 
                                            | Post Viewership from Post Date to 23- Jan-2021 (5th day) | ||||
|---|---|---|---|---|
| City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Messaging Subscribers | Total | |
| 2628 | 97 | 0 | 2725 | |
| * Please see metrics definition on bottom of this page. | ||||
 
                                            
सोने (Gold) के लिए भारतीयों का प्रेम किसी से छुपा नहीं है, देश में शायद ही ऐसी कोई भारतीय स्त्री होगी जो स्वर्ण आभूषण से प्रेम नहीं करती हो। स्वर्ण के प्रति हमारा आकर्षण 5,000 वर्ष पहले सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान आरम्भ हुआ। सोने का भारतीय प्रेम धन प्राप्ति का साधन हो सकता है। लेकिन आभूषणों का भारतीय प्रेम वास्तव में मनुष्य की आकांक्षाओं के सौंदर्य का प्रेम है जोकि आभूषणों के रूप (Form), डिजाइन (Design) और रंग (Color) में दिखाई देता है। भारत में स्वर्ण आभूषणों के इतिहास में खुद देश के इतिहास का विवरण शामिल है। 5,000 वर्षों की विरासत के साथ, भारत के आभूषण देश के सौंदर्य और सांस्कृतिक इतिहास की एक शानदार अभिव्यक्ति है। देश में विभिन्न अवधियों और विभिन्न भागों से जीवित रहने वाले गहनें, साहित्य, रत्नविज्ञान, मिथक,पौराणिक कथाओं, वृत्तांतों, किंवदंतियों और ग्रंथों से समर्थित परम्परा के साक्ष्य के ये अध्याय विश्व में बेमिसाल हैं। आइये, विभिन्न कालखंडों के दौरान भारतीय आभूषणों की विकास यात्रा पर एक नजर डालते हैं। पहले भारत 2,000 से अधिक वर्षों तक, दुनिया में रत्न का एकमात्र आपूर्तिकर्ता था। गोलकुंडा (Golconda) के हीरे, कश्मीर से नीलम (Sapphires) और मन्नार की खाड़ी (Gulf of Mannar) से मोती भारत से समुद्र के रास्ते बेचे जाते थे, जिससे सभी व्यापारियों का ध्यान भारत की ओर केंद्रीत किया। शासकों के लिए, गहनें शक्ति, समृद्धि और प्रतिष्ठा के प्रतीक थे। उस समय, भारत दुनिया में मोतियों का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक था। सिंधु घाटी सभ्यता के कारीगरों ने कारेलियन (Carnelian), अगेट (Agate), फ़ाइनेस (Faience), स्टीटाइट (Steatite) और फेल्डस्पार (Feldspar) जैसी अर्ध-कीमती रत्नों का इस्तेमाल सोने के साथ किया। सिन्धु घाटी सभ्यता में लोगों का सौंदर्य बोध, जटिल अभियांत्रिकी कौशल, और विशेषज्ञता अच्छी तरह विकसित हो चुकी थी, वे इस कला में बेहद परिष्कृत थे। राजस्थानी बोरला (Borla) की उत्पत्ति सिन्धु घाटी के उस आभूषण से हुई जिसे ललाट पर धारण किया जाता था। यह आभूषण प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के बेहतरीन उदाहरणों में से एक दीदारगंज यक्षिणी (Didarganj Yakshi) के ललाट पर दिखाई देता है। मोहनजोदड़ो (Mohenjo-daro) के पतन के बाद, भारतीय शिल्पकारों ने अपने कौशल को बहुत अधिक पॉलिश (Polish) किया, जिससे भारतीय आभूषण और अधिक कोमल एवं जटिल हो गये। इसलिए इस अवधि के दौरान नाजुक और बड़े झुमकों में सूक्ष्म दानेदार काम शुरू हुआ। 
भरहुत (Bharhu), सांची (Sanchi) और अमरावती (Amaravati) की मूर्तियां तथा अजंता (Ajanta) की पेंटिंग में राजा और आम लोगों द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों की एक विस्तृत श्रृंखला को दर्शाया गया है। संगम काल के तमिल साहित्य के पांच महान ग्रंथों में से एक, सिलाप्पदिकरम (Silappadikaram) में एक समाज का वर्णन है जो स्वर्ण, कीमती रत्नों और मोतियों का कारोबार करता था। एक पुर्तगाली यात्री ने अपने वृत्तान्त में विजयनगर साम्राज्य में लोगों द्वारा पहने जाने वाले चमकदार आभूषणों का विवरण दिया है। प्रारंभ में, इन जटिल माणिक और पन्ना जडित आभूषणों का उपयोग केवल मंदिरों में मूर्तियों को सजाने के लिए किया जाता था। इस तरह के आभूषणों ने देवताओं और पौराणिक ब्रह्मांड के साथ विशेष संबंध को दर्शाया। किन्तु समय के साथ जब भरतनाट्यम (Bharatnatyam) का व्यापक प्रसार हुआ, तब मंदिरों के इन आभूषणों को दर्शकों को रिझाने के लिये नर्तकियां भी धारण करने लगी और कालक्रम में यह आम लोगों के लिए भी प्रचलित हो गया।
पहले भारत 2,000 से अधिक वर्षों तक, दुनिया में रत्न का एकमात्र आपूर्तिकर्ता था। गोलकुंडा (Golconda) के हीरे, कश्मीर से नीलम (Sapphires) और मन्नार की खाड़ी (Gulf of Mannar) से मोती भारत से समुद्र के रास्ते बेचे जाते थे, जिससे सभी व्यापारियों का ध्यान भारत की ओर केंद्रीत किया। शासकों के लिए, गहनें शक्ति, समृद्धि और प्रतिष्ठा के प्रतीक थे। उस समय, भारत दुनिया में मोतियों का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक था। सिंधु घाटी सभ्यता के कारीगरों ने कारेलियन (Carnelian), अगेट (Agate), फ़ाइनेस (Faience), स्टीटाइट (Steatite) और फेल्डस्पार (Feldspar) जैसी अर्ध-कीमती रत्नों का इस्तेमाल सोने के साथ किया। सिन्धु घाटी सभ्यता में लोगों का सौंदर्य बोध, जटिल अभियांत्रिकी कौशल, और विशेषज्ञता अच्छी तरह विकसित हो चुकी थी, वे इस कला में बेहद परिष्कृत थे। राजस्थानी बोरला (Borla) की उत्पत्ति सिन्धु घाटी के उस आभूषण से हुई जिसे ललाट पर धारण किया जाता था। यह आभूषण प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के बेहतरीन उदाहरणों में से एक दीदारगंज यक्षिणी (Didarganj Yakshi) के ललाट पर दिखाई देता है। मोहनजोदड़ो (Mohenjo-daro) के पतन के बाद, भारतीय शिल्पकारों ने अपने कौशल को बहुत अधिक पॉलिश (Polish) किया, जिससे भारतीय आभूषण और अधिक कोमल एवं जटिल हो गये। इसलिए इस अवधि के दौरान नाजुक और बड़े झुमकों में सूक्ष्म दानेदार काम शुरू हुआ। 
भरहुत (Bharhu), सांची (Sanchi) और अमरावती (Amaravati) की मूर्तियां तथा अजंता (Ajanta) की पेंटिंग में राजा और आम लोगों द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों की एक विस्तृत श्रृंखला को दर्शाया गया है। संगम काल के तमिल साहित्य के पांच महान ग्रंथों में से एक, सिलाप्पदिकरम (Silappadikaram) में एक समाज का वर्णन है जो स्वर्ण, कीमती रत्नों और मोतियों का कारोबार करता था। एक पुर्तगाली यात्री ने अपने वृत्तान्त में विजयनगर साम्राज्य में लोगों द्वारा पहने जाने वाले चमकदार आभूषणों का विवरण दिया है। प्रारंभ में, इन जटिल माणिक और पन्ना जडित आभूषणों का उपयोग केवल मंदिरों में मूर्तियों को सजाने के लिए किया जाता था। इस तरह के आभूषणों ने देवताओं और पौराणिक ब्रह्मांड के साथ विशेष संबंध को दर्शाया। किन्तु समय के साथ जब भरतनाट्यम (Bharatnatyam) का व्यापक प्रसार हुआ, तब मंदिरों के इन आभूषणों को दर्शकों को रिझाने के लिये नर्तकियां भी धारण करने लगी और कालक्रम में यह आम लोगों के लिए भी प्रचलित हो गया।  मुगलों के आगमन के बाद (16 वीं शताब्दी) परम्परागत भारतीय आभूषण और भी अलंकृत हो गए और इनके निर्माण में नवोन्मेषी तकनीकों का प्रयोग होने लगा, भारतीय और मध्य एशियाई शैलियों तथा पैटर्न के संलयन के परिणामस्वरूप अलंकरण और भी सुरुचिपूर्ण हो गया, जिसके फलस्वरूप अत्यंत आकर्षक, भड़कीले और उत्कृष्ट आभूषण सामने आए, जैसा दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था। प्राचीन तक्षशिला (Taxila) नगर में आभूषणों पर मीनाकारी का काम आरम्भ हुआ। यह तकनीक मुगलों के संरक्षण में परवान चढी। धीरे-धीरे प्राचीन भारतीय बनावटों में रूपांतरण हुआ और इनमें प्रकृति के प्रेरित फूलों, और विभिन्न ज्यामितीय रूपरेखा का समावेश हुआ। मुगल काल में कारीगरों द्वारा शुद्ध सोने में कीमती पत्थर स्थापित करने की कुंदन कला भी प्रसिद्ध थी। इसके बाद भारतीय कारीगरों ने मुग़ल कुंदन और जड़ाऊ (Jadau) तकनीकों में महारत हासिल की और अपनी खुद की विशिष्ट डिजाईन बनाने में अपनी अनुपम कला का समावेश किया। मुगल डिजाइनों में हरे, लाल और सफेद रंग के पैर्टन के साथ पन्ना, माणिक और हीरों का उपयोग किया जाता था। जितना ये रत्न साम्राज्य की भव्यता और प्रतिष्ठा का प्रतीक थे, उतने ही सुरक्षात्मक यंत्र भी थे। माना जाता है कि जड़ाऊ तकनीक को मुगलों द्वारा भारत लाया गया था। लेकिन राजस्थान और गुजरात के भारतीय कारीगरों ने इस शिल्प को पूरा किया और इसमें अपना अद्वितीय स्पर्श जोड़ा। कुछ बेहतरीन सुनारों ने मुगल संरक्षण के तहत काम किया। 
राजस्थान ने निस्संदेह भारतीय और मुगल शैली के निर्माण में बड़ा योगदान दिया। उस समय मुगल आभूषण राजपूतों से प्रभावित थे, क्योंकि राजपूत राजकुमारियों ने मुगल राजघराने से शादी की जिससे राजपूत शिल्प कौशल और मुगल नाजुक कलात्मकता का संयोजन शुरू हुआ। इनमें हार, अंगूठी, झुमके और कीमती पत्थरों और रत्नों से बनी कई अन्य चीजें शामिल थी। उस समय की विभिन्न कलाकृतियों की खुदाई में मिले आभूषण, कलाकारों की मौलिकता और रचनात्मकता के साथ-साथ पारंपरिक इस्लामिक और भारतीय शैलियों की अनुकूलन क्षमता को दर्शाते हैं। मुगलों के अलावा, अन्य इस्लामिक शक्तियों ने भी भारत पर अपना वर्चस्व कायम किया है, जिसमें गजनवीद (Ghaznavid), तुर्की (Turkish) और अफगान (Afghan) के राजवंश शामिल थे और इन सभी सामूहिक प्रभावों को भारत के जीवन, कला, वास्तुकला और शिल्प सहित आभूषणों में देखा गया। उस समय आभूषणों को केवल महिलाओं के लिये ही नहीं पुरूषों के लिये भी बनाये गये। पगड़ी के आभूषण 17 वीं शताब्दी में स्थापित परंपराओं के मुख्य आभूषण थे। अकबर ने पगड़ी के सामने अपने उभरे हुए पंखों को रखकर ईरानी कला का अनुसरण किया, तो जहाँगीर ने बड़े मोतियों का उपायोग कर अपनी खुद की नई शैली विकसित की। मुगल सम्राटों ने भारत के अधिकांश हिस्सों पर विजय प्राप्त की, और परिणामस्वरूप, उनका प्रभाव उत्तर भारत से आगे बढ़ा। मुगल शैली प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के आभूषणों में दिखाई देती है। हैदराबाद के आसफ जाही निजामों (Asaf Jahi Nizam) को भी उनके महान रत्नों के लिए प्रसिद्ध माना गया था। अंतिम निज़ाम, मीर उस्मान अली खान (Mir Osman Ali Khan) (जिन्हें टाइम पत्रिका (TIME Magazine) द्वारा दुनिया का सबसे अमीर आदमी कहा गया था) के पास गहनों का अविश्वसनीय संग्रह था।
19 वीं सदी के अंत और 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारतीय आभूषणों की रूपरेखा पर देश के औपनिवेशिक शासन का प्रभाव पर पड़ने लगा। धीरे- धीरे डिजाइन और भी विकसित तथा जटिल होने लगे। प्रतिष्ठित यूरोपीय आभूषण निर्माता कार्टिअर (Cartier) ने महाराजों के लिए आभूषण बनाना आरम्भ किया। इसके अलावा कार्टिअर की लोकप्रिय “टुट्टी फ्रुट्टी” (Tutti Frutti) शैली पर माणिक, पन्ना और नीलम जडित दक्षिण भारतीय पुष्प आकृतियों का प्रभाव था। भारतीय आभूषणों की कहानी दुनिया के सबसे प्रसिद्ध रत्न “कोहिनूर” (Kohinoor) के उल्लेख के बिना अधूरी है। किंवदंतियों के अनुसार, 13 वीं शताब्दी में, आंध्र प्रदेश के गुंटूर (Guntur) में हीरा पाया गया था। वर्तमान में यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) में लंदन के टॉवर (Tower of London) में रखा गया है, हीरे का स्वामित्व चार देशों - भारत, पाकिस्तान (Pakistan), अफगानिस्तान (Afghanistan) और ब्रिटेन (Britain) द्वारा बहुत विवादित रहा है। इसके अलावा होप डायमंड (Hope Diamond) भी दुनिया के सबसे शानदार रत्नों में से एक है जिसे रत में खोजा गया था और माना जाता है कि यह चमकदार नीला रत्न एक शापित पत्थर है और अपने मालिक के लिये दुर्भाग्य लाता है। यद्यपि भारतीय आभूषणों की विकास यात्रा काफी लम्बी रही है, परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस यात्रा से स्वर्ण का आकर्षण बढ़ा है और इसके प्रति आकर्षण में वृद्धि हुयी है। भारतीय रत्नों और उनके पीछे की आकर्षक कहानियों के बारे में अधिक जानकारी दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय (National Museum) की आलमकारा गैलरी (Alamkara gallery) से मिलती है। यह भारत में आभूषणों का सबसे व्यापक संग्रह है।
मुगलों के आगमन के बाद (16 वीं शताब्दी) परम्परागत भारतीय आभूषण और भी अलंकृत हो गए और इनके निर्माण में नवोन्मेषी तकनीकों का प्रयोग होने लगा, भारतीय और मध्य एशियाई शैलियों तथा पैटर्न के संलयन के परिणामस्वरूप अलंकरण और भी सुरुचिपूर्ण हो गया, जिसके फलस्वरूप अत्यंत आकर्षक, भड़कीले और उत्कृष्ट आभूषण सामने आए, जैसा दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था। प्राचीन तक्षशिला (Taxila) नगर में आभूषणों पर मीनाकारी का काम आरम्भ हुआ। यह तकनीक मुगलों के संरक्षण में परवान चढी। धीरे-धीरे प्राचीन भारतीय बनावटों में रूपांतरण हुआ और इनमें प्रकृति के प्रेरित फूलों, और विभिन्न ज्यामितीय रूपरेखा का समावेश हुआ। मुगल काल में कारीगरों द्वारा शुद्ध सोने में कीमती पत्थर स्थापित करने की कुंदन कला भी प्रसिद्ध थी। इसके बाद भारतीय कारीगरों ने मुग़ल कुंदन और जड़ाऊ (Jadau) तकनीकों में महारत हासिल की और अपनी खुद की विशिष्ट डिजाईन बनाने में अपनी अनुपम कला का समावेश किया। मुगल डिजाइनों में हरे, लाल और सफेद रंग के पैर्टन के साथ पन्ना, माणिक और हीरों का उपयोग किया जाता था। जितना ये रत्न साम्राज्य की भव्यता और प्रतिष्ठा का प्रतीक थे, उतने ही सुरक्षात्मक यंत्र भी थे। माना जाता है कि जड़ाऊ तकनीक को मुगलों द्वारा भारत लाया गया था। लेकिन राजस्थान और गुजरात के भारतीय कारीगरों ने इस शिल्प को पूरा किया और इसमें अपना अद्वितीय स्पर्श जोड़ा। कुछ बेहतरीन सुनारों ने मुगल संरक्षण के तहत काम किया। 
राजस्थान ने निस्संदेह भारतीय और मुगल शैली के निर्माण में बड़ा योगदान दिया। उस समय मुगल आभूषण राजपूतों से प्रभावित थे, क्योंकि राजपूत राजकुमारियों ने मुगल राजघराने से शादी की जिससे राजपूत शिल्प कौशल और मुगल नाजुक कलात्मकता का संयोजन शुरू हुआ। इनमें हार, अंगूठी, झुमके और कीमती पत्थरों और रत्नों से बनी कई अन्य चीजें शामिल थी। उस समय की विभिन्न कलाकृतियों की खुदाई में मिले आभूषण, कलाकारों की मौलिकता और रचनात्मकता के साथ-साथ पारंपरिक इस्लामिक और भारतीय शैलियों की अनुकूलन क्षमता को दर्शाते हैं। मुगलों के अलावा, अन्य इस्लामिक शक्तियों ने भी भारत पर अपना वर्चस्व कायम किया है, जिसमें गजनवीद (Ghaznavid), तुर्की (Turkish) और अफगान (Afghan) के राजवंश शामिल थे और इन सभी सामूहिक प्रभावों को भारत के जीवन, कला, वास्तुकला और शिल्प सहित आभूषणों में देखा गया। उस समय आभूषणों को केवल महिलाओं के लिये ही नहीं पुरूषों के लिये भी बनाये गये। पगड़ी के आभूषण 17 वीं शताब्दी में स्थापित परंपराओं के मुख्य आभूषण थे। अकबर ने पगड़ी के सामने अपने उभरे हुए पंखों को रखकर ईरानी कला का अनुसरण किया, तो जहाँगीर ने बड़े मोतियों का उपायोग कर अपनी खुद की नई शैली विकसित की। मुगल सम्राटों ने भारत के अधिकांश हिस्सों पर विजय प्राप्त की, और परिणामस्वरूप, उनका प्रभाव उत्तर भारत से आगे बढ़ा। मुगल शैली प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के आभूषणों में दिखाई देती है। हैदराबाद के आसफ जाही निजामों (Asaf Jahi Nizam) को भी उनके महान रत्नों के लिए प्रसिद्ध माना गया था। अंतिम निज़ाम, मीर उस्मान अली खान (Mir Osman Ali Khan) (जिन्हें टाइम पत्रिका (TIME Magazine) द्वारा दुनिया का सबसे अमीर आदमी कहा गया था) के पास गहनों का अविश्वसनीय संग्रह था।
19 वीं सदी के अंत और 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारतीय आभूषणों की रूपरेखा पर देश के औपनिवेशिक शासन का प्रभाव पर पड़ने लगा। धीरे- धीरे डिजाइन और भी विकसित तथा जटिल होने लगे। प्रतिष्ठित यूरोपीय आभूषण निर्माता कार्टिअर (Cartier) ने महाराजों के लिए आभूषण बनाना आरम्भ किया। इसके अलावा कार्टिअर की लोकप्रिय “टुट्टी फ्रुट्टी” (Tutti Frutti) शैली पर माणिक, पन्ना और नीलम जडित दक्षिण भारतीय पुष्प आकृतियों का प्रभाव था। भारतीय आभूषणों की कहानी दुनिया के सबसे प्रसिद्ध रत्न “कोहिनूर” (Kohinoor) के उल्लेख के बिना अधूरी है। किंवदंतियों के अनुसार, 13 वीं शताब्दी में, आंध्र प्रदेश के गुंटूर (Guntur) में हीरा पाया गया था। वर्तमान में यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) में लंदन के टॉवर (Tower of London) में रखा गया है, हीरे का स्वामित्व चार देशों - भारत, पाकिस्तान (Pakistan), अफगानिस्तान (Afghanistan) और ब्रिटेन (Britain) द्वारा बहुत विवादित रहा है। इसके अलावा होप डायमंड (Hope Diamond) भी दुनिया के सबसे शानदार रत्नों में से एक है जिसे रत में खोजा गया था और माना जाता है कि यह चमकदार नीला रत्न एक शापित पत्थर है और अपने मालिक के लिये दुर्भाग्य लाता है। यद्यपि भारतीय आभूषणों की विकास यात्रा काफी लम्बी रही है, परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस यात्रा से स्वर्ण का आकर्षण बढ़ा है और इसके प्रति आकर्षण में वृद्धि हुयी है। भारतीय रत्नों और उनके पीछे की आकर्षक कहानियों के बारे में अधिक जानकारी दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय (National Museum) की आलमकारा गैलरी (Alamkara gallery) से मिलती है। यह भारत में आभूषणों का सबसे व्यापक संग्रह है।
 
                                         
                                         
                                         
                                        