शिक्षा में बहुभाषावाद का महत्व

ध्वनि II - भाषाएँ
22-02-2021 10:04 AM
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शिक्षा में बहुभाषावाद का महत्व
भाषा, सभी मनुष्यों और समाज का एक अनिवार्य हिस्सा है। प्रत्येक बच्चा अपनी मातृभाषा को स्वाभाविक रूप से सीख जाता है। इससे भाषाओं को सीखने के लिए मनुष्यों की प्राकृतिक प्रवृत्ति और विशेषताएँ प्रदर्शि‍त होती हैं। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हम औपचारिक या अनौपचारिक स्थितियों से कई और भाषाएँ सीखते हैं। भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है और यही विशेषता उसे दुनिया में एक विशिष्ट और उदार राष्ट्र बनती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में तो किसी एक भाषा के सहारे काम चल ही नहीं सकता है। हमें अपनी बात बाकी लोगों तक पहुंचाने के लिए और उनके साथ संवाद करने के लिए एक भाषा से दूसरे भाषा के बीच आवाजाही करनी ही पड़ती है। इस देश मे हर प्रान्त की अपनी एक अलग भाषा है। यहां अनेकों लोग ऐसे है जो अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषा का भी ज्ञान रखते हैं वे द्विभाषावाद (Bilingualism) के अंतर्गत आते है, (द्विभाषावाद एक व्यक्ति या एक समुदाय के सदस्यों को दो भाषाओं का प्रभावी ढंग से उपयोग करने की क्षमता है) और अनेकों लोग ऐसे भी है जो दो भाषाओं से अधिक भाषाओं का भी ज्ञान रखते है, वे बहुभाषावाद (Multilingualism) के अंतर्गत आते है, (बहुभाषावाद एक व्यक्ति या एक समुदाय के सदस्यों को दो से अधिक भाषाओं का प्रभावी ढंग से उपयोग करने की क्षमता है)। इस देश में चार प्रमुख भाषा परिवारों से संबंधित एक हजार से अधिक स्वदेशी भाषाओं, धर्मों और विचारों के भेद के बावजूद समन्वय की एक सांस्कृतिक अंतर्धारा सदैव प्रवाहित होती रही है। अर्थात हमारा देश बहुभाषी देश है जिसका असर शिक्षा क्षेत्र मे भी पड़ता है।


भारत शायद एक ऐसा अनूठा देश है जहां भाषाई विविधता राज्य विभाजन का एक स्तंभ रही है। बहुभाषिकता यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। बहुभाषिकता पर हुए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि ये समाज में संप्रेषण को बाधित करने के बजाय सहायता प्रदान करती है। देश की प्रमुख साहित्यिक भाषाएँ असमिया, बंगाली, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू हैं और 1500 से अधिक अन्य भाषाएं बोली भी जाती है। इन सभी भाषाओं के इस व्यापक उपयोग के साथ एक सवाल यह भी उठता है कि ऐसा क्या है इस देश में जो अभी भी इस देश ने एकजुटता और एकीकरण में बनाए रखा है, शायद इसका जवाब हमारी विविधता और उसके प्रति सम्मान में छुपा हुआ है। पहले के समय में बहुभाषी शिक्षा भारत में अस्तित्व में नहीं थी और अभी भी नहीं है, हालांकि बहुभाषी शिक्षा का प्रस्ताव दिया जा चुका है। उपनिवेशीकरण होने से पहले शिक्षा किसी भी एक भाषा में होती थी लेकिन उच्च शिक्षा ज्यादातर संस्कृत जैसी भाषाओं में दी जाती थी क्योंकि यह धार्मिक ग्रंथों की भाषा थी। इसके बाद उपनिवेशीकरण के साथ इस देश में शिक्षा के माध्यम में एक अलग बदलाव आया है। अंग्रेजी वह भाषा बन गई जिसने ब्रिटिश शासन प्रणाली के भीतर सत्ता और स्थिति को एक पहुंच प्रदान की। यह न केवल देश की शिक्षा प्रणाली की भाषा थी, बल्कि इसे बहुत जल्द ही शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम माना जाने लगा। सिर्फ इतना ही नहीं, अंग्रेजी को प्रशासन के लिए एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया। इस प्रकार, स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेजी का महत्व बरकरार रहा लेकिन भारतीय भाषाओं को शिक्षा प्रणाली में पुनर्जीवित करने के लिए बाद में एक प्रयास किया गया, स्वतंत्रता के बाद की अवधि में शिक्षा को समाज के अल्पसंख्यक वर्गों तक पहुचाने के लिए शिक्षा मातृभाषा में उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया।
भारत सहित अधिकांश विश्व में बहुभाषी विद्यार्थी अपवाद नहीं बल्कि आदर्श हैं। एक से अधिक भाषा ज्ञान के संज्ञानात्मक और व्यावहारिक लाभ के कई शोध और प्रमाण हैं। इस प्रकार का ज्ञान अध्यापन और शिक्षण का अद्भुत साधन है। इसके माध्यम से एक शिक्षक छात्रों का संज्ञानात्मक, सामाजिक, चिन्तन, व बौद्धिक क्षमताओं का विकास आसानी से कर सकता है। विभिन्न भाषाओं का प्रयोग सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमुख माध्यम है, जो छात्रों को कई तरह की संस्कृति से परिचित कराती है। हमारे देश में वर्तमान में मातृभाषा शिक्षा का संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right to Mother-Tongue) में अनेक चुनौतिओं के अवलोकन करने के बाद स्कूलों में तीन-भाषा सूत्र (Three-Language Formula) का सुझाव दिया गया है। इस बहुभाषी शिक्षा प्रणाली (Multilingual Education system-MLE) के अनुसार, एक क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा, अंग्रेजी या हिंदी और एक अन्य भारतीय भाषा का उपयोग शिक्षा के लिए किया जायेगा। हालांकि, क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा केवल प्राथमिक (primary) वर्षों में ही दी जायेगी। शिक्षा में बहुभाषावाद सांस्कृतिक जागरूकता का निर्माण करती है और रचनात्मकता को बढ़ावा देती है। बहुभाषावाद को समाज के भीतर कई भाषाओं का सह-अस्तित्व माना जाता है, ये भाषाएँ आधिकारिक या अनौपचारिक, देशी या विदेशी और राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय हो सकती हैं। इसी विविधता के कारण छात्रों में विविध भाषायी कौशलों के अधिगम (सुनने, बोलने, पढ़ने ओर लिखने) का विकास होता है।


परंतु इस बहुभाषावाद शिक्षा प्रणाली में यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि भारत बहुभाषिक देश है, यहां के लगभग हर क्षेत्र की भाषा में अन्तर है और छात्रों पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है, जो शिक्षण प्रक्रिया को बाधित करता है। क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव भाषायी कौशलों पर भी पड़ सकता है, इसलिये इन भाषाओं को लोगों पर थोपने से बचने की कोशिश करनी होगी, क्योंकि यह विभिन्न जातीय और समुदायों के बीच तनाव पैदा कर सकता है। यह भी देखा गया है कि विदेशी भाषा थोपने से मातृभाषा लुप्त हो गई है। आज दुनिया में 3,000 से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं जो लुप्त होने की कगार पर है और उनमें से कई लुप्त भी हो गई है। उदाहरण के लिए केन्या (Kenya) में, सूबा (Suba), एल्मोलो (Elmolo), ओरोपोम (Oropom), लार्कोटी (Lorkoti), और याकू (Yaaku) आदि भाषाओं को आज लुप्तप्राय माना जाता है। भाषा लुप्त होने का कारण मुख्य रूप से दूसरों पर भाषाएं थोपना, भाषा उपनिवेशवाद, विदेशी तानाशाही और भाषाओं को आत्मसात करना है। इसलिये समाज की संरचना के आधार पर, बहुभाषावाद में स्वदेशी, राष्ट्रीय, आधिकारिक और विदेशी भाषाओं को भाषा नीति विकास और शिक्षा में समान रूप से उपयोग में लाया जाना चाहिए। बच्चों को प्राथमिक स्तर की विद्यालयी शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जाए, जिससे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया सरल एवं छात्रों के लिए सहज हो सके। बच्चे प्रारम्भ से ही सही तरीके से और बिना थोपे बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त कर सकें, इसके लिए त्रिभाषा फॉर्मूला (Trilingual Formula) को उसके मूलभाव के साथ लागू किए जाने की जरूरत है , ताकि वह बहुभाषी देश में बहुभाषी संवाद के माहौल को बढ़ावा दे सके।

संदर्भ:
https://bit.ly/3skACGZ
https://bit.ly/3saNrn5
https://bit.ly/3sd7Fwr
https://bit.ly/3pHanbI

चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र बहुभाषावाद को दर्शाता है। (प्रारंग)
दूसरी तस्वीर में भारतीय मुद्रा में प्रयुक्त विभिन्न भाषाओं को दिखाया गया है। (विकिमीडिया)
तीसरी तस्वीर रेलवे स्टेशन में बहुभाषावाद को दर्शाती है। (विकिमीडिया)