भरतनाट्यम: भारतीय शास्त्रीय नृत्य की अद्भुत यात्रा और सांस्कृतिक महत्व

दृष्टि II - अभिनय कला
13-12-2025 09:24 AM
भरतनाट्यम: भारतीय शास्त्रीय नृत्य की अद्भुत यात्रा और सांस्कृतिक महत्व

जौनपुरवासियों, भारत की सांस्कृतिक परंपराएँ केवल इतिहास की बातें नहीं, बल्कि हमारी संवेदनाओं और जीवन-शैली का हिस्सा हैं। जब हम भारतीय शास्त्रीय नृत्य की बात करते हैं, तो भरतनाट्यम अपने अद्वितीय सौंदर्य, गहराई और आध्यात्मिक प्रभाव के कारण विशेष स्थान रखता है। भले ही इसकी उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई हो, लेकिन आज देश के हर क्षेत्र में, यहाँ तक कि जौनपुर के कला-प्रेमी समुदाय में भी इसे सम्मानपूर्वक सीखा और समझा जाता है। यह नृत्य केवल ताल और आंदोलनों की कला नहीं है, बल्कि भाव, श्रद्धा, कहानी और आंतरिक अनुभूति का जीवंत माध्यम है।
आज हम भरतनाट्यम की यात्रा को सरल और क्रमबद्ध रूप में समझेंगे। सबसे पहले जानेंगे इसकी उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, फिर देखेंगे कि नाट्य शास्त्र और देवदासी परंपरा ने इसे भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप कैसे दिया। इसके बाद चर्चा होगी कि तंजावुर चौकड़ी ने नृत्य की संरचना और शैली को स्थिर किया। फिर जानेंगे कि ब्रिटिश शासन और एंटी-नाच आंदोलन ने इस कला को कैसे प्रभावित किया। उसके बाद हम उन महान व्यक्तियों के योगदान पर नजर डालेंगे, जिन्होंने इसे पुनर्जीवित किया। अंत में देखेंगे कि कलाक्षेत्र संस्थान और अंतरराष्ट्रीय मंचों ने भरतनाट्यम को आधुनिक पहचान और वैश्विक स्तर पर सम्मान दिलाया।

भरतनाट्यम की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भरतनाट्यम की उत्पत्ति दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रदेश में हुई, जहाँ प्राचीन मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि कला, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक परंपराओं के जीवित केंद्र हुआ करते थे। यह नृत्य प्रारंभ में मंदिरों के गर्भगृह में देवता के समक्ष अर्पित होने वाली भक्ति-नृत्य सेवा के रूप में विकसित हुआ। उस समय नृत्य को ईश्वर के प्रति भाव व्यक्त करने का साधन माना जाता था, न कि मनोरंजन का माध्यम। भरतनाट्यम में अंग संचालन, हस्त-मुद्राएँ, चेहरे के भाव, ताल-लय, संगीत और अभिनय का ऐसा समन्वय देखने को मिलता है, जो इसे केवल बाहरी शरीर-गतिविधि नहीं बल्कि आंतरिक भावानुभूति का आध्यात्मिक विज्ञान बनाता है। इसके मूल सूत्र भारत के प्राचीन नाट्य-ग्रंथ नाट्य शास्त्र में मिलते हैं, जहाँ भरतनाट्यम की मुद्राओं, भाव-नायिका-नायक भेद, रास-भाव और ताल संरचना का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस प्रकार भरतनाट्यम अपनी प्रारंभिक अवस्था से ही भक्ति, अनुशासन और आध्यात्मिक साधना का प्रतीक रहा है।

नाट्य शास्त्र और देवदासी परंपरा का योगदान
भरतनाट्यम के विकास में देवदासी परंपरा का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। देवदासियाँ मंदिरों में भगवान की दासी मानी जाती थीं, जिनका मुख्य कर्तव्य नृत्य, संगीत और स्तुति के माध्यम से देव-आराधना करना था। वे नृत्य को केवल कला नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति और समर्पण का स्वरूप मानती थीं। देवदासियों को संगीत, ताल, स्वर, अभिनय और अंग-संचालन का कठोर अनुशासित प्रशिक्षण दिया जाता था। वे कथाओं को शरीर-भाषा और भावों के माध्यम से जीवंत करती थीं, जिससे उनके नृत्य में आत्मीयता और करुण रस का अद्भुत संचार होता था। इन्हीं के माध्यम से भरतनाट्यम में भक्ति-रस, सौंदर्य-बोध, और आध्यात्मिकता की गहरी धारा आई। इस परंपरा ने भरतनाट्यम को केवल तकनीक आधारित नृत्य नहीं रहने दिया, बल्कि इसे हृदय की भाषा बना दिया - जहाँ हर मुद्रा एक शब्द, हर लय एक वाक्य और हर नृत्य एक भावमय कविता बन जाता है।

तंजावुर चौकड़ी और भरतनाट्यम की संरचना
18वीं शताब्दी के अंत में तंजावुर चौकड़ी - चिन्नय्या, पोन्नय्या, वादिवेलु और शिवानंदम - ने भरतनाट्यम को इस रूप में संगठित किया कि यह केवल मंदिर-प्रधान प्रस्तुति न रहकर मंचीय कला के रूप में भी स्वीकार्य बन गया। उन्होंने भरतनाट्यम की प्रस्तुति को क्रमबद्ध रूप में सजाया, जिसमें अलारिप्पु से लेकर तिल्लाना तक का एक स्वाभाविक प्रवाह तैयार किया गया। उन्होंने नृत्य में संगीत, भाव अभिव्यक्ति, नृत्य-कथानक और लयकारी को एक सुगठित संरचना में बाँधकर इसे कलात्मक ऊँचाइयों तक पहुँचाया। राग और तालों के चयन में उन्होंने गहराई और गंभीरता को महत्व दिया, जिससे भरतनाट्यम में भाव-व्यंजना और कथा-अभिनय को नए आयाम मिले। इनके सुधारों के बिना भरतनाट्यम आधुनिक समय में अपने वर्तमान व्यवस्थित और परिपक्व स्वरूप में नहीं होता।

ब्रिटिश शासन और एंटी-नच आंदोलन
ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं को अक्सर गलत ढंग से समझा गया और प्रस्तुत किया गया। देवदासी परंपरा, जो भरतनाट्यम की आत्मा थी, उसे सामाजिक बुराई के रूप में दर्शाया गया। इस गलत समझ और एंटी-नाच आंदोलन के कारण समाज ने नृत्य को असम्मान की दृष्टि से देखना शुरू किया। मंदिरों में नृत्य की परंपरा टूटने लगी, नर्तक-नर्तकियों का सम्मान घटा और कला धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन से गायब होने लगी। एक समय तो भरतनाट्यम के अस्तित्व पर संकट तक आ गया। यह भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का वह दौर था जब सदियों पुरानी एक महान कला लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुँच गई थी।

भरतनाट्यम का पुनरुद्धार और उल्लेखनीय व्यक्तित्व
बीसवीं सदी की शुरुआत में कुछ समर्पित और दूरदर्शी कलाकारों ने इस कला को पुनर्जीवित करने की पहल की। रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने भरतनाट्यम को समाज के लिए पुनः एक सम्मानित और पवित्र कला के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने इसे भक्तिपूर्ण, सौम्य, शालीन और सुसंस्कृत रूप देकर इसे अभिजात और शिक्षित समाज तक पहुँचाया। दूसरी ओर, बालासरस्वती ने परंपरागत देवदासी शैली की मूल भाव-प्रधान और रागात्मक संवेदनशीलता को संरक्षित रखा। वहीं कलानिधि नारायणन ने अभिनय-कला (अभिनय-अंग) को नई गरिमा देकर भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति को उच्च स्तर पर पहुँचाया। इन सभी कलाकारों ने भरतनाट्यम को केवल पुनर्जीवित ही नहीं किया, बल्कि उसे नए युग और नई पहचान से भी जोड़ा।

कलाक्षेत्र संस्थान और आधुनिक भरतनाट्यम की छवि
भरतनाट्यम के पुनर्जागरण में रुक्मिणी देवी अरुंडेल की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। उन्होंने यह समझा कि यदि इस कला को समाज में पुनः सम्मानजनक स्थान दिलाना है तो इसके दर्शनीय स्वरूप, प्रस्तुति शैली और शिक्षण पद्धति - तीनों को सुव्यवस्थित करना होगा। इसी लक्ष्य के साथ उन्होंने कलाक्षेत्र संस्थान की स्थापना की, जो भरतनाट्यम के पुनरुद्धार का जीवंत केन्द्र बन गया। यहाँ नृत्य केवल सीखा नहीं जाता, बल्कि अनुभव किया जाता है - शरीर, मन और भाव के आपसी संतुलन के माध्यम से। कलाक्षेत्र शैली की सबसे बड़ी विशेषता इसकी शांत, स्वच्छ और सौम्य अभिव्यक्ति है। यहाँ प्रदर्शन में अनावश्यक नाटकीयता और अतिशयोक्तिपूर्ण भाव-प्रदर्शन को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। इसके स्थान पर, लय की शुद्धता, मुद्राओं की स्पष्टता, शरीर की गरिमा और भाव की प्राकृतिक धारा पर अधिक ध्यान दिया जाता है। मंच-सज्जा सरल और गरिमामय होती है, वेशभूषा प्रतीकात्मक, और संगीत शास्त्रीय परंपरा में जड़ित - जिससे नृत्य के दौरान दर्शक का ध्यान नर्तकी के भाव और कथा पर टिका रहे। आधुनिक भरतनाट्यम में आज जो अनुशासन, सौंदर्य-बोध, आध्यात्मिकता और स्वच्छता दिखाई देती है, उसकी आधारशिला कलाक्षेत्र ने रखी है। यही कारण है कि भरतनाट्यम अब केवल परंपरा का स्मारक नहीं, बल्कि समकालीन संस्कृति और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का एक जीवंत रूप बन गया है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भरतनाट्यम का विस्तार
आज भरतनाट्यम की पहचान भारत की सीमाओं में सीमित नहीं है। यह विश्वभर में संस्कृति, कला और आध्यात्मिक भावनाओं के आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन चुका है। विदेशी कलाकारों ने इसे केवल एक नृत्य शैली के रूप में नहीं अपनाया, बल्कि इसके भाव-प्रधान, आत्मा-केन्द्रित और आध्यात्मिक अनुभव को समझने और आत्मसात करने का प्रयास किया। यही कारण है कि भरतनाट्यम अब अनेक देशों के सांस्कृतिक मंचों, विश्वविद्यालयों और कला संस्थानों में सिखाया और प्रस्तुत किया जाता है। कई विदेशी कलाकारों और शोधकर्ताओं ने भरतनाट्यम को अपने व्यक्तिगत ध्यान और साधना का माध्यम बनाया। मंच पर प्रस्तुत होने वाले अंतरराष्ट्रीय कॉन्सर्ट (concert), सांस्कृतिक महोत्सव और नृत्य कार्यशालाएँ इस कला के वैश्विक विस्तार का प्रतीक हैं। अब यह नृत्य केवल भारतीय शास्त्रीय नृत्य नहीं, बल्कि विश्व सांस्कृतिक संवाद का सेतु बन गया है - जहाँ भाषा की बाधाएँ मिट जाती हैं, और भाव, संगीत और शरीर-भाषा एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति बन जाते हैं।

संदर्भ:
https://bit.ly/3lWAXPe 
https://bit.ly/31TgCmT 
https://bit.ly/3ymgZ5l 
https://bit.ly/3lZrtma 
https://bit.ly/3ykQaic 
https://tinyurl.com/ptk3abtm 



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