जब खेतों में आई हरियाली की लहर: जौनपुर से देखें हरित क्रांति की कहानी

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जब खेतों में आई हरियाली की लहर: जौनपुर से देखें हरित क्रांति की कहानी

जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी गौर किया है कि आज हमारे घरों में चावल और गेहूं की कोई कमी नहीं होती, जबकि एक समय था जब भारत को विदेशों से अनाज मंगवाना पड़ता था? 1960 के दशक में देश गंभीर खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था, एक ओर तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या, दूसरी ओर पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ जो उस ज़रूरत को पूरा करने में सक्षम नहीं थीं। ऐसे समय में देश को एक ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता थी जो हमारी कृषि व्यवस्था को पूरी तरह से बदल दे। और यहीं से शुरुआत हुई हरित क्रांति की, एक ऐसी वैज्ञानिक पहल जिसने भारतीय खेती को आधुनिकता की दिशा में मोड़ दिया। इस लेख में हम जानेंगे कि इस हरित क्रांति ने कैसे खेतों की पैदावार को कई गुना बढ़ाया, किसानों की आमदनी में सुधार किया और भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया, जिससे जौनपुर जैसे ज़िलों में भी धीरे-धीरे इसकी झलक देखने को मिली। 
इस लेख में हम जानेंगे कि हरित क्रांति की ज़रूरत भारत को क्यों और कैसे पड़ी और उस समय की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी। फिर हम जानेंगे उन वैज्ञानिकों और संस्थानों के बारे में जिन्होंने इसकी नींव रखी, जैसे नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug), एम.एस. स्वामीनाथन और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान। इसके बाद, हम हरित क्रांति की प्रमुख तकनीकी विशेषताओं पर चर्चा करेंगे, जैसे  एचवाईवी (HYV) बीज, सिंचाई, उर्वरक और ट्रैक्टर जैसी मशीनों का उपयोग। अंत में, हम देखेंगे कि भारत में हरित क्रांति कैसे दो चरणों में फैली और इसका विस्तार किन-किन राज्यों और फसलों तक हुआ।

भारत में हरित क्रांति की पृष्ठभूमि और आवश्यकता
1960 के दशक का भारत गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा था। एक तरफ जनसंख्या विस्फोट की गति बढ़ती जा रही थी, तो दूसरी ओर कृषि उत्पादन ठहराव की स्थिति में था। अक्सर अकाल पड़ते थे, और भारत को विदेशों से अनाज मंगवाना पड़ता था, जिससे न केवल अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ता, बल्कि आत्मनिर्भरता की भावना भी प्रभावित होती थी। सरकार और नीति-निर्माताओं को यह स्पष्ट हो चुका था कि यदि जल्द कुछ नहीं किया गया, तो देश को व्यापक भुखमरी झेलनी पड़ सकती है। ऐसे में पारंपरिक खेती के तरीकों की सीमाएँ उजागर हो चुकी थीं, और आवश्यकता थी आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाने की, जैसे अधिक उपज देने वाली किस्में (HYV), सिंचाई के स्थायी साधन, उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग और आधुनिक कृषि उपकरण। इन्हीं उपायों से शुरू हुआ था वह ऐतिहासिक परिवर्तन, जिसे हम आज "हरित क्रांति" के नाम से जानते हैं।

हरित क्रांति के प्रमुख वैज्ञानिक और संस्थान
हरित क्रांति की नींव केवल नीतियों या तकनीकों से नहीं, बल्कि दूरदर्शी वैज्ञानिकों की मेहनत से भी पड़ी। अमेरिका के नॉर्मन बोरलॉग ने गेहूं की ऐसी प्रजातियाँ विकसित कीं, जो अधिक उपज देती थीं, रोग प्रतिरोधी थीं और कम समय में पकती थीं। उनके इस कार्य को वैश्विक सराहना मिली और उन्हें 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) से सम्मानित किया गया। भारत में, डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने इस तकनीक को अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने किसानों को प्रशिक्षित किया, बीजों की गुणवत्ता सुनिश्चित की, और सरकार के साथ मिलकर योजनाएँ बनाईं। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), जिसे पूसा संस्थान के नाम से जाना जाता है, ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। संस्थान ने न केवल एचवाईवी बीजों का परीक्षण और सुधार किया, बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान, किसान प्रशिक्षण और कृषि विस्तार सेवाओं के ज़रिए पूरे आंदोलन को धरातल पर उतारा।

हरित क्रांति की मुख्य तकनीकी विशेषताएँ
हरित क्रांति का सबसे बड़ा योगदान था, तकनीकी नवाचारों का भारतीय खेतों तक पहुँचना। एचवाईवी बीजों ने परंपरागत फसलों की तुलना में दो से तीन गुना अधिक उत्पादन दिया। लेकिन ये बीज पानी, उर्वरक और नियंत्रणित माहौल की अधिक माँग करते थे। इसीलिए ट्यूबवेल (tube well), नहरें और स्प्रिंकलर (sprinkler) जैसी सिंचाई प्रणालियाँ विकसित की गईं। साथ ही, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का नियंत्रित प्रयोग फसल को पोषण देने और रोगों से बचाने में सहायक बना। ट्रैक्टर (Tractor), थ्रेशर (Thresher), पंप (Pump) और हार्वेस्टर (Harvester) जैसी यंत्रीकृत मशीनों ने खेती को गति और कुशलता प्रदान की। भूमि समेकन और सुधार जैसे कदमों ने किसानों को अधिक स्वतंत्रता और नियंत्रण दिया, जिससे वे जोखिम उठाने और नई तकनीकों को अपनाने में अधिक सक्षम हो सके।

हरित क्रांति के सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य
हरित क्रांति का मूल उद्देश्य केवल उत्पादन बढ़ाना नहीं था, बल्कि इसके ज़रिए समाज के हर स्तर तक सकारात्मक परिवर्तन पहुँचाना था। यह योजना ग्रामीण क्षेत्र के विकास का आधार बनी। जैसे-जैसे खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे रोजगार के अवसर भी बढ़े, खेतों में अधिक मज़दूरों की ज़रूरत पड़ी, खाद, बीज और कृषि यंत्रों का व्यापार बढ़ा, और इससे जुड़ी सेवाओं का विस्तार हुआ। हरित क्रांति ने आत्मनिर्भरता को मज़बूत किया, भारत खाद्यान्न आयातक से निर्यातक बनने की दिशा में बढ़ा। इसके अलावा, सरकार का एक और उद्देश्य था कि एचवाईवी किस्मों के ज़रिए ऐसी फसलें तैयार की जाएं जो कठोर मौसम या सूखा झेल सकें, जिससे कृषि आपदाओं के प्रति कमज़ोर न रहे। यह एक सामाजिक क्रांति भी थी, जिसने गाँवों में आर्थिक सशक्तिकरण की नींव रखी।

भारत में हरित क्रांति के दो चरण और विस्तार
हरित क्रांति की प्रक्रिया पूरे देश में एक साथ नहीं फैली, बल्कि इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया गया। पहले चरण (1965–1975) में केवल उन राज्यों को चुना गया जहाँ सिंचाई की बेहतर व्यवस्था थी, जैसे पंजाब, हरियाणा और तमिलनाडु। यहां पर गेहूं को प्राथमिकता दी गई और इसका उत्पादन अभूतपूर्व रूप से बढ़ा। दूसरे चरण (1975–1985) में इस योजना को अन्य राज्यों और फसलों तक फैलाया गया - अब धान, मक्का, ज्वार जैसी फसलें भी शामिल की गईं और पूर्वी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार आदि क्षेत्रों में भी एचवाईवी तकनीक को बढ़ावा मिला। धीरे-धीरे हरित क्रांति एक सीमित भूभाग की योजना से निकलकर एक राष्ट्रीय कृषि अभियान बन गई, जिसने भारत को खाद्यान्न संकट से उबार कर आत्मनिर्भरता के मार्ग पर अग्रसर किया।

संदर्भ-

https://shorturl.at/VrcXk