हरे समुद्री कछुए: समुद्री संतुलन के रक्षक और भारत में उनके संरक्षण की ज़रूरत

सरीसृप
04-09-2025 09:17 AM
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हरे समुद्री कछुए: समुद्री संतुलन के रक्षक और भारत में उनके संरक्षण की ज़रूरत

क्या आप जानते हैं कि समुद्र की गहराइयों में एक ऐसा प्राचीन जीव मौजूद है, जिसकी मौजूदगी पूरे समुद्री पर्यावरण को संतुलन में रखती है, और जिसकी संख्या आज गंभीर खतरे में है? हम बात कर रहे हैं हरे समुद्री कछुए की, जो न केवल समुद्री घास के मैदानों को स्वस्थ बनाए रखते हैं, बल्कि कई समुद्री प्रजातियों की खाद्य श्रृंखला का भी आधार हैं। हालांकि जौनपुर एक तटीय जिला नहीं है, फिर भी यहाँ के नागरिकों की भूमिका समुद्री जैव विविधता के संरक्षण में अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है, चाहे वह जागरूकता फैलाना हो या संरक्षण प्रयासों का समर्थन करना। आज जब पर्यावरणीय असंतुलन और जैव विविधता का ह्रास राष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुका है, तो यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि समुद्र से दूर रहकर भी हम इन संवेदनशील प्रजातियों के संरक्षण में कैसे भागीदार बन सकते हैं। 
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि हरे समुद्री कछुए वास्तव में कौन होते हैं, उनका शरीर कैसा होता है और उनका वैज्ञानिक वर्गीकरण क्या है। इसके बाद हम समझेंगे कि उनके व्यवहार, आहार और जीवनचक्र की विशेषताएं क्या हैं। फिर हम चर्चा करेंगे कि ये कछुए किन क्षेत्रों में पाए जाते हैं और उनका प्राकृतिक निवास स्थान कैसा होता है। इसके बाद हम जानेंगे कि समुद्री पारिस्थितिकी में इनका क्या महत्व है और ये जैव विविधता को कैसे संतुलित करते हैं। अंत में, हम भारत में इनके संरक्षण के लिए चल रही योजनाओं और प्रयासों पर एक विस्तृत नज़र डालेंगे।

हरे समुद्री कछुए: आकार, बाह्य संरचना और वैज्ञानिक वर्गीकरण
हरे समुद्री कछुए (चेलोनिया मायडास - Chelonia mydas) कठोर खोल वाले समुद्री कछुओं में सबसे बड़े माने जाते हैं। ये टेस्टुडाइन्स (Testudines) गण और चेलोनीडे (Cheloniidae) कुल के सदस्य हैं। वयस्क कछुओं की लंबाई लगभग 1 मीटर से 1.2 मीटर तक होती है और उनका वज़न औसतन 130 से 180 किलोग्राम तक पहुँच सकता है। इनके नाम में “हरा” शब्द इनके मांसपेशियों के हरे रंग के कारण आया है, न कि बाहरी खोल के रंग के कारण। इनका कैरापेस (Carapace - ऊपरी खोल) चिकना और अर्धवृत्ताकार होता है, जो भूरे से जैतूनी हरे रंग के सुंदर पैटर्न (pattern) से ढका रहता है। निचला भाग, जिसे प्लैस्ट्रॉन (Plastron) कहा जाता है, हल्के पीले से सफेद रंग का होता है। इनके शरीर पर मौजूद शल्क (स्कूट्स - Scutes) इनकी पहचान का एक विशेष संकेत होते हैं। सिर चपटा और छोटा होता है, और चोंच दंतुरित होती है, जो समुद्री घास को चरने में सहायक बनाती है। आँखों के बीच दो बड़े शल्क इन्हें अन्य समुद्री कछुओं से अलग बनाते हैं। इनकी संरचना समुद्री जीवन के अनुकूल अत्यंत विकसित और कुशल होती है।

व्यवहार, आहार और जीवन चक्र
हरे समुद्री कछुए अत्यधिक प्रवासी जीव हैं और इनका जीवन समुद्र और तट दोनों पर बँटा होता है। ये सरीसृप (रेप्टाइल्स - Reptiles) हैं, इसलिए इन्हें सांस लेने के लिए समय-समय पर सतह पर आना पड़ता है। इनका जीवनचक्र अंडों से शुरू होता है, जिन्हें मादा कछुए रेत में गड्ढा खोदकर समुद्र तट पर जमा करती हैं। प्रत्येक घोंसले में लगभग 100 से 110 अंडे होते हैं, और एक मादा एक मौसम में कई बार अंडे दे सकती है। अंडों से बच्चे लगभग 50 से 70 दिनों में निकलते हैं और तुरंत समुद्र की ओर दौड़ पड़ते हैं। प्रारंभिक वर्षों में ये खुले समुद्र में रहते हैं, जहाँ वे शिकारी मछलियों और समुद्री पक्षियों से बचते हुए जीवित रहने की कोशिश करते हैं। किशोरावस्था में पहुँचने पर वे उथले तटीय क्षेत्रों में लौट आते हैं। आहार की दृष्टि से इनका व्यवहार उम्र के अनुसार बदलता है। नवजात और किशोर अवस्था में ये कभी-कभार मांसाहारी व्यवहार भी दिखाते हैं, जैसे जेलिफ़िश (jellyfish), केकड़े और मोलस्क (mollusk) खाना। लेकिन व्यस्क हरे कछुए मुख्यतः शाकाहारी होते हैं और समुद्री घास (Seagrass) तथा शैवाल पर निर्भर रहते हैं। यह आहार न केवल उन्हें पोषण देता है बल्कि समुद्री पारिस्थितिकी को भी संतुलित रखने में मदद करता है। इनकी जीवन प्रत्याशा औसतन 70 से 80 वर्ष होती है, और कुछ मामलों में ये 100 वर्ष तक भी जीवित रह सकते हैं।

समुद्री पारिस्थितिकी और खाद्य श्रृंखला में इनकी भूमिका 
हरे समुद्री कछुए केवल एक समुद्री जीव नहीं हैं, बल्कि समुद्र के जटिल पारिस्थितिक तंत्र के एक प्रमुख कड़ी हैं। इनका चराई व्यवहार समुद्री घास के मैदानों को साफ और संतुलित बनाए रखता है। यदि इनका चराई व्यवहार न हो, तो समुद्री घास बहुत घनी होकर सड़ने लगती है, जिससे ऑक्सीजन (oxygen) की कमी और अन्य जलीय जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। ये समुद्री घास को नियमित रूप से खाते हैं, जिससे वह दोबारा तेज़ी से उगती है और अन्य जीवों को आश्रय व पोषण प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त, जब मादा कछुए अंडे देती हैं, तो सभी अंडे अंडाणु नहीं बन पाते। कुछ अंडे बर्बाद हो जाते हैं या घोंसले में ही खराब हो जाते हैं। ऐसे अंडे और अंडों के खोल तटीय पौधों को प्राकृतिक खाद के रूप में पोषण प्रदान करते हैं। वहीं, इनके नवजात बच्चे अनेक समुद्री पक्षियों, मछलियों और स्तनधारियों के लिए भोजन का स्रोत बनते हैं, जिससे समुद्री खाद्य श्रृंखला में संतुलन बना रहता है। स्पंज (sponge) और शैवाल खाने से ये प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ़्स - Coral Reefs) को अत्यधिक आवरण से मुक्त करते हैं, जिससे प्रवालों को सांस लेने और बढ़ने में सहायता मिलती है। इस तरह हरे कछुए जैव विविधता को बनाए रखने और पारिस्थितिकीय संतुलन में एक ‘क्लीनर’ (cleaner) की भूमिका निभाते हैं।

भारत में हरे समुद्री कछुओं की उपस्थिति और वितरण
भारत की तटीय पट्टी, विशेषकर पूर्वी और पश्चिमी समुद्र तटों पर, हरे समुद्री कछुए अच्छी संख्या में देखे जाते हैं। इनकी उपस्थिति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, ओडिशा, गोवा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के समुद्री तटों पर विशेष रूप से दर्ज की गई है। महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले में देवगढ़, मालवण और तारकर्ली जैसे समुद्र तट हरे समुद्री कछुओं के घोंसले बनाने के लिए उपयुक्त स्थल बनते जा रहे हैं। मार्च 2022 में तारकर्ली समुद्र तट पर 77 अंडों में से 74 बच्चों का सफलतापूर्वक जन्म संरक्षण प्रयासों की सफलता का प्रतीक है। इसी प्रकार, जनवरी 2022 में वर्ली तट पर एक किशोर कछुए को मछुआरों द्वारा बचाकर समुद्र में वापस छोड़ा गया। यह दर्शाता है कि जनसहभागिता भी इनके संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। भारत के कुछ समुद्र तट जैसे ओडिशा के गहिरमाथा समुद्र तट और आंध्र प्रदेश का पुलिकट झील क्षेत्र इन कछुओं के प्रजनन स्थल के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हैं। ये कछुए प्रवासी होते हैं, और प्रजनन काल में हजारों किलोमीटर की यात्रा करके उसी समुद्र तट पर लौटते हैं, जहाँ उनका जन्म हुआ था। यह प्रवृत्ति उन्हें ‘नैविगेशनल चमत्कार’ बनाती है। समुद्री शैवाल और समुद्री घास की प्रचुरता वाले क्षेत्रों में इनकी उपस्थिति अधिक देखी जाती है।

संरक्षण प्रयास: भारतीय और वैश्विक पहलें
हरे समुद्री कछुए वर्तमान में अनेक खतरों का सामना कर रहे हैं, जैसे तटीय प्रदूषण, प्लास्टिक निगलना, अंधाधुंध मछली पकड़ना, रेत खनन, और समुद्र तटों पर रोशनी का बढ़ता हस्तक्षेप। इन्हीं खतरों के कारण आईयूसीएन (IUCN) ने इन्हें “लुप्तप्राय” की श्रेणी में रखा है। भारत सरकार ने इन्हें वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची I में रखा है, जिससे इनका शिकार पूर्णतः प्रतिबंधित है। संरक्षण के लिए 1999 में भारत सरकार और यूएनडीपी (UNDP) द्वारा 'समुद्री कछुआ परियोजना' की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य इनके प्रजनन स्थलों की सुरक्षा और निगरानी करना है। इसके अंतर्गत ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र में संरक्षण केंद्र बनाए गए हैं। इसके साथ ही, केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्य योजना’ तैयार की है, जो राज्यों के साथ समन्वय बनाकर कार्य करती है। स्थानीय स्तर पर भी अनेक गैर-सरकारी संगठन जैसे 'सह्याद्रि निसर्ग मित्र' कछुओं के अंडों की सुरक्षा, घोंसले बनाने में सहायता और नवजात बच्चों को समुद्र तक सुरक्षित पहुँचाने जैसे कार्य कर रहे हैं। 'कोंकण कछुआ महोत्सव' जैसे आयोजन जनजागृति बढ़ाने में सहायक बन रहे हैं। वैश्विक स्तर पर साइट्स (CITES), सीएमएस (CMS) और इंडियन ओशन - साउथ ईस्ट एशिया (Indian Ocean - South East Asia) एम ओ यू (MoU) जैसे समझौते इनकी सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय ढांचा तैयार करते हैं।

संदर्भ-

https://shorturl.at/U06nm