जौनपुर की ज़मीन पर चींटियों की गुप्त दुनिया: मिट्टी, खेती और विज्ञान का संगम

तितलियाँ व कीड़े
14-07-2025 09:23 AM
जौनपुर की ज़मीन पर चींटियों की गुप्त दुनिया: मिट्टी, खेती और विज्ञान का संगम

जौनपुर की मिट्टी से लेकर राजस्थान की तपती रेत तक, भारत के लगभग हर भौगोलिक क्षेत्र में चींटियाँ अपने अस्तित्व की गहरी छाप छोड़ती हैं। ये छोटे-से जीव अकेले नहीं, बल्कि सुव्यवस्थित समाज में रहकर कार्य करती हैं और पर्यावरणीय संतुलन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। खेतों की उर्वरता बढ़ाने से लेकर मृत कीटों और जैविक अपशिष्ट का अपघटन कर मिट्टी को पोषक तत्वों से समृद्ध बनाने तक, चींटियाँ प्रकृति के कई अदृश्य कार्यभार को निभाती हैं। वे बीजों को फैलाकर वनस्पतियों की पुनरुत्पत्ति में सहायता करती हैं और मिट्टी को खोदकर उसमें हवा और जल का प्रवेश सरल बनाती हैं। इनकी सुरंगें और दीर्घाएँ प्राकृतिक वातन और जल प्रवाह को संतुलित रखने में योगदान देती हैं। इतना ही नहीं, चींटियाँ कीट नियंत्रण और जैव विविधता के संरक्षण में भी सहायक होती हैं। इनकी सामाजिक संरचना, कार्य विभाजन और अनुशासन आज के वैज्ञानिकों के लिए भी प्रेरणा का विषय है। यही कारण है कि पारिस्थितिकीविद, कृषि वैज्ञानिक, और पर्यावरण संरक्षक अब इन्हें मात्र कीट नहीं, बल्कि "प्राकृतिक इंजीनियर" की संज्ञा देने लगे हैं।

इस लेख में हम जानेंगे कि चींटियाँ किस प्रकार पृथ्वी के लगभग हर भाग में जीवित रहकर पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल बनी रहती हैं। फिर हम देखेंगे कि पारिस्थितिक तंत्र में उनकी भूमिकाएँ कितनी विविध और महत्वपूर्ण हैं। इसके बाद, चींटियों के कृषि एवं वानिकी में जैविक योगदान और उनके द्वारा मिट्टी तथा बीजों पर किए गए कार्यों को विस्तार से समझेंगे। साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चींटियों की जैविक महत्ता और भारत में पाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों पर भी चर्चा करेंगे।

चींटियों की वैश्विक उपस्थिति और पारिस्थितिक अनुकूलन क्षमता

चींटियाँ पृथ्वी के लगभग हर भू-भाग पर पाई जाती हैं — केवल अंटार्कटिका और कुछ दूरवर्ती द्वीप ही अपवाद हैं। वे उष्णकटिबंधीय वनों से लेकर शुष्क रेगिस्तानों तक सभी जगह अपने सामूहिक जीवन के कारण फलती-फूलती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, चींटियाँ स्थलीय पशु बायोमास का लगभग 15% से 25% हिस्सा होती हैं, जो यह दर्शाता है कि इनकी उपस्थिति मात्र संख्यात्मक नहीं, बल्कि पारिस्थितिकीय दृष्टि से भी गहन है। इनकी सामाजिक संरचना, श्रम विभाजन, घोंसलों का निर्माण और भोजन खोजने की रणनीतियाँ इन्हें अन्य कीटों से अलग बनाती हैं। यही विशेषताएँ इन्हें हर प्रकार के वातावरण में सफलतापूर्वक निवास करने में सक्षम बनाती हैं। इनके कॉलोनियाँ वर्षों तक बनी रहती हैं और अपने आस-पास के पारिस्थितिक ढाँचे को प्रभावित करती हैं।

पारिस्थितिक तंत्र में चींटियों की बहुआयामी भूमिका

चींटियाँ पारिस्थितिक तंत्र में अपघटक, शिकारी, और वितरक जैसे कई कार्य करती हैं। वे मृत कीटों, जानवरों और जैविक अपशिष्ट को खाते हुए अपघटन की प्रक्रिया को तीव्र करती हैं जिससे पोषक तत्व पुनः मिट्टी में मिलते हैं। इससे भूमि उपजाऊ बनी रहती है। साथ ही, कुछ प्रजातियाँ हानिकारक कीटों का शिकार करके प्राकृतिक कीट नियंत्रण में योगदान देती हैं। मिट्टी में चलते हुए वे उसे खोदती हैं, जिससे उसमें हवा का संचार होता है और जल धारण क्षमता बढ़ती है। बीजों को अपने घोंसलों में ले जाकर उनका प्रसार भी करती हैं, जिससे विभिन्न पौधों की वंशवृद्धि होती है। इनके इस योगदान को पारिस्थितिकीय 'साइलेंट इंजीनियरिंग' भी कहा जाता है। यही नहीं, कई चींटियाँ परागण प्रक्रिया में भी अप्रत्यक्ष भूमिका निभाती हैं। उनकी गतिविधियाँ पारिस्थितिक चक्रों — जैसे पोषण चक्र, जल चक्र, और ऊर्जा चक्र — को बनाए रखने में अहम होती हैं। वे कई अन्य जीवों के लिए भी भोजन का स्रोत हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला बनी रहती है। कुछ चींटियाँ अपने क्षेत्र में आक्रामक प्रजातियों को नियंत्रित करती हैं, जिससे जैव विविधता सुरक्षित रहती है।

कृषि और वानिकी में चींटियों का जैविक योगदान

चींटियों का कृषि में प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। दक्षिणी चीन में सिट्रस की खेती में ओएकोफाइला स्मैरेग्डिना (Oecophylla smaragdina) नामक बुनकर चींटियों का प्रयोग जैविक कीट नियंत्रण के लिए किया गया था, जो विश्व का एक प्राचीनतम जैविक नियंत्रण उपाय माना जाता है। ये चींटियाँ हानिकारक कीड़ों को खेत से दूर रखने में सक्षम होती हैं, जिससे रसायनों की आवश्यकता कम हो जाती है। वहीं दूसरी ओर, वनों में पाई जाने वाली बढ़ई चींटियाँ (Carpenter ants) मृत या सड़ी-गली लकड़ी में सुरंग बनाती हैं, जिससे वह लकड़ी जल्दी विघटित होती है। उनके जाने के बाद कवक और जीवाणु उसमें घर बनाते हैं और लिग्निन तथा सेलुलोज़ को तोड़कर जैविक चक्र को पूरा करते हैं। यह वनों में पोषण पुनर्चक्रण की एक अनिवार्य कड़ी बन जाती है। भारत के कई जैविक किसान अब खेतों में कीटनाशकों के स्थान पर चींटियों का उपयोग कर रहे हैं। 

विशेषकर बागवानी में इनका उपयोग काफी बढ़ा है, क्योंकि ये फलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों को नियंत्रण में रखती हैं। वन विभाग भी कई बार वनों में जैव विविधता बनाए रखने हेतु चींटियों के प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करते हैं। ये प्रयास जंगलों में रोगग्रस्त पेड़ों के प्रसार को रोकने में सहायक होते हैं। इस प्रकार चींटियाँ कृषि और वानिकी दोनों में 'सहायक जीव' की भूमिका निभा रही हैं। चींटियाँ मिट्टी को चीरकर उसकी सतह पर छोटे-छोटे कण लाती हैं, जिससे मिट्टी में भौतिक परिवर्तन होता है। इससे उसमें जलधारण, वायुसंचार और सूक्ष्मजीवों की गतिविधि बेहतर होती है। कृषि वैज्ञानिक इसे एक प्रकार का 'प्राकृतिक जुताई' कहते हैं। इसके अतिरिक्त, चींटियाँ बीजों को अपने घोंसलों में ले जाती हैं क्योंकि उनमें उपस्थित इलायोसोम नामक पौष्टिक पदार्थ उन्हें आकर्षित करता है। बीजों को सुरक्षित स्थान पर ले जाकर वे उन्हें फैलाती हैं और कई बार वे वहीं अंकुरित भी हो जाते हैं।

भारत में पाई जाने वाली प्रमुख चींटी प्रजातियाँ

भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली चींटी प्रजातियाँ न केवल संख्या में अधिक हैं, बल्कि पारिस्थितिक तंत्र में भी इनकी भूमिकाएँ अत्यंत विविध और महत्वपूर्ण हैं। इन प्रजातियों के अध्ययन से हमें पर्यावरणीय संतुलन, कृषि जैविक नियंत्रण और जैव विविधता के संरक्षण में सहायता मिलती है। नीचे कुछ प्रमुख भारतीय चींटी प्रजातियाँ दी गई हैं:

  • मेरानोप्लस बाइकलर (Meranoplus bicolor) — यह प्रजाति भारत के अधिकांश भागों में पाई जाती है और बगीचों, खेतों व झाड़ियों के पास अक्सर देखी जाती है। यह छोटी लेकिन सामूहिक जीवनशैली अपनाने वाली चींटी है, जो जैव अपशिष्टों के निपटान में सहायक होती है।
  • ओकोफाइला स्मैरेग्डिना (Oecophylla smaragdina) — इसे बुनकर चींटी कहा जाता है क्योंकि यह पत्तों को रेशों से जोड़कर घोंसला बनाती है। यह जैविक कीट नियंत्रण में विशेष योगदान देती है और दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर राज्यों में प्रचुरता से मिलती है।
  • अनोप्लोप्लिपिस ग्रैसिलिपिस (Anoplolepis gracilipes) — यह तेज़ी से फैलने वाली और आक्रामक स्वभाव वाली चींटी है जिसे "विनाशकारी चींटी" भी कहा जाता है। यह अन्य प्रजातियों को विस्थापित कर देती है और जैव विविधता के लिए चुनौती बन सकती है।
  • एफीनोगैस्टर बेक्कैरी (Aphaenogaster beccarii) — यह प्रजाति विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है और बीज फैलाव (मायरमिकोकरी) की प्रक्रिया में भागीदार होती है। यह मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने में भी सहायक मानी जाती है।
  • क्रेमैटोगैस्टर रोथ्नेयी (Crematogaster rothneyi) — यह चींटी पेड़ों की छाल, दीवारों की दरारों या लकड़ी के खोखलों में अपने घोंसले बनाती है। यह अपनी सुरक्षात्मक ग्रंथियों से दुश्मनों को गंध द्वारा भगाने में सक्षम होती है।

 

संदर्भ-

https://tinyurl.com/rnt3p3x7 

https://tinyurl.com/mw25fppn 

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