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जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी किसी गुरुद्वारे के लंगर में बैठकर वह अद्भुत अनुभव महसूस किया है, जहाँ हर चेहरा मुस्कुराता है और हर थाली समान होती है? वहाँ न ऊँच-नीच का कोई भाव होता है, न अमीरी-गरीबी का अंतर। सभी लोग एक साथ, एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं - जैसे पूरी मानवता एक परिवार बन गई हो। यही है लंगर की परंपरा, जो सिख धर्म की आत्मा में बसने वाले सेवा, समानता और प्रेम के संदेश को जीवन का हिस्सा बना देती है। गुरुद्वारे के लंगर में परोसा गया भोजन केवल शरीर की भूख मिटाने का साधन नहीं, बल्कि आत्मा को संतोष देने वाली सेवा का प्रतीक है। यहाँ आने वाला हर व्यक्ति एक ही दृष्टि से देखा जाता है - इंसान के रूप में, बिना किसी पहचान या भेदभाव के। रोटियों की खुशबू में श्रद्धा की मिठास होती है, और सेवा करने वालों के हाथों में करुणा की गर्माहट।
आज हम इस लेख में सबसे पहले जानेंगे कि लंगर का असली अर्थ क्या है और यह मानवता, समानता और सेवा से कैसे जुड़ा है। फिर देखेंगे कि गुरु नानक देव जी ने किस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसकी शुरुआत की और इसे समाज में एक नई दिशा दी। इसके बाद समझेंगे कि लंगर कैसे चलता है, इसमें लोग किस तरह मिलजुलकर सेवा करते हैं और यह सामूहिकता का प्रतीक कैसे बनता है। आगे यह भी जानेंगे कि इस परंपरा की जड़ें भारत की पुरानी धार्मिक और सूफी परंपराओं में कहाँ-कहाँ मिलती हैं। अंत में, जानेंगे कि आज लंगर कैसे भारत से निकलकर पूरी दुनिया में मानवता और सेवा का वैश्विक प्रतीक बन चुका है।

लंगर परंपरा: सिख समुदाय की मानवता-केन्द्रित पहचान
सिख धर्म में लंगर केवल भोजन बाँटने की परंपरा नहीं, बल्कि यह समानता, सेवा और मानवता का सजीव प्रतीक है। “लंगर” शब्द अपने भीतर उस महान भावना को समेटे हुए है, जो कहती है - सबका स्वागत है, बिना किसी भेदभाव के। जब कोई व्यक्ति गुरुद्वारे में प्रवेश करता है, तो उसकी जाति, धर्म, भाषा या आर्थिक स्थिति अप्रासंगिक हो जाती है। वहाँ सब एक समान माने जाते हैं। फर्श पर एक साथ बैठकर भोजन करना केवल एक साधारण क्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश है - यह दर्शाता है कि सब इंसान एक हैं और किसी की ऊँच-नीच नहीं होती। गुरुद्वारे का वातावरण विनम्रता, सहयोग और करुणा से भरा रहता है। यहाँ सेवा को पूजा के समान माना जाता है, क्योंकि सिख विचारधारा यह सिखाती है कि जब इंसान दूसरों की सेवा करता है, तभी वह सच्चे अर्थों में ईश्वर की सेवा कर रहा होता है। यही कारण है कि लंगर सिख समुदाय की पहचान बन चुका है - एक ऐसी पहचान जो भेदभाव से परे, मानवता को सर्वोपरि रखती है।
गुरु नानक देव जी और लंगर की ऐतिहासिक स्थापना
लंगर की शुरुआत 15वीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी ने की थी, जब समाज गहराई तक जातिवाद और धार्मिक विभाजनों में उलझा हुआ था। उस युग में उच्च और निम्न वर्गों के बीच गहरी खाई थी। गुरु नानक देव जी ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलने के लिए एक व्यावहारिक उपाय के रूप में लंगर की स्थापना की। उन्होंने यह सिखाया कि ईश्वर हर व्यक्ति में समान रूप से विद्यमान है, न कोई ऊँचा, न कोई नीचा। उन्होंने कहा था, “सब में जोत, जोत है सोई,” अर्थात हर जीव में ईश्वर का प्रकाश एक समान है। लंगर की शुरुआत एक छोटे से रसोईघर से हुई थी, जहाँ स्वयं गुरु नानक देव जी और उनकी बहन बेबे नानकी लोगों के लिए भोजन तैयार करते थे। बाद में गुरु अंगद देव जी ने इस परंपरा को औपचारिक रूप दिया और हर गुरुद्वारे में इसे अनिवार्य बना दिया। यह केवल धार्मिक सुधार नहीं था, बल्कि सामाजिक क्रांति थी - जिसने सिखाया कि सच्ची पूजा किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं, बल्कि इंसान को इंसान समझने में है।
लंगर की प्रक्रिया और इसकी सामाजिक भागीदारी
लंगर की खूबसूरती इसकी “सेवा भावना” में निहित है। यह परंपरा पूर्णतः निस्वार्थता और सहयोग पर आधारित है। यहाँ कोई अमीर-गरीब, पढ़ा-लिखा या अनपढ़ नहीं होता, सब बराबरी से सेवा करते हैं। कोई सब्जियाँ काटता है, कोई रोटियाँ बेलता है, कोई भोजन परोसता है और कोई बर्तन धोता है - सबका उद्देश्य एक ही होता है, “सेवा।” यह सामूहिक श्रम समाज में एकता और भाईचारे की भावना को प्रबल बनाता है। लंगर में परोसा जाने वाला भोजन सादा, पौष्टिक और शुद्ध शाकाहारी होता है ताकि हर व्यक्ति उसे सहजता से ग्रहण कर सके। भोजन से पहले और बाद में संगत (सामूहिक प्रार्थना) की जाती है, जो इस परंपरा की आत्मिक गहराई को दर्शाती है। जब लोग फर्श पर एक साथ बैठकर खाते हैं, तो वे केवल भोजन साझा नहीं करते, बल्कि समानता और एकता की भावना को भी साझा करते हैं। लंगर हमें सिखाता है कि असली सम्मान किसी की स्थिति या पद से नहीं, बल्कि उसके कर्मों और नीयत से मिलता है।
लंगर की जड़ें: भारतीय संस्कृति और सूफी परंपराओं से जुड़ाव
लंगर की अवधारणा केवल सिख धर्म की देन नहीं, इसकी जड़ें भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपराओं में गहराई तक फैली हुई हैं। भारत के मंदिरों और आश्रमों में सदियों पहले से “अन्नदान” और “भिक्षागृह” की प्रथाएँ थीं, जहाँ हर यात्री, साधु या गरीब व्यक्ति को भोजन कराया जाता था। गुप्त और मौर्य काल में “धर्मशालाएँ” और “सत्संग भवन” जैसी संस्थाएँ समाज में सेवा के केंद्र थीं। वहीं सूफी संतों की खानकाहों में भी लंगर जैसी प्रथाएँ प्रचलित थीं, जहाँ धर्म, जाति या वर्ग का कोई बंधन नहीं था। वहाँ आने वाले हर व्यक्ति को प्रेमपूर्वक भोजन कराया जाता था, जिसे आध्यात्मिक समानता का प्रतीक माना जाता था। सिख धर्म ने इन सभी परंपराओं को एक नई दिशा दी - जहाँ भोजन बाँटना मात्र दान नहीं रहा, बल्कि आत्मिक और सामाजिक शुद्धि का माध्यम बन गया। इसने “कर्म के माध्यम से भक्ति” की भारतीय परंपरा को और गहराई दी, जो आज भी सिख धर्म के केंद्र में जीवित है।

आधुनिक समय में लंगर का वैश्विक विस्तार और मानवीय संदेश
आज लंगर की परंपरा केवल भारत या पंजाब तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह वैश्विक मानवीयता का प्रतीक बन चुकी है। सिख समुदाय जहाँ-जहाँ भी गया, उसने लंगर की इस भावना को अपने साथ रखा। लंदन, टोरंटो, मेलबर्न, न्यूयॉर्क और दिल्ली जैसे शहरों के गुरुद्वारों में प्रतिदिन हज़ारों लोग बिना किसी भेदभाव के भोजन करते हैं। यह परंपरा हर उस व्यक्ति तक पहुँचती है जिसे जरूरत होती है — चाहे वह भूखा मजदूर हो, विद्यार्थी हो या कोई राहगीर। संकट के समय भी सिख समुदाय ने मानवता की मिसाल पेश की है। कोरोना महामारी, बाढ़, भूकंप या युद्ध — हर परिस्थिति में लंगर ने लोगों को जीवन और आशा दी है। यह केवल भोजन नहीं, बल्कि करुणा, सहानुभूति और एकता का प्रतीक है। गुरु नानक देव जी का सन्देश “सबका भला, किसी का बुरा नहीं” आज भी दुनिया के हर कोने में गूंजता है। लंगर हमें यह सिखाता है कि इंसानियत की भूख सबसे पहले मिटानी चाहिए — क्योंकि जब तक सेवा की भावना जीवित है, तब तक मानवता भी अमर रहेगी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/mrxpwfxn
https://tinyurl.com/ysds9nw2
https://tinyurl.com/46cxubzp
https://tinyurl.com/5n7retb4
https://tinyurl.com/4h9crxyc
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