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जौनपुरवासियो, दीपावली का पर्व आपके शहर की गलियों और घरों में एक विशेष रंगत लिए आता है। यहाँ केवल दीयों और रोशनी से घर सजाने की परंपरा ही नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और भाईचारे की एक अद्भुत मिसाल भी देखने को मिलती है। खासकर तब, जब जौनपुर की मुस्लिम महिलाएँ भी इस पर्व में अपनी भागीदारी निभाती हैं और पर्यावरण के अनुकूल दीपक बनाकर दीपावली को और खास बना देती हैं। जौनपुर की यही विशेषता इस त्यौहार को और भी अद्वितीय बना देती है, क्योंकि यहाँ दीपावली सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक मेलजोल और आत्मनिर्भरता का प्रतीक भी बन जाती है। इस तरह, जब दीपावली की रोशनी जौनपुर की गलियों में जगमगाती है, तो यह केवल उत्सव का नहीं बल्कि आपसी सहयोग और संस्कृति के गहरे रिश्तों का संदेश भी देती है।
इस लेख में हम दीपावली के महत्व और इसकी गहराई को समझेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि दीपावली का सांस्कृतिक और राष्ट्रीय महत्व क्या है और यह विविधता में एकता का प्रतीक कैसे बनती है। इसके बाद, हम जानेंगे कि प्राचीन ग्रंथों और साहित्य में दीपावली का किस तरह उल्लेख मिलता है। फिर, हम विदेशी यात्रियों की नज़र से दीपावली की छवि को देखेंगे और समझेंगे कि इस पर्व ने उन्हें कैसे प्रभावित किया। इसके अलावा, हम शिलालेखों और ऐतिहासिक स्रोतों में दर्ज दिवाली के उल्लेखों की चर्चा करेंगे। अंत में, हम विस्तार से जानेंगे कि जौनपुर में दीपावली किस तरह अपनी अनोखी पहचान बनाती है और पंचांग के आधार पर इसकी तिथि और परंपरा कैसे तय होती है।दीपावली का सांस्कृतिक और राष्ट्रीय महत्व
भारत की विविधता और समृद्ध परंपराओं में दीपावली का स्थान सबसे ऊपर है। यह केवल एक धार्मिक पर्व भर नहीं है, बल्कि जीवन में प्रकाश, ज्ञान और आशा का संदेश देने वाला उत्सव है। दीपावली हमें सिखाती है कि चाहे जीवन कितना भी कठिन क्यों न हो, अंधकार और निराशा के बाद हमेशा एक नई सुबह आती है। यही कारण है कि इसे अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व कहा जाता है। इस त्योहार की सबसे बड़ी खूबी है कि यह विविधता में एकता का प्रतीक है। भारत के हर राज्य और हर समुदाय इसे अपने-अपने तरीके से मनाता है - कहीं पटाखों और मिठाइयों के साथ, तो कहीं दीयों और रंगोलियों से घर-आंगन सजाकर। हिंदू धर्म के साथ-साथ जैन, सिख और बौद्ध समुदाय भी इस पर्व को पूरे उत्साह और भक्ति के साथ मनाते हैं। इस तरह दीपावली केवल एक धार्मिक अवसर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे देश को जोड़ने वाला राष्ट्रीय पर्व बन चुका है।
प्राचीन ग्रंथों और साहित्य में दीपावली का उल्लेख
दीपावली की प्राचीनता का अंदाजा हम प्राचीन धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से लगा सकते हैं। पद्म पुराण और स्कंद पुराण में दीपावली का उल्लेख मिलता है, जहाँ दीपकों को सूर्य का प्रतीक बताया गया है, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड के लिए ऊर्जा और जीवन का स्रोत है। सातवीं शताब्दी में महान सम्राट राजा हर्ष ने अपने संस्कृत नाटक “नागानंद” में दीपावली को दीप प्रतिपादोत्सव नाम से संबोधित किया। वहीं नौवीं शताब्दी में राजशेखर ने अपनी काव्य मीमांसा में इसे दीपमालिका कहा। इन दोनों संदर्भों से यह स्पष्ट होता है कि दीपावली केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं थी, बल्कि उस समय सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। इन साहित्यिक उल्लेखों से हमें यह भी समझ आता है कि दीपावली का इतिहास केवल आस्था ही नहीं, बल्कि कला और साहित्य में भी गहराई से रचा-बसा है।
विदेशी यात्रियों की नज़र से दीपावली
भारत की परंपराओं की भव्यता हमेशा से विदेशियों को आकर्षित करती रही है। 11वीं शताब्दी में आए महान इतिहासकार अल-बिरूनी ने अपने लेखों में दिवाली का जिक्र करते हुए लिखा कि हिंदू अमावस्या की रात को अपने घरों और मंदिरों को दीपों की रोशनी से जगमग कर देते हैं। 15वीं शताब्दी में निकोलो डी कोंटी (Nicolo de Conti) और 16वीं शताब्दी में डोमिंगो पेस (Domingo Paes) जैसे यात्री भारत आए और उन्होंने दिवाली को अपनी आँखों से देखा। उनके अनुसार, इस दिन मंदिरों और घरों की छतों पर अनगिनत दीप जलाए जाते थे, लोग नए वस्त्र पहनते, गाते, नृत्य करते और दावतें करते थे। इन यात्रियों के विवरण यह बताते हैं कि दीपावली का आकर्षण केवल भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह पर्व विदेशी लोगों की स्मृतियों और संस्मरणों में भी अपनी छाप छोड़ गया।
शिलालेखों और ऐतिहासिक स्रोतों में दीपावली
दीपावली का महत्व केवल धार्मिक ग्रंथों और यात्रियों की स्मृतियों तक सीमित नहीं है। इसे प्राचीन शिलालेखों और ऐतिहासिक स्रोतों में भी प्रमाणित किया गया है। कर्नाटक, राजस्थान और केरल में मिले कई शिलालेख दीपावली को “पवित्र अवसर” के रूप में संबोधित करते हैं। राजस्थान के जालोर क्षेत्र में मिले एक शिलालेख में उल्लेख है कि दिवाली के दिन एक सुनहरे गुंबद वाला नाट्यशाला का निर्माण किया गया था। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान लोरेंज फ्रांज किलहार्न (Lorenz Franz Kielhorn) ने इन शिलालेखों का गहन अध्ययन करके यह सिद्ध किया कि दीपावली केवल एक धार्मिक पर्व ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन प्रमाणों से साफ होता है कि दीपावली भारतीय सभ्यता की धड़कन में सदियों से रची-बसी है।जौनपुर में दीपावली की विशिष्टता
भारत के हर क्षेत्र में दीपावली की अपनी-अपनी छटा है, लेकिन जौनपुर की दिवाली इसमें खास पहचान रखती है। यहां यह पर्व केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का प्रतीक बन जाता है। खासकर तब, जब मुस्लिम महिलाएं भी दीपावली की तैयारी में अपनी अहम भूमिका निभाती हैं। उत्तर प्रदेश आजीविका मिशन से जुड़ी आत्मनिर्भर महिलाओं ने ऐसे दीपक तैयार किए हैं, जो बिना तेल के भी मोम की सहायता से लगभग 45 मिनट तक जलते हैं। इन दीपकों को बनाने की प्रक्रिया बेहद बारीक है, जिसमें छह स्तरों से गुजरकर इन्हें तैयार किया जाता है। यह न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि स्थानीय महिलाओं की आत्मनिर्भरता और हुनर का जीवंत उदाहरण भी हैं। यह पहल दिखाती है कि जौनपुर में दीपावली सिर्फ रोशनी का पर्व नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मेलजोल की अनोखी मिसाल भी है।दीपावली का समय और पंचांग पर आधारित तिथि निर्धारण
दीपावली का पर्व भारतीय पंचांग और चंद्र कैलेंडर (Lunar Calendar) से गहराई से जुड़ा है। इसे हर साल कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है, जो अक्टूबर या नवंबर के महीनों में पड़ती है। यह उत्सव कुल पाँच दिनों तक चलता है और प्रत्येक दिन का अपना अलग महत्व होता है। पहले दिन धनतेरस, जब लोग सोना-चाँदी और बर्तन खरीदते हैं। दूसरे दिन नरक चतुर्दशी, जो असुर पर विजय का प्रतीक है। तीसरे दिन अमावस्या, जिस दिन लक्ष्मी पूजन और दीप प्रज्वलन होता है। चौथे दिन गोवर्धन पूजा, जो भगवान कृष्ण से जुड़ी है। और पाँचवें दिन भाई दूज, जो भाई-बहन के रिश्ते का पावन उत्सव है। इस पंचांग-आधारित तिथि निर्धारण से न केवल हमारी खगोलीय परंपरा का परिचय मिलता है, बल्कि यह भी स्पष्ट होता है कि दिवाली भारतीय जीवन के हर पहलू को जोड़ती है - धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक।
संदर्भ-
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