 
                                            समय - सीमा 268
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                                            आज की अनियमित जीवन शैली में योगा को जीवन का हिस्सा बनाना अत्यंत आवश्यक होता जा रहा है। योग मात्र व्यायाम नहीं है वरन् यह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि और जीवन के पूर्ण कल्याण के लिए एक मार्ग भी प्रशस्त करता है। योग कोई धर्म नहीं है। इसके लिए आपको किसी निश्चित ईश्वर पर विश्वास करने या कुछ मंत्रों का जाप करने की आवश्यकता नहीं है। महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है। इन्होंने योग के आठ मार्ग या अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) बताए हैं, जिन्हें सामान्यतः अष्टांग योग के नाम से भी जाना जाता है। यह आठ मार्ग मूल रूप से एक सार्थक और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए दिशानिर्देश के रूप में कार्य करते हैं। यह जीवन में सदाचार और नैतिक आचरण और आत्म-अनुशासन बनाये रखने में और साथ ही हमें प्रकृति के आध्यात्मिक पहलुओं को स्वीकार करने में हमारी सहायता करते हैं।
1. यम
ईश्वर में विलीनता, परमशांति, परमानंद, और हमारी बाहरी भौतिक इच्छाओं के साथ-साथ आंतरिक आध्यात्मिक इच्छाओं की तृप्ति केवल तभी संभव हो सकती है जब हम धर्म के प्राकृतिक नियमों का पालन करते हैं। इन नियमों को अष्टांग योग का पहले दो अंग यम और नियम में वर्णित किया गया है। यम में व्यक्ति के व्यवहार पर ध्यान केंद्रित किया गया है। पांच यम बताए गए हैं:
(i) अहिंसा
एक श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए अहिंसा उसका एक महत्वपूर्ण आभूषण है, जो उसके व्यक्तित्व को संवारता है। हिंसा का अर्थ मात्र किसी को शारीरिक कष्ट पहुंचाना नहीं होता है, इससे भयानक हिंसा किसी को शाब्दिक कष्ट पहुंचाना होती है। इन दोनों हिंसाओं का परित्याग करने का नाम ही अहिंसा है। अहिंसा हमें सिखाती है कि हमें इस जीव जगत में उपस्थित सभी प्राणियों के साथ सात्विक एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार, विचार और शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। हिंसा मात्र दूसरों के साथ ही नहीं करते वरन् मादक पदार्थों का सेवन करके, बुरे विचारों को हृदय में संचित करके, अपना अमूल्य समय व्यर्थ करके हम स्वयं के साथ हिंसा करते हैं।
 
(ii) सत्य
सत्य जीवन का अभिन्न अंग होता है, आपने अक्सर सुना भी होगा कथनी और करनी में समानता होनी चाहिए। हमें सत्य बोलना नहीं वरन् इसे जीना चाहिए, हमारे विचार, मूल्य, शब्द और कार्य में समानता होनी चाहिए। किंतु सत्य कहने का अर्थ यह नहीं है कि आप उसके माध्यम से किसी को क्षति पहुंचाएं अर्थात आपके द्वारा कहा गया सत्य श्रोता के लिए लाभदायक होना चाहिए।
 
(iii) अस्तेय
हम सभी बचपन से सीखते आ रहे हैं कि चोरी करना पाप है हमें चोरी नहीं करनी चाहिए। हम किसी की वस्तु को प्रत्यक्ष रूप में चुराने को ही चोरी समझते हैं। किंतु वास्तव में देखा जाए तो हम अप्रत्यक्ष रूप से आये दिन कितनी चोरी कर रहे हैं जैसे अनावश्यक बातें करके समय चुराना, किसी के श्रेय को चुराकर स्वयं लेना, आवश्यकता से अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आदि हमारी हमाने द्वारा नित दिन की जाने वाली चोरी का हिस्सा है। ईश्वर ने हमें सक्षम बनाया है किसी का हक छिनने के लिए नहीं वरन् दूसरों की सहायता के लिए। अपनी क्षमताओं का उपयोग दूसरों को खुशी देने के लिए करें।
    
(iv) ब्रह्मचर्य
  
ब्रह्म-आचार्य का अर्थ हुआ अपने कर्मों को शुद्ध एवं पवित्र बनाकर ईश्वर को समर्पित करना, अपने ध्यान, ऊर्जा और जीवन को ईश्वर पर केंद्रित करना। ब्रह्मचर्य का अर्थ अक्सर लोग मात्र काम भावना का परित्याग करना ही मान लेते हैं जबकि इसका अर्थ अत्यंत व्यापक है। ब्रह्मचर्य मात्र साधु, संन्यासियों पर ही नहीं वरन् समस्त मानव जाति पर लागू होता है, तब चाहे वह गृहस्थ ही क्यों ना हो।
 
(v) अपरिग्रह
 
अपरिग्रह का अर्थ है मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व विचारों का संग्रह न करना। गांधी जी ने भी कहा है इस पृथ्वी में व्यक्ति की जरूरत से ज्यादा उपलब्ध है किंतु लालच से ज्यादा नहीं। जीवन में उतना ही उपयोग करें जितनी आवश्यकता है, केवल वही खरीदें जिसकी आवश्यकता है। इसका अर्थ यह नहीं की भिक्षु जीवन व्यतीत करने लगो, इसमें बस अपनी भौतिक लालसाओं पर संयम रखना आवश्यक होता है।
2. नियम
यदि हम यम के माध्यम से अपने मन और शरीर पर नियंत्रण हासिल कर लेते हैं तो हम उच्च आध्यात्मिक पथ की ओर अग्रसर होने लगते हैं। इसमें व्यक्तिगत स्तर पर ध्यानावस्था के माध्यम से मननशील व्यक्तित्व का विकास किया जाता है। इसमें एक अनुशासित, योगमय, संयंमित जीवन को व्यतीत करने के लिए पांच नियमावली बनायी गयी हैं।
 
(i) शौच-
 शौच से तात्पर्य “स्वच्छता एवं पवित्रता” से है, किंतु यहां दैनिक जीवन में की जाने वाली शारीरिक स्वच्छता की बात नहीं की जा रही है। इसमें आंतरिक पवित्रता अर्थात मन कर्म विचार की पवित्रता की बात की जा रही है। जिसे जप, तप, ध्यान से प्राप्त किया जा सकता है। इसमें नकारात्मक तत्वों को शरीर में प्रवेश करने से रोका तथा सकारात्मक तत्वों का शरीर में प्रवेश कराया जाता है।
(ii) संतोष-
 हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि हमें जो कुछ भी प्राप्त है उसे ईश्वर के प्रसाद के रूप में स्वीकारना चाहिए किंतु स्थिति इसके बिल्कुल विपरित है, व्यक्ति की जरूरतें तो पूरी हो रही है लेकिन और अधिक पाने की लालसा नहीं। जिस कारण उनके भीतर असंतोष की भावना जागृत हो रही है, इसलिए हमें जो कुछ भी प्राप्त हुआ है उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए तथा संतुष्ट होना चाहिए। क्योंकि उम्मीद निराशा की जननी है, जबकि स्वीकारोक्ति शांति और प्रसन्नता की जननी है।
 
(iii) तप-
अक्सर हमारे भीतर जो बुरी आदतें होती हैं उन्हें हम सोचते हैं जब चाहें तब छोड़ देगें किंतु वास्तव में हम उन आदतों को नहीं वरन् वे हमें नियंत्रित कर रही होती हैं। यही अवस्था हमारे शरीर की भी है जो जाने अनजाने में पूर्णतः हमारे मन और इंद्रियों के वश में है। अपने शरीर, मन और इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए तप सबसे अच्छा विकल्प है। तप का अर्थ धार्मिक कर्मकाण्ड से नहीं वरन् शारीरिक तप से है। तप सहनशीलता का अभ्यास है।
(iv) स्वाध्याय-
 स्वाध्याय का अर्थ शास्त्रों के अध्ययन से होता है। प्रत्येक दिन हमारा कुछ आध्यात्मिक, कुछ प्रेरणादायक पढ़ना अत्यंत आवश्यक है। यह हमें सही मार्ग पर रखने और हमारे दिमाग को शुद्ध रखने में मदद करता है। अन्यथा हम अपने ही मन के भ्रमजाल में खो जाते हैं।
 
(v) ईश्वर प्रणिधान-
 इसमें स्वयं को पूर्णतः ईश्वर में संलिप्त कर देना है। इसमें यह आवश्यक नहीं कि आप किस देवी देवता की पूजा कर रहे हैं। इसमें समर्पण की भावना सर्वप्रमुख है।
3. आसन
आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। योग के दृष्टिकोण से, शरीर आत्मा का मंदिर है, जिसकी देखभाल हमारे आध्यात्मिक विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आसन के माध्यम से, हम अनुशासन की आदत और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता विकसित करते हैं। आसन का मुख्य उद्देश्य प्रणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि है।
4. प्राणयाम
 अष्टांग योग का यह चौथा अंग है जिसमें एक उचित आसन पर बैठकर शरीर पर नियंत्रण हासिल किया जाता है। प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ, "जीवन शक्ति का विस्तार" से है योगियों का मानना है कि यह न केवल शरीर का कायाकल्प करता है बल्कि वास्तव में जीवन का विस्तार भी करता है।
5. प्रत्याहार
 इंद्रियों को बाह्य जगत से हटाकर मन के साथ नियंत्रित करने को प्रत्याहार कहा जाता है। हम संवेदनाओं के जाल में इतनी बुरी तरह जकड़ गये हैं कि कई बार हम अत्यंत विचलित हो जाते हैं और शांति तलाशने लगते हैं। जितना अधिक समय और ऊर्जा हमें बाह्य जागरूकता के लिए केंद्रित करने की आवश्यकता होती है, उससे भी कम आंतरिक जागरूकता पर केंद्रित करनी होती है। प्रत्याहार हमें बाह्य जगत से आंतरिक जगत की ओर मोड़ देता है।
6. धारणा
 आसन ने हमें शरीर को नियंत्रित करना सिखाया। प्राणायाम ने हमें सांस को नियंत्रित करना सिखाया। प्रतिहार ने हमें इंद्रियों पर नियंत्रण करना सिखाया। अब धारणा हमें मन पर नियंत्रण करना सिखाता है। शरीर में मन को नियंत्रित करने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय को माना गया है। एकाग्रता की विस्तारित अवधि स्वाभाविक रूप से ध्यान की ओर ले जाती है।
7. ध्यान
 अक्सर ध्यान और एकाग्रता (धारणा) को एक समझ लिया जाता है किंतु इन दोनों के मध्य महीन अंतर देखने को मिलता है। जहां धारणा एक ओर ध्यान केंद्रित करने की अवस्था है वहीं ध्यान ध्यान अंतिम केंद्र बिंदु के बिना जागरूक होने की स्थिति है। इसमें मन पूर्णतः शांत हो जाता है इसमें किसी प्रकार के विचार उत्पन्न नहीं होते हैं। यह थोड़ा मुश्किल हो सकता है किंतु असंभव नहीं।
8. समाधी
 यह अष्टांग का अंतिम चरण है, जो परमांनंद की अवस्था होती है। समाधी का शाब्दिक अर्थ है विलय करना, इसमें व्यक्ति पूर्णतः ब्रह्म में लीन हो जाता है। इसमें कोई सीमा नहीं होती, कोई बाधा नहीं होती, कोई वियोग नहीं होता तथा एक विरहिणी अपने स्वामी से मिल जाती है। हमारे शरीर का रोम रोम ईश्वर में लीन हो जाता है। अब हम ना ईश्वर की तलाश करते हैं और ना ही उससे प्रार्थना करते हैं। बल्कि हम उस में विलीन हो जाते हैं जैसे वर्षा की बूंद सागर में विलीन हो जाती है।
संदर्भ:
1. https://www.yogajournal.com/practice/the-eight-limbs
2. http://www.ihrf.com/bookSection/publications/YogaEOL.pdf
 
                                         
                                         
                                         
                                        