 
                                            समय - सीमा 268
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जीव-जंतु 306
 
                                            गौर से देखा जाए तो मूर्तियाँ कई मायनों में इंसानों के लिए अहम् साबित होती हैं, जहाँ दुर्लभ मूर्तियों से हम
प्राचीन काल के इतिहास और सभ्यता को बेहतर समझ सकते हैं, वहीँ ये धार्मिक नज़रिए से भी बहुत अहम्
हो जाती हैं। खासतौर पर हिंदु धर्म में मूर्तियों की अहमियत सर्वज्ञ है, जहाँ पर इनसे धार्मिक भावनाएँ और
आस्था बेहद गहराई से जुडी हुई है। वस्तुतः भारत में प्राचीन समय से ही मूर्तियों का निर्माण और विकास
होता आ रहा है, परंतु गुप्तकाल के दौरान (जिसे भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है) इन्होंने अभूतपूर्व
वृद्धि और लोकप्रियता हासिल की।
भारत में गुप्त काल अथवा गुप्त साम्राज्य तीसरी शताब्दी CE के मध्य से 543 CE तक की अवधि तक
अस्तित्व में था, और 319 से 467 CE के बीच अपने चरम पर रहा। इस साम्राज्य ने अधिकांश भारतीय
उपमहाद्वीप को अपनी छत्रछाया में लिया हुआ था। इस साम्राज्य का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर
प्रदेश और बिहार में था, जिसके पहले शासक चन्द्रगुप्त प्रथम रहे। भारत में प्रतिमाओं के विकास में भी इस
दौर की अहम् भागीदारी रही, विशेष रूप से अधिकांश मूर्तियों का केंद्र विष्णु पूजा को रखा गया। जिसका
साक्ष्य चौथी शताब्दी की कई मूर्तियों जैसे विष्णु चतुरानाना ("चार-सशस्त्र") , वासुदेव-कृष्ण की प्राप्त
प्रतिमाओं से मिलता है। इसी काल की कुछ अन्य विष्णु मूर्तियों में चार सिरों वाले विष्णु की प्रतिमा भी
शामिल है, जिसे विष्णु वैकुंठ चतुरमूर्ति या चतुर्व्यूह के नाम से भी जाना जाता है। गुप्त वंश के शाशक और
प्रजा श्री कृष्ण को देवताओं में सर्वोच्च मानते थे, जिन्हे वे भगवान् विष्णु का ही एक अवतार मानते थे।
उन्हें त्रिदेवों (ब्रह्माः, विष्णु, महेश) "संरक्षक" के रूप में जाना जाता है। हिंदू वैष्णववाद परंपरा में, विष्णु को
सर्वोच्च माना गया-गया है, जो ब्रह्मांड की रचना, रक्षा और परिवर्तन करते हैं। उनकी अधिकांश प्रतिमाओं
में उन्हें पत्नी लक्ष्मी के साथ क्षीरा सागर नामक दूध के प्राचीन सागर में तैरते हुए नाग आदिशेष (जो समय
का प्रतिनिधित्व करता है) के कुंडल पर सोते हुए एक सर्वज्ञ के रूप में चित्रित किया जाता है। गुप्त काल
तथा इसके बाद में भी भगवान् विष्णु के विभन्न अवतारों की अद्भुद प्रतिमाएँ बनाई गई। उन प्रतिमाओं के
माध्यम से उनके अवतारों की विशेषता को भी समझते हैं। वराहावतार:
हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के 10 अवतार माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब दानव हिरण्याक्ष ने
पृथ्वी को जल में डुबो दिया था, तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी को बचाया था। मध्य
भारत के मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों में गुप्त युग (चौथी-छठी शताब्दी) के बड़ी संख्या में वराह मूर्तियाँ
और शिलालेख मिले हैं। 10 वीं शताब्दी तक, वराह को समर्पित मंदिर उदयपुर, झांसी आदि में स्थापित
किए गए थे, जिनमे से अधिकांशतः अब खंडहर हो चुके हैं। वराहावतार में भगवान् विष्णु का सिर सूअर
तथा धड़ मानव का दर्शाया जाता है। सूअर को पहली सहस्राब्दी में "शक्ति के प्रतीक" के रूप में माना जाता
था।
वराहावतार:
हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के 10 अवतार माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब दानव हिरण्याक्ष ने
पृथ्वी को जल में डुबो दिया था, तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी को बचाया था। मध्य
भारत के मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों में गुप्त युग (चौथी-छठी शताब्दी) के बड़ी संख्या में वराह मूर्तियाँ
और शिलालेख मिले हैं। 10 वीं शताब्दी तक, वराह को समर्पित मंदिर उदयपुर, झांसी आदि में स्थापित
किए गए थे, जिनमे से अधिकांशतः अब खंडहर हो चुके हैं। वराहावतार में भगवान् विष्णु का सिर सूअर
तथा धड़ मानव का दर्शाया जाता है। सूअर को पहली सहस्राब्दी में "शक्ति के प्रतीक" के रूप में माना जाता
था।
 नरसिंह अवतार:
विष्णु के पूजनीय अवतार (नरसिंह=नर+सिंह) की मूर्तियाँ भी गुप्त साम्राज्य दौर में बनाई गई। जहाँ
भगवान् विष्णु का सिर शेर का है, और शरीर मानव का साथ ही चेहरा एवं पंजे भी सिंह की तरह दर्शाए जाते
हैं। भगवान् विष्णु के इस अवतार को खासतौर पर दक्षिक भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा एक
देवता के रूप में पूजा जाता हैं, जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं। कुषाण युग
के कुछ सिक्कों में नरसिंह जैसी छवियाँ दिखाई देती हैं। आंध्र प्रदेश में, तीसरी-चौथी शताब्दी ईस्वी के एक
पैनल में एक पूर्ण थियोमॉर्फिक स्क्वाटिंग (theomorphic squatting) शेर दिखाया गया है, जिसके कंधों
के पीछे वैष्णव प्रतीक हैं, तथा पांच नायकों (वीर) से घिरे इस शेर को अक्सर नरसिंह के प्रारंभिक चित्रण के
रूप में पहचाना जाता है। यह छवियाँ प्रारंभिक गुप्त काल से नरसिंह की स्थायी पंथ छविओं के तौर पर
तिगोवा और एरण के मंदिरों से अभी शेष हैं। भगवान नरसिंह द्वारा राक्षस हिरण्यकशिपु को मारने की
कथा का प्रतिनिधित्व करने वाले दो चित्र गुप्त-काल के मंदिरों में अभी भी जीवित हैं: दोनों पाँचवीं शताब्दी
के अंत या छठी शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ की मानी जाती हैं।
नरसिंह अवतार:
विष्णु के पूजनीय अवतार (नरसिंह=नर+सिंह) की मूर्तियाँ भी गुप्त साम्राज्य दौर में बनाई गई। जहाँ
भगवान् विष्णु का सिर शेर का है, और शरीर मानव का साथ ही चेहरा एवं पंजे भी सिंह की तरह दर्शाए जाते
हैं। भगवान् विष्णु के इस अवतार को खासतौर पर दक्षिक भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा एक
देवता के रूप में पूजा जाता हैं, जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं। कुषाण युग
के कुछ सिक्कों में नरसिंह जैसी छवियाँ दिखाई देती हैं। आंध्र प्रदेश में, तीसरी-चौथी शताब्दी ईस्वी के एक
पैनल में एक पूर्ण थियोमॉर्फिक स्क्वाटिंग (theomorphic squatting) शेर दिखाया गया है, जिसके कंधों
के पीछे वैष्णव प्रतीक हैं, तथा पांच नायकों (वीर) से घिरे इस शेर को अक्सर नरसिंह के प्रारंभिक चित्रण के
रूप में पहचाना जाता है। यह छवियाँ प्रारंभिक गुप्त काल से नरसिंह की स्थायी पंथ छविओं के तौर पर
तिगोवा और एरण के मंदिरों से अभी शेष हैं। भगवान नरसिंह द्वारा राक्षस हिरण्यकशिपु को मारने की
कथा का प्रतिनिधित्व करने वाले दो चित्र गुप्त-काल के मंदिरों में अभी भी जीवित हैं: दोनों पाँचवीं शताब्दी
के अंत या छठी शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ की मानी जाती हैं। विश्वरूप:
विश्वरूप अथवा विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप माना जाता है। साहित्यिक
स्रोतों में यह उल्लेख किया गया है कि, विश्वरूप के "एकाधिक" या "हजार / सौ" सिर और भुजाएँ हैं, और
उनके शरीर के उन अंगों की किसी विशिष्ट संख्या चित्रित ही नहीं की जा सकती है, जिस कारण प्रारंभिक
गुप्त और गुप्तोत्तर के बाद के मूर्तिकारों को अनंतता और शरीर के कई अंगों को एक व्यवहार्य तरीके से
चित्रित करने में कठिनाई का सामना करना पड़ा। हालाँकि अर्जुन के द्वारा विश्वरूप के विवरण ने मूर्तिकारों
को थोड़ी सुविधा यह दी कि, उन्होंने विश्वरूप को एक बहु-सिर वाले और बहु-सशस्त्र धारण किए हुए देवता
के रूप में वर्णित किया। विश्वरूप की पहली ज्ञात छवि मथुरा स्कूल से एक गुप्त पत्थर पर प्राप्त हुई है, जो
भांकरी, अंगगढ़ जिले में पाई गई है।
विश्वरूप:
विश्वरूप अथवा विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप माना जाता है। साहित्यिक
स्रोतों में यह उल्लेख किया गया है कि, विश्वरूप के "एकाधिक" या "हजार / सौ" सिर और भुजाएँ हैं, और
उनके शरीर के उन अंगों की किसी विशिष्ट संख्या चित्रित ही नहीं की जा सकती है, जिस कारण प्रारंभिक
गुप्त और गुप्तोत्तर के बाद के मूर्तिकारों को अनंतता और शरीर के कई अंगों को एक व्यवहार्य तरीके से
चित्रित करने में कठिनाई का सामना करना पड़ा। हालाँकि अर्जुन के द्वारा विश्वरूप के विवरण ने मूर्तिकारों
को थोड़ी सुविधा यह दी कि, उन्होंने विश्वरूप को एक बहु-सिर वाले और बहु-सशस्त्र धारण किए हुए देवता
के रूप में वर्णित किया। विश्वरूप की पहली ज्ञात छवि मथुरा स्कूल से एक गुप्त पत्थर पर प्राप्त हुई है, जो
भांकरी, अंगगढ़ जिले में पाई गई है।
संदर्भ
https://bit.ly/2UeD85W
https://bit.ly/3BdmULk
https://bit.ly/36FazkN
https://bit.ly/3xMvw9g
https://en.wikipedia.org/wiki/Narasimha
https://en.wikipedia.org/wiki/Varaha
चित्र संदर्भ 
1. विश्वरूप विष्णु, कश्मीर राज्य, जम्मू और कश्मीर, छठी शताब्दी CE का एक चित्रण (wikimedia)
2. उदयगिरि की गुफाओं में लगभग 400 CE , चंद्रगुप्त का शासन काल की वराह की मूर्तियाँ  (wikimedia)
3. नरसिंह प्रतिमा का एक चित्रण (wikimedia)
4. चंगु नारायण मंदिर में विश्वरूप विष्णु का एक चित्रण (wikimedia)
 
                                         
                                         
                                         
                                        