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जौनपुर, गंगा और गोमती नदियों के दोआब में बसा एक ऐतिहासिक नगर है, जिसकी मिट्टी ने अनगिनत सभ्यताओं, राजवंशों और संस्कृतियों को पनपते और ढलते देखा है। यह शहर केवल एक भूगोलिक स्थान नहीं, बल्कि मध्यकालीन भारतीय इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। यहाँ की धरती ने न केवल युद्ध और सत्ता संघर्षों का साक्षात्कार किया, बल्कि ज्ञान, कला और स्थापत्य की ऐसी परंपरा विकसित की, जिसने इसे देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान दिलाई। यही कारण है कि 14वीं और 15वीं शताब्दी में इसे "भारत का शिराज़" कहा जाने लगा। यह उपाधि केवल नाम भर नहीं थी, बल्कि यहाँ के सांस्कृतिक उत्कर्ष, स्थापत्य वैभव और शैक्षिक वातावरण की वास्तविक झलक थी। इस नगर की सबसे भव्य और ऐतिहासिक धरोहरों में शाही किला एक अद्वितीय स्थान रखता है। गोमती नदी के किनारे स्थित यह किला केवल एक सैन्य दुर्ग भर नहीं, बल्कि शासकों की दृष्टि, कलात्मक रुचि और सांस्कृतिक समझ का उत्कृष्ट प्रतीक है। इसकी प्राचीरें आज भी सामरिक शक्ति की कहानी सुनाती हैं, तो भीतर की इमारतें स्थापत्य कला के अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। ऊँचे मेहराब, गहरे शिलालेख, मस्जिदों के गुंबद और विशाल आँगन - ये सब मिलकर उस युग के वैभव का प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं। शाही किला केवल अतीत का अवशेष नहीं, बल्कि वह दर्पण है जिसमें हम मध्ययुगीन जौनपुर के उत्कर्ष, शौर्य और सांस्कृतिक चेतना की छवि स्पष्ट देख सकते हैं।
आज हम जानेंगे कि शर्की राजवंश ने जौनपुर को स्थापत्य और संस्कृति के क्षेत्र में कैसे नई पहचान दी। इसके बाद, हम विस्तार से पढ़ेंगे कि शाही किले का निर्माण कब और किस उद्देश्य से हुआ तथा यह सत्ता और सैन्य दृष्टि से क्यों अहम था। फिर, हम किले की वास्तुकला की विशेषताओं - भव्य द्वार, हम्माम, भूलभुलैया, शिलालेख और मस्जिदों - को सरल भाषा में समझेंगे। अंत में, हम शाही पुल और उससे जुड़ी ऐतिहासिक धरोहरों के महत्व पर नज़र डालेंगे और देखेंगे कि ये आज भी जौनपुर की पहचान और पर्यटन का अभिन्न हिस्सा कैसे बने हुए हैं।
शर्की राजवंश और जौनपुर की स्थापत्य परंपरा
14वीं और 15वीं शताब्दी का दौर जौनपुर के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय माना जाता है। जब शर्की राजवंश का उदय हुआ, तब जौनपुर केवल एक प्रशासनिक केंद्र नहीं था, बल्कि कला, शिक्षा और स्थापत्य का गढ़ बन चुका था। शर्की शासक न सिर्फ कुशल सेनानी थे बल्कि कला और संस्कृति के बड़े संरक्षक भी थे। यही वजह है कि उस समय जौनपुर को "भारत का शिराज़" कहा जाने लगा। शर्की स्थापत्य शैली, फ़ारसी और भारतीय शिल्पकला के मेल से विकसित हुई। इसमें ऊँचे मेहराब, विशाल गुम्बद, जटिल नक्काशी और मजबूत संरचनाएँ शामिल थीं। अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद और शाही किला इसी शैली के ऐसे उदाहरण हैं जो आज भी पर्यटकों और इतिहासकारों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इन इमारतों की भव्यता देखकर यह सवाल उठना लाजमी है कि उस दौर में बिना किसी आधुनिक तकनीक या मशीनरी (machinery) के इतनी सुदृढ़ और कलात्मक संरचनाएँ कैसे बनाई गई होंगी। जौनपुर की धरती पर खड़े ये स्मारक उस समय की प्रतिभा, मेहनत और दृष्टिकोण का जीवंत प्रमाण हैं।
शाही किले का निर्माण और ऐतिहासिक महत्व
शाही किले का निर्माण 1362 ईस्वी में फिरोज शाह तुगलक के सेनापति इब्राहीम नायब बरबक द्वारा करवाया गया। गोमती नदी के किनारे इसकी स्थिति इस किले को सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बनाती थी। नदी का किनारा होने के कारण यह किला न केवल आक्रमणों से सुरक्षा देता था बल्कि व्यापार और आवागमन के लिए भी अहम साबित होता था। समय बीतने के साथ इस किले ने कई उतार-चढ़ाव देखे। ब्रिटिश (British) और लोधी शासकों ने कई बार इसे नुकसान पहुँचाया, लेकिन मुगलों के शासनकाल में इसका पुनर्निर्माण भी हुआ। इतिहासकारों का मानना है कि यह किला सिर्फ सत्ता का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सैन्य रणनीतियों का केंद्र भी था। इसकी दीवारें सदियों पुराने किस्सों को संजोए हुए हैं। जब कोई आज इसकी ओर देखता है, तो उसे लगता है जैसे पत्थरों की इन प्राचीरों के बीच इतिहास अब भी अपनी कहानियाँ फुसफुसा रहा हो।
किले की वास्तुकला और मुख्य संरचनाएँ
शाही किले की संरचना अपने आप में अनोखी है। इसका आकार अनियमित चतुर्भुज है, जो इसे प्राकृतिक भूगोल और सुरक्षा की दृष्टि से लाभकारी बनाता है। मुख्य द्वार लगभग 36 फीट ऊँचा है - इतना भव्य कि कोई भी प्रवेश करने वाला शासकों की शक्ति और वैभव का अनुभव किए बिना नहीं रह सकता। भीतरी द्वार 26.5 फीट ऊँचा और 16 फीट चौड़ा है, जो उस समय की स्थापत्य कुशलता का शानदार उदाहरण है। अकबर के समय मुनीम खान ने इस किले में नया प्रवेश द्वार और विशाल प्रांगण का निर्माण कराया। दीवारों में राख के पत्थरों का प्रयोग किया गया है, जिससे यह किला आज भी मजबूती से खड़ा है। अंदर प्रवेश करने पर तुर्की शैली का स्नानघर (हम्माम), रहस्यमयी भूलभुलैया और इब्राहीम बनबांक द्वारा निर्मित मस्जिद दिखाई देती है। यहाँ घूमते हुए ऐसा लगता है जैसे कोई व्यक्ति अचानक समय के उस दौर में पहुँच गया हो, जब यह किला सैनिकों की गूंज और दरबारियों की आवाज़ों से गूंजता था।
किले के भीतर मौजूद शिलालेख, मस्जिदें और स्मारक
किले के भीतर की संरचनाएँ अपने आप में इतिहास का जीवंत संग्रहालय हैं। यहाँ बनी मस्जिद, बंगाल शैली की झलक प्रस्तुत करती है। इसकी लंबाई लगभग 39 मीटर है और छत पर बने तीन विशाल गुम्बद दूर से ही इसकी पहचान कराते हैं। मस्जिद के पास 12 मीटर ऊँचा एक स्तंभ स्थित है, जिस पर फ़ारसी शिलालेख अंकित हैं। ये शिलालेख केवल शब्द नहीं, बल्कि उस समय की सामाजिक, धार्मिक और प्रशासनिक स्थितियों की झलक हैं। इनमें से कई जानकारी 1376 ईस्वी के मस्जिद निर्माण से जुड़ी हुई है, जिसे इब्राहीम नायब बरबक ने बनवाया था। इसके अलावा, किले के मुख्य द्वार के सामने रखा गया 1766 का शिलालेख उस समय के प्रशासनिक आदेशों और शाही घोषणाओं का साक्षी है। जब कोई इन्हें पढ़ता है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सदियाँ पुराना इतिहास सीधे उससे संवाद कर रहा हो।
शाही पुल और जौनपुर की समृद्ध धरोहर
शाही पुल, जिसे सुल्तान हुसैन शाह शर्की ने बनवाया था, गोमती नदी पर बना एक अद्भुत स्थापत्य चमत्कार है। यह पुल न केवल किले और शहर को जोड़ता था, बल्कि व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमुख मार्ग भी था। इस पुल की मजबूती और सुंदरता को देखकर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्यकालीन इंजीनियर (engineer) किस स्तर पर उन्नत थे। इसके मेहराब और स्तंभ आज भी गर्व से खड़े हैं। इस पुल ने सदियों तक जौनपुर की समृद्धि, व्यापार और सांस्कृतिक जुड़ाव को मजबूत बनाए रखा। शाही किला और शाही पुल, दोनों मिलकर जौनपुर की उस ऐतिहासिक पहचान को साकार करते हैं जो आज भी हमारे हृदय में जीवित है।
आज का शाही किला: संरक्षित धरोहर और पर्यटन आकर्षण
आज शाही किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अंतर्गत संरक्षित धरोहर है। जब कोई इसकी ऊँची प्राचीरों पर खड़ा होकर गोमती नदी और पूरे जौनपुर का नज़ारा देखता है, तो उसे ऐसा लगता है मानो किसी चित्रकार ने कैनवास पर एक अद्भुत चित्र उकेरा हो। यह किला आज भी शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों के लिए खजाना है। पर्यटक यहाँ आकर केवल स्थापत्य नहीं देखते, बल्कि जौनपुर की आत्मा और उसकी संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हैं। यही कारण है कि शाही किला आज भी उतना ही जीवंत है, जितना यह सदियों पहले था। यह केवल अतीत की याद नहीं, बल्कि जौनपुर की पहचान और गर्व का प्रतीक भी है।
संदर्भ-
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