोहू को विशेष प्राथमिकता दी जाती है।
रोहू मछली प्रोटीन का समृद्ध स्रोत है और ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा बनाए रखने में इसका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह मछली सामान्यत: तालाबों, नहरों और नदियों में पालने योग्य होती है और कम लागत में उच्च उत्पादन देती है। इसके बीज (फ्राई) की गुणवत्ता और उपयुक्त जलवायु में वृद्धि दर इसे सबसे लोकप्रिय प्रजातियों में बनाती है। मत्स्य विभागों द्वारा रोहू को क्रॉस-ब्रीडिंग तकनीकों में भी शामिल किया गया है ताकि अधिक टिकाऊ और उत्पादक किस्में विकसित की जा सकें। इसकी बाजार मांग उच्च बनी रहती है, जिससे यह आजीविका का एक मजबूत साधन भी है।

 

संदर्भ-

https://tinyurl.com/2srpzcf4 

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