कांटो भरी राह से डिजिटल स्वरूप तक सूप बनाने की पारंपरिक हस्तकला का सफर

शहरीकरण - नगर/ऊर्जा
25-06-2020 01:30 PM
कांटो भरी राह से डिजिटल स्वरूप तक सूप बनाने की पारंपरिक हस्तकला का सफर

कुछ साल पहले तक केवल हाथ से बने सूप इस्तेमाल होते थे। सरकंडे (सराई) की सींकों और बांस से बने यह सूप अनाज साफ करने के काम आते थे। आज भी इनका प्रयोग कुछ अनुष्ठानों और धार्मिक रीति रिवाजों में भी किया जाता है। लेकिन, लगभग 30 साल पहले, धातु के सूप आ जाने के कारण, धीरे-धीरे बांस से बने इन सूप की मांग घटती गई। जौनपुर के पास के गांव के तमाम परिवार जो पिछले 40 वर्षों से इन हाथ से बने सूप के रोजगार पर निर्भर थे उन्हें भीषण गरीबी का सामना करना पड़ा। बांस के सूप की निरंतर घटती मांग के अलावा इनके कारीगरों के सामने और भी कई समस्याएं थी। असंगठित क्षेत्र का रोजगार होने के कारण कच्चे माल का मूल्य, मजदूरी, रोजगार, बिचौलियों की बढ़त ने कारीगरों को उनका वास्तविक मूल्य देने में बाधा डाली।

पीतल के सूप जिन्होंने बांस के सूप और सराई सीकों की जगह ली तो छठ पूजा की विधि इस बदलाव से अछूती नहीं रही। इस बढ़ती डिमांड को पूरा करने के लिए नेपाल से पीतल के सूप का आयात होने लगा। बर्तन बनाने वालों और पीतल के कारीगरों के अनुसार पिछले दशक में पीतल के सूप का आधे से ज्यादा व्यापार नेपाल में केंद्रित हो गया। उनका यह भी कहना है कि पीतल के सूप के व्यापार में सूप बनाने से लेकर उसकी विपणन (Marketing) करने तक की प्रक्रिया में नेपाल, वाराणसी को कड़ी टक्कर दे रहा है। दरअसल लगभग 30 साल पहले पीतल के सूप का चलन वाराणसी से ही शुरू हुआ था। बिहार के लोग इस सूप को खरीदते थे और देखते ही देखते पिछले 10 सालों में पीतल के सूप की डिमांड आसमान छूने लगी। जौनपुर, गाजीपुर और उसके आसपास के गांव के अलावा पास ही पड़ने वाले बिहार के जिलों की मांग को वाराणसी शहर पूरा करता है जबकि बाकी इलाकों में पीतल के सूप की सप्लाई नेपाल करता है। वाराणसी के विश्वनाथ गली, काशीपुरा और ठठेरे बाजार के मार्केट में पीतल और पीतल की पॉलिश वाले सूप का ढेर देखना एक आम बात है।

सूप का इस्तेमाल छठ पूजा में सूर्य देवता की पूजा के दौरान होता है। एक जमाना था जब इसी पूजा में हाथ से बने सूप का इस्तेमाल होता था। हाथ से बने बांस के सूप अनाज की सफाई के लिए भी प्रयोग किए जाते थे। सूप बनाने के इस काम में मुख्यतः 2 वर्ग के लोग शामिल होते थे। पहला वर्ग उन लोगों का था जो घूम घूम कर बात और ताड़ के पत्तों के साथ सराई के इस्तेमाल से रोजमर्रा का सामान बना कर बेचते थे और फिर दूसरी जगह जाकर नए सिरे से अपनी कारीगरी का हुनर दिखा कर सामान बेचते थे। दूसरे वर्ग में वे लोग थे जो स्थाई रूप से यह काम हुकूलगंज, अलीपुर, रामनगर, सुंदरपुर, मलदहिया और लोहटा जैसे इलाकों में करते थे। समय के साथ पारंपरिक बांस से बने सूप की मांग गिरने लगी। आज की कड़वी वास्तविकता यह है कि पीतल या धातु से बने सूप ने पारंपरिक सूप का मार्केट पूरी तरह से हथिया लिया है। धातु के सूप मार्केट में 200 से ₹400 में मिलते हैं जो कि बांस के सूप के मुकाबले कहीं ज्यादा टिकाऊ होते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लोग अब बांस के सूप नहीं खरीद रहे। पहले हाथ से बने सूप कारीगर शहर के बाहरी इलाकों में बनाकर शहर के मुख्य मार्केट में बेच लेते थे, अब मांग के गिरने के कारण यही कारीगर ग्रामीण इलाकों तक सीमित रह गए हैं।

कभी जिस बांस की कला ने इनके जीवन संवारे थे आज वही हाथ से बने सूप के कारीगर बदहाली का शिकार हैं। पहले किसान इन कारीगरों को बांस की टोकरी बनाने का अच्छा खासा आर्डर देते थे और बदले में अनाज भी देते थे। लेकिन जब सस्ते प्लास्टिक से बने सामान ने बाजार में दस्तक दी तो उनको काम मिला लगभग बंद हो गया। पहले यह कारीगर पास के जंगलों से बांस के पेड़ को कच्चे माल की तरह इकठ्ठा करते थे यह प्रक्रिया बहुत समय लेती थी क्योंकि वह पहले बांस की टहनियों को काटते थे और 4 दिनों के लिए इन टहनियों को सूखने के लिए वही छोड़ देते थे। इसके बाद वे इन टहनियों को बैलगाड़ी पर लाद कर नदी किनारे ले जाते थे और उन्हें 2 दिन तक पानी में भीगने देते थे। अंततः उन्हें इकट्ठा करके अपने घरों की छत पर रख लेते थे। इस काम में आने वाली अड़चन की एक वजह यह भी है कि पहले बांस के पेड़ आसानी से मिल जाते थे क्योंकि यह ज्यादातर सरकारी जमीन पर उगाए जाते थे, लेकिन एक सरकारी नीति के कारण यह कारीगर जिन्हें मेदार भी कहा जाता है अब खुद बांस की टहनियां नहीं काट सकते थे और अब उन्हें यही टहनियां केवल सरकारी डिपो से खरीदने की अनुमति थी और यह डिपो शहर से बहुत दूर पड़ता था।

इस कदम ने पारंपरिक बांस की टोकरियों के व्यवसाय की मानो कमर ही तोड़ दी क्योंकि एक समय तक मुफ्त में मिलने वाली टहनियां अब केवल अग्रिम भुगतान पर ही खरीदने को मिलती थी जिस कारण इन कारीगरों को बड़ा नुकसान हुआ और इन्हें किसानों या स्वयं सहायता समूहों से कर्ज लेकर यह टहनियां खरीदनी पड़ती थी जिस वजह से मुनाफा और कम हो गया। ऐसी एक मुश्किल और थी- मौसम में बदलाव, जिस कारण बांस की क्वालिटी में अचानक बहुत बदलाव आ गया। अब टहनियां उतनी मुलायम नहीं रह गई और उन्हें पतले टुकड़ों में काटना मुश्किल हो गया। नतीजा यह हुआ कि कारीगर टहनियों से टोकरी बनाने के बजाय इनका इस्तेमाल मजबूरन आग जलाने के काम में ज्यादा करने लगे। भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय की पहल पर पूरे भारतवर्ष में फैले सामूहिक कारीगरों (Cluster Artisans) को क्रियान्वयन एजेंसी द्वारा तकनीकी पर बाजार संबंधी जानकारियां दी जा रही हैं। इस पोर्टल पर 32 विभिन्न श्रेणियों में 35312 हस्तकला उत्पाद उपलब्ध है, जिससे खरीददार आसानी से खरीद फरोख्त कर सकते हैं। इस कदम के जरिए खरीददार और निर्यातक बिना बिचौलियों के इन कारीगरों तक सीधे पहुंच सकते हैं।

चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में सूप में अनाज फटकती एक महिला का चित्र है। (Youtube)
2. दूसरे चित्र में लक्ष्मी के रूप में माना जाने वाले सूप का पैसों के साथ बनाया गया सांकेतिक चित्रण है। (Prarang)
3. तीसरे चित्र में विभिन्न उपलक्ष्यों पर प्रयुक्त होने वाला सूप है। (Flickr)
4. चौथे चित्र में छठ पूजा के दौरान सूर्य पूजन और उसमें सूप के महत्व को प्रदर्शित किया गया है। (Wikimedia)
5. अंतिम चित्र में पीतल से बनाया गया सूप का चित्र है। (Amazon)

सन्दर्भ :
1. https://bit.ly/2BBVm80
2. https://bit.ly/2BBVpkc
3. http://www.craftclustersofindia.in/site/Home.aspx?mu_id=0