गुप्तकालीन मंदिर वास्तुकला: भारत की प्राचीन आस्था और कला का स्वर्ण युग

धर्म का उदयः 600 ईसापूर्व से 300 ईस्वी तक
10-09-2025 09:25 AM
गुप्तकालीन मंदिर वास्तुकला: भारत की प्राचीन आस्था और कला का स्वर्ण युग

भारत की धरती पर मंदिर केवल ईंट-पत्थर से बने स्थिर ढांचे नहीं हैं, बल्कि यह हमारी आस्था, संस्कृति, कला और इतिहास की जीवित धरोहर हैं। ये वह स्थान हैं जहाँ पीढ़ियों से चली आ रही पूजा-पद्धति, धार्मिक अनुष्ठान और सामाजिक मेल-मिलाप का संगम होता रहा है। प्राचीन काल में मंदिर केवल देव-प्रतिमाओं की स्थापना के लिए नहीं, बल्कि शिक्षा, संगीत, नृत्य, कला और सामुदायिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में भी कार्य करते थे। इनमें गुप्तकाल (तीसरी-छठी शताब्दी ईस्वी) को विशेष महत्व प्राप्त है, क्योंकि इसी काल में भारतीय मंदिर वास्तुकला ने संगठित और स्थायी रूप लेना शुरू किया। इस युग के मंदिरों में ईंट और पत्थर का संतुलित प्रयोग, सुस्पष्ट योजना, और कलात्मक नक्काशी देखने को मिलती है, जिसमें सादगी के साथ-साथ आध्यात्मिक भव्यता का अनूठा मेल है। गुप्तकाल के ये स्थापत्य नमूने आज भी न केवल इतिहासकारों और कला-विशेषज्ञों को आकर्षित करते हैं, बल्कि आम जनमानस के लिए गर्व और प्रेरणा का स्रोत भी बने हुए हैं।
आज हम इस लेख में गुप्तकाल और उससे जुड़ी मंदिर निर्माण की परंपरा को चरणबद्ध तरीके से समझेंगे। सबसे पहले हम देखेंगे कि भारत में मंदिर वास्तुकला की शुरुआत कैसे हुई और गुप्तकाल ने इसमें क्या योगदान दिया। फिर हम जानेंगे सांची 17 के बारे में, जिसे भारत का सबसे पुराना जीवित मंदिर माना जाता है। इसके बाद हम अन्य प्रमुख गुप्तकालीन और वाकाटक शैली के मंदिरों जैसे रामटेक केवला नरसिंह, देवगढ़ का दशावतार, भीतरगाँव और भुमरा शिव मंदिर की विशेषताएं समझेंगे। आगे हम मुंडेश्वरी देवी मंदिर पर नज़र डालेंगे, जिसे भारत का सबसे प्राचीन कार्यशील हिंदू मंदिर कहा जाता है। फिर हम स्थापत्य शैलियों और कला-सौंदर्य के पहलुओं का विश्लेषण करेंगे, और अंत में संरक्षण प्रयासों व इन मंदिरों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व पर चर्चा करेंगे।

सांची स्तूप, मध्य प्रदेश

भारत में मंदिर निर्माण की प्राचीन परंपरा और गुप्तकाल का महत्व
भारत में मंदिर निर्माण की जड़ें वैदिक काल में देखी जा सकती हैं, जब पूजा-अर्चना मुख्यतः यज्ञ वेदियों और अस्थायी मण्डपों में होती थी। उस समय संरचनाएं अस्थायी सामग्री - लकड़ी, मिट्टी और घास-फूस से बनती थीं। लेकिन गुप्तकाल (तीसरी-छठी शताब्दी ईस्वी) में मंदिर वास्तुकला ने स्थायित्व और कलात्मकता का नया युग देखा। यह वह दौर था जब ईंट और पत्थर का प्रयोग एक साथ किया जाने लगा, जिससे मंदिर न केवल टिकाऊ बने, बल्कि उनमें सौंदर्य और अनुपात का अद्भुत संगम दिखा। गुप्तकाल को "भारत का स्वर्ण युग" और "शास्त्रीय युग" दोनों कहा जाता है, क्योंकि इस समय धर्म, कला, मूर्तिकला, और स्थापत्य सभी में अभूतपूर्व विकास हुआ। मंदिर अब केवल पूजा के स्थल नहीं रहे, बल्कि वे संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक मेलजोल के केंद्र भी बन गए।

सांची स्तूप, मध्य प्रदेश

सांची 17 – भारत का सबसे पुराना जीवित मंदिर
मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित सांची विश्वभर में बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन यहाँ का मंदिर संख्या 17 एक अलग ही महत्व रखता है। यह भारत के सबसे पुराने जीवित मंदिरों में से एक माना जाता है, जिसका निर्माण गुप्तकाल के दौरान लगभग 5वीं शताब्दी में हुआ। इसकी संरचना साधारण किंतु संतुलित है, एक गर्भगृह और उसके सामने एक छोटा-सा मंडप, दोनों को पत्थर के स्तंभों का सहारा मिला है। यह मूलतः एक बौद्ध मंदिर था, जो अपनी सादगी और अनुपात के कारण वास्तुकला के विद्यार्थियों और इतिहासकारों के लिए अध्ययन का आदर्श उदाहरण है। इस मंदिर में किसी प्रकार का अत्यधिक अलंकरण नहीं है, जो इसे और भी प्रामाणिक और प्राचीन रूप देता है।

गुप्तकालीन एवं वाकाटक शैली के अन्य प्रमुख मंदिर
गुप्त और वाकाटक वंशों के दौर में मंदिर निर्माण पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गया। इस काल के मंदिरों में संरचना की विविधता, स्थानीय कलात्मक प्रभाव और धार्मिक प्रतीकों का अद्भुत संयोजन देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के रामटेक का केवला नरसिंह मंदिर अपनी अनोखी मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश के देवगढ़ में स्थित दशावतार मंदिर, विष्णु के विभिन्न अवतारों को दर्शाने वाली अद्वितीय नक्काशियों के लिए जाना जाता है। कानपुर के भीतरगाँव का मंदिर पूरी तरह कच्ची ईंटों से बना होने के कारण विशेष है, जबकि मध्य प्रदेश के भुमरा शिव मंदिर में दुर्लभ शिलालेख और अद्भुत शिवलिंग देखने को मिलता है। ये सभी मंदिर अपने-अपने समय और स्थान की सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक उत्साह को दर्शाते हैं।

मुंडेश्वरी देवी मंदिर, बिहार

मुंडेश्वरी देवी मंदिर – भारत का सबसे प्राचीन कार्यशील हिंदू मंदिर
बिहार के कैमूर जिले की पहाड़ियों पर स्थित मुंडेश्वरी देवी मंदिर भारत का सबसे पुराना जीवित और कार्यशील हिंदू मंदिर माना जाता है। इसका निर्माण काल लगभग पहली से चौथी शताब्दी ईस्वी के बीच का माना जाता है, जिससे यह गुप्तकाल से भी पहले की धार्मिक निरंतरता को दर्शाता है। इस मंदिर की योजना अष्टकोणीय है, जो भारतीय मंदिर वास्तुकला में अत्यंत दुर्लभ है। यहाँ देवी मुंडेश्वरी और चतुर्मुख शिवलिंग की निरंतर पूजा होती है, जो सहस्राब्दियों से चली आ रही आस्था का प्रमाण है। हर वर्ष यहाँ नवरात्रि और महाशिवरात्रि पर हजारों श्रद्धालु आते हैं, जिससे यह स्थल केवल एक ऐतिहासिक धरोहर नहीं बल्कि जीवंत धार्मिक केंद्र भी है।

स्थापत्य शैलियां और कला-सौंदर्य
इन प्राचीन मंदिरों में गुप्तकालीन, वाकाटक और नागर स्थापत्य शैली का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। गर्भगृह, मंडप और शिखर की संरचना में सरलता और भव्यता का अद्भुत संतुलन है। मूर्तिकला में पौराणिक कथाओं, देवताओं और धार्मिक प्रतीकों को जीवंत रूप में उकेरा गया है। मंदिरों के प्रवेश द्वार की चौखटों पर फूलों, बेल-बूटों और आकृतियों की महीन नक्काशी, दीवारों पर अंकित शिलालेख, और देवमूर्तियों के भावपूर्ण चेहरे उस समय की शिल्पकला की श्रेष्ठता को प्रकट करते हैं। इन मंदिरों की कला केवल सजावट नहीं, बल्कि धार्मिक संदेश और सांस्कृतिक मूल्यों का दृश्य रूप है।

1892 की तस्वीर — गुप्त साम्राज्य काल के हिंदू मंदिर के खंडहर, एरण, बीना-सागर ज़िला, मध्य प्रदेश

संरक्षण प्रयास और धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व
इन प्राचीन मंदिरों का संरक्षण आज भी एक चुनौती और आवश्यकता दोनों है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा इन स्थलों की मरम्मत, सफाई और संरचनात्मक मजबूती के कार्य नियमित रूप से किए जाते हैं। साथ ही, स्थानीय समुदाय भी धार्मिक उत्सवों और मेलों के आयोजन के माध्यम से इन्हें जीवंत बनाए रखते हैं। तीर्थयात्रा और पर्यटन से स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल मिलता है, जबकि धार्मिक आयोजनों से सांस्कृतिक पहचान मजबूत होती है। ये मंदिर केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की सांस्कृतिक चेतना का आधार हैं।

संदर्भ- 

https://shorturl.at/GQPCQ 

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