 
                                            समय - सीमा 268
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                                            संख्या! एक ऐसी धारणा है जिसके बिना यह दुनिया चल ही नहीं सकती है, संख्या इस दुनिया की सबसे मूलभूत खोज है। सांख्य ज्ञान आज के इस आधुनिक दुनिया के निर्माण में एक अहम् योगदान का निर्वहन करता है। यह कथन भी सत्य है कि जो दुनिया बिना संख्या के होगी उसमे गगनचुम्बी इमारतों, चुनावों, शादियाँ, बाजार आदि की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। यह संख्या बल यदि हम देखें तो हड़प्पा काल से ही मौजूद है इस दुनिया में और यही कारण है की वहां पर भी बाजारों आदि का निर्माण हो पाना संभव हो पाया था। संख्या के इतिहास की बात करें तो इसका इतिहास करीब 30,000 वर्ष पहले तक जाता है जब पुरातत्वविदों को हडियों के कई निशान मिले जो कि संख्या के लिए प्रयोग में लाये गए थे। करीब 5000 वर्ष पहले मेसोपोटामिया की सभ्यता के समय में बुनियादी अंकगणित की खोज हो चुकी थी। भारत एक ऐसा देश है जिसने संख्या के सबसे महत्वपूर्ण अंक शून्य की खोज करीब 876 ईस्वी में की और इसका प्रमाण ग्वालियर किले के चतुर्भुज मंदिर के शिलालेख से मिल जाता है। अरब विद्वानों ने 9वीं शताब्दी इसवी में बीजगणित की नीव रखी। इस प्रकार से हमें यह ज्ञात हो जाता है की गणितीय संख्या मनुष्य जब यायावरी करता था तभी से इसके जीवन का यह एक प्रमुख अंग थी। संख्या गणित का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण अंग है लेकिन यह भी जानना आवश्यक है की इस बिंदु का विकास किस आधार पर हुआ है? इस लेख में हम इसी जटिलता के विषय में चर्चा करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे की यह किस प्रकार से संभव हो पाया। हमारा मस्तिष्क गणितीय संख्या के साथ किस प्रकार से कार्य करता है इस विषय पर विभिन्न वैज्ञानिकों ने कई शोध किये जिससे कई बिंदु प्राप्त हुए हैं जो मुख्य रूप से इस आधार पर आश्रित हैं कि मनुष्य का मस्तिष्क किस तरह से विकसित है।
 
कैंटन (Cantlon) और अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किये गए शोध में यह पता चलता है कि मनुष्यों के मस्तिष्क में एक जन्मजात विधा गणित को लेकर विकसित है और यह करीब 30 मिलियन (Million) वर्ष से हमारे समाज में व्याप्त है। कोई भी बच्चा पैदा होता है उसको कुछ ही समय में यह ज्ञात हो जाता है कि 1 से बड़ा 2 होता है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के वेरोनिक इजार्ड (Harvard University Veronique Izard) जो की एक संज्ञात्मक मनोवैज्ञानिक हैं ने हाल में ही नवजात शिशुओं पर अध्ययन किया जिसमे उन्होंने कंप्यूटर (computer) के सामने उन बच्चों को रखकर उनकी रूचि को देखा। इसमें उन्होंने पाया की नवजात शिशुओं में पहले से ही संख्याओं की समझ होती है। जैसे जैसे मनुष्य बड़ा होता है वैसे वैसे गणितीय ज्ञान और भी विकसित होता है। अध्ययन से यह पता चलता है की छह महीने का बच्चा संख्याओं के बीच का अंतर कर सकता है जैसे 2 और 4। नौ महीने के शिशु में यह अनुपात घटकर 1.5 हो जाता है और वयस्कता के दौरान यह अनुपात मात्र 10 से 15 फीसद ही रह जाता है। लेकिन इन आंकड़ों में एक बात सिद्ध होती है कि इसमें एक-दो नियम ही हमेशा सही होते हैं। इन सभी अध्ययनों से हमें पता चलता है कि हम मनुष्य एक ही प्रकार के गणना का प्रयोग अपने पूरे जीवन काल में करते हैं। मनुष्य के दिमाग में एक न्युरोंस की पट्टी होती है जो इंट्रापैरियट सल्कस के पास स्थित होती है यह तब सक्रिय होती है जब कठिन संख्याओं का सामना होता है। तमाम अध्ययन यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य में गणित का मौलिक अंतर्ज्ञान मनुष्य के प्रकृति में ही स्थित है।
चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र के पार्श्व में अंकों और अग्र में दिमाग दिखाया है, जो अंकों का जन्मजात ज्ञान प्रस्तुत कर रहा है।(Prarang)
2. दूसरे चित्र में अंकों को दिखाया गया है।(Freepik)
सन्दर्भ :
1.	https://www.cifar.ca/cifarnews/2018/08/28/where-does-the-brain-do-math
2.	https://www.sciencealert.com/science-shows-us-the-four-stages-of-our-brains-on-maths
3.	https://www.discovermagazine.com/planet-earth/the-brain-humanitys-other-basic-instinct-math
 
                                         
                                         
                                         
                                         
                                        