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भारत में सुल्तानों-नवाबों के समय से ही गुलामों का प्रचलन रहा है। उस समय गुलामों की भरमार रहती थी, जिन्हें हब्शी (सिदी या शीदि या बांटु लोग) कहते थे। उस समय के दौरान अरब और पूर्वी अफ्रीकी राज्यों से भारत के व्यापारिक रिश्ते थे और अरब द्वारा चलाये जा रहे दास व्यापार के अंतर्गत गुलाम भी यहां आया करते थे। ये अफ्रीकी दास व्यापार के चलते अपनी मातृभूमि अबीसीनिया (Ethiopia) (उत्तर पूर्वी अफ़्रीका) से समुद्र के माध्यम से दक्कन के पठार तक पहुंच जाते थे। इन अफ्रीकी गुलामों की बड़ी मंडी लगती थी, जहां इनको खरीदा और बेचा जाता था। सिदियों इन्होंने गुलामों, भाड़े के सैनिकों, नाविकों तथा शाही सैनिकों के रूप में काम किया। 'सिदी' शब्द का प्रयोग हिन्दी साहित्य और इतिहास में होता आया है। सिदी शब्द की उत्पत्ति सही से ज्ञात तो नही है परंतु एक परिकल्पना के अनुसार यह शब्द साहिबी से लिया गया है, जो उत्तरी अफ्रीका में “सम्मान” का एक अरबी शब्द है, और दूसरी परिकल्पना के अनुसार इस शब्द की उत्पत्ति अरब जहाजों के कप्तानों द्वारा बनाई गई एक उपाधि से हुई है, जिसने सबसे पहले सिदी के निवासियों को भारत लाया, इन कप्तानों को 'सैय्यद' के नाम से जाना जाता था।
मोरक्को (Morocco) के बहुत ही प्रतिष्ठित विद्वान, इब्न बतूता (Ibn Battuta) बताते है कि ऊंचा कद और गठा हुआ शरीर हब्शी को और गुलामों से अधिक बलवान बनाते थे, जिस वजह से ये रक्षकों के रूप में विख्यात थे। एक जहाज में एक भी हब्शी की उपस्थिति का मतलब ये समझ लिजिये कि समुद्री डाकू उस जहाज से दूर ही रहते थे। माना जाता है कि 628 ईस्वी में भरूच बंदरगाह से पहेली बार सिदी भारत में आये थे। इनमें से अधिकांश हब्शी दिल्ली सल्तनत की सेनाओं के लिए दास और सैनिक बने, कुछ मुहम्मद बिन क़ासिम की अरब सेना का हिस्सा बने, जिन्हे ज़ंजीस (Zanjis) कहा जाता था, इनमें से कुछ को उच्चपदस्थ की भी प्राप्ति भी हुई थी। इन्ही प्रतिष्ठावान सिदियों में से एक जमात-उद-दिन-याकुत भी था, जो रजिया सुल्ताना (दिल्ली सल्तनत की पहली महिला सुल्तान - 1235-1240 सीई) का करीबी विश्वासपात्र था। जिसे रजिया के संरक्षण में अमीर अल-उमरा के रूप में एक विशेषाधिकार प्राप्त हुआ था। परन्तु रज़िया और उसके संरक्षक जमात-उद-दिन-याकुत, के बीच विकसित हो रहे संबंध कई लोगों को पसंद नहीं थे, खासकर तुर्की के मौलवियों और मल्लिक इख्तियार-उद-दिन-अल्तुनिया को। इसके बाद जिन्हें रज़िया का अधिपत्य नामंजूर था उन्होने एक साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। रज़िया और अल्तुनिया के बीच युद्ध हुआ और अंततः रजिया और याकुत की कहानी का दुखद अंत हुआ।
याकुत के आलावा मलिक सरवर भी एक सिदी थे, जो फिरोज शाह तुगलक के मंत्री थे। मलिक सरवर ने ही जौनपुर नामक एक संप्रभु राज्य की नींव रखी और जौनपुर को शर्की साम्राज्य के रूप में स्थापित किया, जो लगभग एक सदी तक सांस्कृतिक एकता के प्रतीक के रूप में जीवित रहा। मध्यकालीन भारत के इतिहासकार जैसे आर.सी. मजूमदार और वोल्स्ले हैग (Wolseley Haig) ने भी बताया कि शर्की अफ्रीकी मूल के थे। मलिक सरवर ने अवध पर अपना अधिकार बढ़ाया और जौनपुर की सल्तनत की स्थापना की। 1394 में, उन्होने खुद को यहां का शासक घोषित किया और 1403 तक राज्य पर शासन किया। मलिक सरवर के राज्य में बिहार, बुंदेलखंड और भोपाल शामिल थे। उन्हें कई पुरानी इमारतों के निर्माण, मरम्मत और पुन: डिजाइन करने का श्रेय दिया जाता है, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध 'बड़ी मंज़िल' है, जिसे पहले एक महल के रूप में जाना जाता था। उन्हें कई नहरों और मस्जिदों के निर्माण का श्रेय भी दिया जाता है। सरवर ने अताबक-ए-आज़म (Atabak-i-Azam) की उपाधि धारण की और अपने नाम के सिक्के भी चलाए। बाद में मलिक सरवर के गोद लिये पुत्र मलिक मुबारक कुरफ़ल जो एक अफ़्रीकी दास थे, ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की और सत्ता संभाली। ये सत्ता सिर्फ एक सदी तक चली, लेकिन इस अवधि के दौरान शर्कियों ने महत्वपूर्ण राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान दिया। उन्होंने कला, वास्तुकला और धार्मिक शिक्षा के संरक्षण के माध्यम से एक स्थायी विरासत भी छोड़ी।
अहमदाबाद में बहुत प्रसिद्ध सिदी सैयद मस्जिद को भी 1572 में एक हब्शी द्वारा बनवाया गया था। कुछ सिदियां वनाच्छादित क्षेत्रों में समुदायों के रूप में बस गये थे, जिससे वे दास बनने से बच गये। कुछ ने काशी के जंजीरा राज्य और काठियावाड़ के जफराबाद राज्य में एक छोटी सी सिदि रियासतों की स्थापना की, जिसका नाम हबशन (Habshan) (यानी, हब्शी की भूमि) था।
दक्खिन के सल्तनतों द्वारा भी सिदियों को दास के रूप में लाया गया था। इनमें से कई लोग अपनी शारीरिक क्षमता और निष्ठा के आधार पर प्रशासन और सेना में असाधारण ऊंचाइयों को प्राप्त कर पाये और इन्ही में से एक थे मलिक अंबर, जिन्होने अहमदनगर सल्तनत के प्रधान मंत्री का पद संभाला था, वो जन्मे तो एक दास के रूप में थे परंतु उन्होने भारत पहुंच के अपना भाग्य खुद लिखा। ओरोमो जनजाति में जन्मे अंबर को बहुत ही कम उम्र में एक अरब व्यापारी को बेच दिया गया था और कई मालिकों के हाथों से होकर अंततः वे भारत आये और उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया तथा उनका नाम बदलकर अम्बर रख लिया। 1571 के आसपास अंबर दक्कन में पहुंचे, जहां उन्होंने अहमदनगर के पेशवा, जो खुद एक अश्वेत व्यक्ति थे, की सेवा की। पेशवा की मृत्यु के बाद, उन्होंने एक स्वतंत्र सेना (अन्य हब्शीयों की मदद से) स्थापित की और आदिल शाह को अपनी मूल्यवान सेवाएं प्रदान की, जिसके लिए उन्हें 'मलिक' की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था। इसके बाद 1590 में उन्होने मुगलों के खिलाफ अपनी सेना का नेतृत्व किया। यह लड़ाई काफी लंबी चली और उन्होने अहमदनगर के सिंहासन पर निज़ाम शाह को वैध सम्राट के रूप में स्थापित करने के लिए ये लड़ाई भी बहादुरी से लड़ी। अंबर एक दशक तक दक्कन की शक्ति का प्रतीक रहे।
बाद में सिदि आबादी को दक्षिण-पूर्व अफ्रीका के बांटु लोगों से जोड़ा गया, जिनको पुर्तगालियों द्वारा दास के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप में लाया गया था। इनमें से अधिकांश प्रवासी मुस्लिम बन गए और कुछ अल्पसंख्यक लोग हिंदू बन गये। आज भी भारत के विभिन्न इलाकों में हब्शी मूल के लोग रहते हैं जिसमें मुख्यतः गुजरात, कर्नाटक, तथा हैदराबाद शामिल हैं। वर्तमान में सिदी की आबादी लगभग 270,000-350,000 व्यक्तियों का अनुमान है, ये मुख्य रूप से मुस्लिम हैं, हालांकि कुछ हिंदू भी हैं और कुछ कैथेलिक भी। इस समुदाय ने आज भी अपनी सांस्कृतिक पहचान को काफी हद तक बचा कर रखा है।