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रेशम सदियों से भारतीय संस्कृति, फैशन और कला का अभिन्न हिस्सा रहा है। इसकी चमक, कोमलता और गरिमा ने हर युग में लोगों का दिल जीता है - चाहे वह शाही दरबार हों या लोकपरिधान। जौनपुर जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध नगर में, जहाँ बुनाई और पारंपरिक शिल्प का गहरा इतिहास रहा है, रेशम हमेशा से सौंदर्य और शालीनता का प्रतीक माना गया है। लेकिन आधुनिक समय में रेशम उद्योग के सामने पर्यावरणीय और नैतिक चुनौतियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं - अत्यधिक जल उपयोग, रासायनिक रंगों का प्रयोग और कोकून उत्पादन की परंपरागत पद्धतियाँ प्रकृति पर भारी पड़ रही हैं। ऐसे में रीसाइकल्ड (recycled) रेशम, यानी पुनः उपयोग किया गया रेशम, एक नई दिशा दिखा रहा है। यह न केवल पुराने रेशमी कपड़ों और धागों को नया जीवन देता है, बल्कि कचरे को कम कर पर्यावरण की रक्षा में भी अहम भूमिका निभा रहा है।
आज हम जानेंगे कि रीसाइकल्ड रेशम किस तरह पर्यावरण की रक्षा करता है, इसके उत्पादन की प्रक्रिया में क्या-क्या चरण शामिल हैं, और यह फ़ैशन उद्योग में कैसे एक नई पहचान बना रहा है। साथ ही, हम यह भी समझेंगे कि सिल्क वेस्ट क्या होता है और इसे पुनः प्रयोग में लाना क्यों आवश्यक है।
रीसाइकल्ड रेशम का बढ़ता महत्व
रीसाइकल्ड रेशम आज के दौर में एक क्रांतिकारी बदलाव की तरह सामने आया है, जो फैशन और पर्यावरण - दोनों को एक साथ जोड़ता है। यह रेशम, पुराने कपड़ों, धागों, या त्यागे गए कोकून से प्राप्त रेशमी तंतुओं को पुनः संसाधित कर तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया में न केवल पुराने कचरे का सदुपयोग होता है, बल्कि पारंपरिक रेशम उत्पादन की तुलना में लागत भी काफी कम आती है। इस पुनर्चक्रण के ज़रिए कपड़ा उद्योग को नई दिशा मिल रही है। पुराने रेशमी टुकड़ों से सुंदर स्कार्फ़, दुपट्टे, कुशन कवर, हैंडबैग (handbag) और यहाँ तक कि आधुनिक परिधान तक तैयार किए जा रहे हैं। यह न केवल कारीगरों को नया रोज़गार देता है, बल्कि उनके कौशल को वैश्विक मंच पर पहचान भी दिलाता है। सबसे अहम बात यह है कि रीसाइकल्ड रेशम पर्यावरण के लिए एक संवेदनशील विकल्प है। यह उत्पादन में कम पानी, ऊर्जा और रसायनों की आवश्यकता रखता है, जिससे कार्बन फुटप्रिंट (carbon footprint) घटता है। आज की पीढ़ी, जो “सस्टेनेबल फ़ैशन” (sustainable fashion) की ओर झुकाव रखती है, उसके लिए रीसाइकल्ड रेशम सौंदर्य और ज़िम्मेदारी - दोनों का प्रतीक बन गया है।

पर्यावरण संरक्षण में रीसाइकल्ड रेशम की भूमिका
रीसाइकल्ड रेशम पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में एक अनदेखा नायक साबित हो रहा है। पारंपरिक रेशम उत्पादन में बड़ी मात्रा में पानी, रसायन और बिजली की खपत होती है, साथ ही कीटनाशकों और मल्बरी खेती से मिट्टी की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, रीसाइकल्ड रेशम में पहले से मौजूद रेशमी अवशेषों को फिर से उपयोग में लाया जाता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों की मांग घटती है। इससे न केवल जल और ऊर्जा की बचत होती है, बल्कि रासायनिक अपशिष्ट में भी भारी कमी आती है। रीसाइकलिंग प्रक्रिया स्थानीय स्तर पर छोटे पैमाने के उद्योगों और हस्तशिल्पियों को भी सशक्त बनाती है, क्योंकि इसमें भारी मशीनों या नए संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती। इसके अतिरिक्त, रीसाइकल्ड रेशम कार्बन उत्सर्जन को भी कम करता है, क्योंकि नए कोकून उत्पादन की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही वजह है कि यह न केवल टिकाऊ उत्पादन का उदाहरण है, बल्कि पर्यावरण-हितैषी उद्योगों के भविष्य की कुंजी भी है।
फ़ैशन ब्रांड्स द्वारा रीसाइकल्ड रेशम का प्रयोग
आज के समय में, जब उपभोक्ता केवल सुंदरता ही नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी की भी तलाश में हैं, तब विश्व के कई प्रसिद्ध फ़ैशन ब्रांड रीसाइकल्ड रेशम को अपनाने लगे हैं।

रेशम उत्पादन की पारंपरिक प्रक्रिया और उसमें सुधार
रेशम निर्माण एक प्राचीन और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें प्रकृति, धैर्य और कौशल तीनों का अनोखा मेल होता है। यह यात्रा रेशम के कीड़ों (Silkworms) से शुरू होती है, जिन्हें मुलबेरी (शहतूत) के पत्तों पर पाला जाता है। कुछ सप्ताहों के भीतर ये कीड़े अपने चारों ओर कोकून बुन लेते हैं, जिनसे रेशम का धागा निकाला जाता है। इसके बाद यह कोकून भाप या गर्म पानी में उबालकर मुलायम किए जाते हैं, ताकि उनसे महीन धागे निकाले जा सकें। फिर रीलिंग (reeling), डीफ़्लॉसिंग (Deflosing), डाईंग (dyeing), स्पिनिंग (Spining) और बुनाई जैसे कई चरणों से गुजरकर यह सुंदर रेशमी कपड़ों में बदल जाता है। अब इस पारंपरिक प्रक्रिया में आधुनिक बदलाव भी आए हैं। कई उत्पादन इकाइयाँ अब पर्यावरण अनुकूल रंगाई, जल पुनर्चक्रण प्रणाली और सौर ऊर्जा चालित मशीनरी का उपयोग कर रही हैं। वहीं रीसाइकल्ड रेशम इस सुधार को और आगे बढ़ाता है, क्योंकि यह पहले से मौजूद रेशमी सामग्री को दोबारा उपयोग में लाता है, जिससे नई खेती और ऊर्जा की आवश्यकता घटती है।

सिल्क वेस्ट (Silk Waste) क्या है और इसका पुनः उपयोग क्यों ज़रूरी है
सिल्क वेस्ट, जिसे स्थानीय भाषा में “कता रेशम” भी कहा जाता है, रेशम उत्पादन का वह हिस्सा है जिसे अक्सर अनुपयोगी मान लिया जाता है। इसमें अधूरे कोकून, कटे हुए रेशमी धागे, रंगाई के दौरान बचे अवशेष और टूटे तंतु शामिल होते हैं। असल में, यही “कचरा” रीसाइकल्ड रेशम का मुख्य स्रोत है। इन अवशिष्ट तंतुओं को दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जाता है -
इन अपशिष्ट तंतुओं को विशेष तकनीक से साफ़ कर, संसाधित कर, फिर से धागों और कपड़ों में बदला जाता है। इससे न केवल उत्पादन लागत घटती है बल्कि पर्यावरणीय बोझ भी कम होता है। सिल्क वेस्ट के पुनः उपयोग से स्थानीय उद्योगों को नया जीवन मिलता है और ग्रामीण क्षेत्रों में कारीगरों के लिए रोज़गार के अवसर भी पैदा होते हैं। इस प्रकार, “कचरे से कारीगरी” की यह यात्रा न केवल आर्थिक दृष्टि से लाभकारी है, बल्कि प्रकृति के साथ संतुलन का सुंदर उदाहरण भी प्रस्तुत करती है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/bdcnrmra
https://tinyurl.com/ybb26p55
https://tinyurl.com/bdtp3w4n
https://tinyurl.com/ydh9rnpz
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